ऋषभदेव की बात करते हैं। इनके गुण और यश की चर्चा सर्वत्र व्याप्त है। इनका नाम सनातन आ जैन दोनों धर्मो में आता है। जैनों के लिए तो ये प्रथम तीर्थंकर हैं और आदिनाथ के रूप मे जाने जाते हैं । ऋषभदेव आयुर्विज्ञान, तन्त्र विज्ञान, औषधि निर्माण, नाड़ी विज्ञान आदि अनेक कलाओं मे निपुण योगी ही नही महायोगी हैं। ऋषभदेव वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम दिगम्बर जैन मुनि हैं। अयोध्या के समीप कुरुजांगल मे इनका विलक्षण आश्रम था। ऋग्वेद से अथर्ववेद तक इन्होने अपनी ज्ञान को सिंचित किया था। भेषजीय ज्ञान से परिपूर्ण हैं। व्याधि को जड़ि से उन्मूलन करने की क्षमता इनमे है। नये भेषजीय मिश्रण से संसारक का कल्याण करते हैं। सर्प, बिच्छू, कुत्ता, बिल्ली, एवं अनेक एवं तरह के विषदन्त से विष को तुरत समाप्त करने का सूत्र ज्ञान इन्हें प्राप्त है। ये नित्य पूज्यनीय हैं। इनके यश और कृति का डंका बोलता है और झण्डा लहराता है। कहाँ? दिगदिगन्त मे।
ऋषभदेव जैन और हिन्दू धर्म के सेतु हैं। सर्वत्र पूज्य हैं। प्रातः स्मरणीय हैं। चिर नवीन हैं। चिर पुराण हैं। मर्यादापुरोषोत्तम राम की नगरी अयोध्या से इनका सम्बन्ध रहा है। अति आवश्यक भारतीय चरित्र हैं। इन्होने हमारे संस्कार, विचार, संस्कृति के बीज बोये हैं। हम इनके ऋणी हैं। भारतवर्ष के जनसामान्य को इनके बारे मे जानकारी होनी चाहिए। जैन ग्रन्थों की विवेचना से यह स्पष्ट होता है कि ऋषभदेव अन्तिम कुलकर राजा नाभिराज के पुत्र थे । यशवती देवी और सुनन्दा इनकी दो पत्नी थी। ऋषभदेवक 100 पुत्र आ दू बेटियाँ हैं जिनमे भरत सबसे बड़े हैं जो बाद में चलकर महाप्रतापी सम्राट हुए। इन्ही भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। इनके सभी संतान यशस्वी और बलशाली हैं। ऋषभदेव के पुत्रों में बाहुबली, वृषभसेन, अनन्तविजय, अनन्तवीर्य, अच्युत, वीर, वरवीर आदि आदि प्रमुख हैं। इनकी दो बेटियों का नाम क्रमशः ब्राम्ही और सुन्दरी है। ऋषभदेव को नारी शिक्षा के लिए आदि पुरुष में रखा जा सकता है। क्योंकि सभ्यता के आरम्भ में हि अपनी दोनों पुत्रियों को क्रमशः लिपिविद्या (अक्षरविद्या) और अंकविद्या की शिक्षा देकर विदुषी बनाया। इनके बारे में और भी बहुत बात है
वैदिक धर्मो और धर्म ग्रन्थों मे भी ॠषभदेव की चर्चा है। भागवत मे अर्हन् राजा के रूप मे इनका वर्णन है। यहाँ भी भरत आदि 100 पुत्रों का वर्णन जैन धर्म के समान मिलता है। लोक मान्यता है कि जीवन की अंतिम अवस्था मे ऋषभदेव नग्न साधु अर्थात दिगम्बर के स्वरुप मे समस्त भारतवर्ष मे विचरण करते रहे। ॠग्वेद और अन्य प्राचीन वैदिक साहित्य मे भी इनके गुण, यश का जिक्र किया गया है।
श्रीमद्भागवत के पाँचम् स्कन्ध के अनुसार मनु के पुत्र प्रियव्रत का पुत्र आग्नीध्र हुए जिनके पुत्र का नाम राजा नाभि (जैन धर्म मे नाभिराय नाम से उल्लिखित) था। राजा नाभि के पुत्र हैं ऋषभदेव जो एक समय में महान प्रतापी सम्राट थे। भागवतपुराण के अनुसार भगवान ऋषभदेव का विवाह इन्द्र की पुत्री जयन्ती से हुआ। इन दोनों से इन्हें एक सौ पुत्र हुए। उनमे सबसे बड़े और गुणी थे चक्रवर्ती भरत । भरत से छोटे कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इन्द्रस्पृक, विदर्भ और कीकट ये नौ राजकुमार शेष नब्बे भाइयों से श्रेष्ठ हैं। उपरोक्त वर्णित भाइयों से छोटे निम्नलिखित नौ भाई अर्थात ऋषभदेव के पुत्र अर्थात राजकुमार कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन सभी भागवत धर्म का प्रचार करनेवाले उच्चकोटि के भगवद्भक्त हैं। इन सबसे छोटे इक्कासी पुत्र पिता की आज्ञा का पालन करते हुए निरंतर पुण्यकर्मो का अनुष्ठान करते हुए शुद्ध ब्राह्मण हो गये।
महामुनि ऋषभदेव का जीवन चरित अनेक अद्भुत वृत्तान्त से भरा हुआ है। इनकी महिमा अपार है। बचपन में ही चारों वेद का अध्ययन कर तपस्या और साधना करने के लिए ऋषभदेव हिमालय पर्वत चले गए। एक मान्यता के अनुसार साधना की प्राप्ति कर वापस आते हुए ये कहीं भटक गये और भटकते-भटकते कश्मीर पहुँच जाते हैं। कश्मीर मे इनकी मुलाकात लकुलीश कुल के यात्रियों से होती है। ऋषभदेव उनलोगों को अपनी राह भटकने की कथा कहते हैं और उन्ही लोगों के साथ मिल जाते हैं। यहाँ से इनकी नयी यात्रा प्रारम्भ होती है। उन यात्रियों के दल के साथ क्रिवी तथा बाहुली की यात्रा सम्पन्न कर वहाँ ये हिंगुलजा देवी की आराधना करते हैं। इसके बाद वहाँ से अकेले गान्धार देश जाकर वहाँ से अरमिनी जाते हैं। अरमिनी में कुछ दिन रुककर युनानी वैद्य पद्धति के समस्त ज्ञान रात-दिन अथक साधना और जिज्ञासा से करते हैं। परिश्रम करते हैं। एक-एक औषधि के निर्माण की पद्धति और भेषजीय ज्ञान को आत्मसात करते हैं और समस्त पद्धति को एकाकार कर लेते हैं। इनकी लगन, मेधा, जिज्ञासा, काया शास्त्र आदि के गूढ़ सिधांत से प्रभावित होते हुए वहाँ के गुरु इनको गुरु हर्मेश देव का दण्ड प्रदान करते हैं। इस तरह से ऋषभदेव के पास अब तीन प्रकार का दण्ड संग्रहित हो गया – लकुलीश गुरु का कृपादण्ड, हिंगुलजा देवी का आराधना दण्ड, और हर्मेश देव का द्विसर्प बंकिम दण्ड।
इस महायात्रा से भटकते भटकते वापस आकर ऋषभदेव कुरुजांगल में वेद का गहन अध्ययन कर वहाँ नाग जाति से सर्प विद्या के गहन और गूढ़ ज्ञान प्राप्त करते हुए विष निवारण मे पारंगत हो जाते हैं।
अभी इतना ही ।।।।