मान सम्मान***एक पत्नी का – शिव कुमारी शुक्ला : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi :शुचिता एक बहुत ही  मासूम, बिन्दास लड़की थी। मासूमियत उसके चेहरे पर विखरी पडी थी। अल्हड़ विन्दास अपने आप में मस्त ग्रेज्यूशन के अंतिम वर्ष की छात्रा थी। अभी बीस की भी नहीं हुई थी कि माता पिता ने उसका रिश्ता तय कर दिया। उनके किसी परीचित ने रिश्ता बाताया जो उन्हें हर तरह से उपयुक्त लगा तो उन्होंने घर आया रिश्ता छोड़ने में समझदारी नहीं समझी और तय  कर दिया। शुचिता की परीक्षा खत्म होते ही शादी भी करने की  तैयारी कर ली।

छोटा परिवार था मां-पिता एवं एक छोटा भाई और बहन। शशांक स्वयं आकर्षक व्यक्तित्व का धनी था एवं मल्टीनेशनल कम्पनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत था। बोलने चालने में सुशील सभ्य बड़ों  का मान सम्मान करने वाला तो उन्हें उसमें कोई कमी नजर नहीं आई। वे स्वयं मध्यम वर्गीय परिवार  से थे अतः ज्यादा दहेज नहीं दे सकते थे ,यहाँ मांग कम थी। सो दोनों परिवारों की रजामंदी  से धूमधाम विवाह  सम्पन्न हुआा और शुचिता ने बहू के रूप अपनी ससुराल में  पदार्पण किया। पन्द्रह-बीस दिन तो बडे आराम से गुजरे। घर भी मेहमानों से खाली हो गया। अब केवल परिवार के लोग ही रह गये  थे।

अभी वह ठीक से सम्हल भी नहीं पाई थी, सबसे घुल-मिल भी नहीं पाई थी कि उसकी खुशियों को ग्रहण लग गया।वह अचंभित सी परिवार जनों का बदला रूप समझ नहीं पा रही थी कि ये एक दम क्या हो गया ।अभी उसके हाथों की मेहंदी का रंग फीका भी नही पड़ा था कि पूरे घर के कामों का भार उसके कंधो  पर  डाल सास माया जी गृहस्थी के झंझटों से मुक्त हो गईं।

वह कमरे में बैठ टीवी सीरियल देखती या बेटी  से बतियाती रहती । माँ बेटी शापिंग के लिए निकल जाती ।मायके में कभी उसने इतना काम नहीं किया था,सो थक कर चूर हो जाती पर कोई हमदर्दी  दिखाने वाला नहीं था ,जो देखो वही डॉट फटकार उसके कामों में दोष निकालना ।

 छोटे भाई बहन अपने छोटे छोटे कामों के लिए उसे ही आदेश देते। जरा भी देर होने पर बुरा भला कहते वह सिर्फ रोकर रह जाती। एक दिन वह कमरे मे जाकर खड़ी हो गई जहाँ मम्मी बेटी बैठी टीवी देखते-देखते बात कर रही थी। माया जी बोली यहाँ  क्या कर रही है। हमारी बातें सुनने आई है। जा ,जाकर कुछ काम देख। वह तो उनके पास बैठने बात करने गई थी, दुतकार सुन अपने कमरे जाकर रोने लगी।

अपनी हम उम्र नन्द से उसकी बात करने की इच्छा होती एक दिन वह नंद के कमरे में चली गई वह चिल्लाकर बोली भाभी आपकी हिम्मत कैसे हुई मेरे कमरे में आने की अभी के अभी आप यहां से निकलो फिर कभी भूल कर भी इधर आने की भूल मत करना।

वहाँ से भरी आँखों अपना मुँह लेकर आ गई । वह समझ नहीं पा रही थी कि सब उसे क्यों दुत्कारते हैं।

एक दिन देवर का टिफिन तैयार करने में जरा दे क्या हो गई उसने हंगामा कर दिया।  शशांक भी ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था, शोर सुनकर बिना पूरी बात जाने वह भी शुचिता पर फट पड़ा। पता नहीं क्या करती है कोई काम समय पर नहीं होता। सुबह और जल्दी उठा कर मेरे भाई बहन को परेशान करने की जरूरत नहीं है।

वह याचना भरी नजरों से शशांक की ओर देखकर उससे सहानुभूति की उम्मीद कर रही थी, किन्तु वह फिर चीख पडा खडी खडी आँखे फाडकर क्या देख रही है जा कर अपना काम कर।

 पूरा परिवार जब इकट्ठा बैठता तो सब उसका परिहास उडाते, ताने मारते उसका अपमान करते वह खून का घूंट पीकर रह जाती।

उसकी हंसी मासूमियत जिस पर शंशाक अपना दिल  हार बैठा था चेहरे से गायब हो गई थी। हर समय मायूस चेहरा  लिए वदहवास सी काम में जुटी रहती। कभी सोचती कि शादी का यहि मतलब है तो इससे अच्छा तो उसकी शादी नहीं होती। अपने घर में सुखी तो थी। 

शशांक कभी उसे अपने साथ कहीं भी बाहर नहीं ले जाता कहता इस बद‌सूरत को लेजाने मे शर्म आती है। हाँ उसके ससुर सौरभ जी जरुर अपनी पत्नी से कहते वह भी किसी की बेटी है प्यार से उसे रखा करो देखो कैसी बुझी-बुझी रहने  लगी है।

 माया जी जोर से बोलती तुम चुप रहो ज्यादा प्यार मोहब्बत दिखाने की जरूरत नहीं है, नहीं तो सिर पर  चढ़कर नाचेगी।

 सौरभ जी दबी जवान कहते जैसे तुम मेरे मां बाप के सिर पर नाचीं थीं।

माया जी क्या बोले ।

कुछ नहीं। 

कभी वे शशांक को सम‌झाते कि पत्नी है तुम्हारी उसकी इज्जत करो। प्यार  से उसका दुख दर्द समझो । कुछ  समय उसके साथ बिताओ तुम्हारे भरोसे ही वह अपना परिवार छोड़ का आई है।

 तो पापा क्या कमी है उसे अच्छा खाती पीती  है ,रहने को घर है अच्छा पहनती है किस चीज की कमी है। 

बेटा पत्नी को पती का साथ चाहिए इन बस्तुओं की उसे दरकार नहीं होती।

 तो क्या पापा मैं उसका गुलाम बनकर उसके पल्लू में मुँह छिपा कर पड़ा रहूँ। मेरी अपनी जिन्दगी है, यार दोस्त हैं, में  उन सबको छोड़ दूँ। 

सौरभ जी चुप हो  जाते।

ऐसी ही परिस्थितियो में वह दो साल में ही एक बेटे शुभम की माँ बन गई। अब उसकी दिनचर्या छोटे बच्चे के साथ और कठीन हो गई। फिर दो साल बाद बेटी शुभि उसकी गोद में आ गई।

 बेटी शुचिता का मुरझाया चेहरा देख उसके माता-पिता को बहुत दुःख होता। वे उसकी मदद करने में चाह कर भी पूरी तरह सक्षम नहीं थे। उनके दो बच्चे और थे।  एक बेटी एवं बेटा। उनकी जरूरतें पूरी करना ही उनके लिए दूभर था ।ऐसे में वे शुचिता और दो बच्चों की जिम्मेदारी उठाने में अपने को असहाय मानते। हाँ कभी-कभी वे शशांक को दुनियादारी की बातें समझाने का प्रयास करते वह उन्हें भी दो टुक कह देता। मेरे घर में क्या कमी है जो आपकि बेटी दुःखी है। सब सुविधाएं तो मिल रही हैं, नहीं रहना है तो आप रख लो।

बे चुप रह जाते क्या करते।

ऐसे ही पन्द्रह साल बीत गये । उसने अपना पूरा ध्यान बच्चों की परवरिश पर लगा दिया | वह उन्हें संस्कारों से पूर्ण एक सभ्य नागरिक बनाना चाहती न कि उनके पिता की तरह उद्दंड । मां की कुशल व्यावहारिक छत्र छाया में बच्चे संस्कारवान  बन  रहे थे। पढ़ने में होशियार थे। कक्षा मे हमेशा प्रथम आते और शुचिता उनकी सफलता से अपने सारे दुःख दर्द भूल कर खुश होती। इस बीच देवर ,नंद की भी शादी हो चुकी थी।

देवर अपने परिवारवालों के व्यवहार से अच्छी तरह वाकिफ था सो वह हर समय अपनी पत्नी के मान- सम्मान की खातिर ढाल बन कर खड़ा रहता।मजाल है कि कोई उसकी पत्नी से एक शब्द भी बोल ले।अपनी पत्नी की सुख शान्ति के लिए वह उसे अपने साथ लेकर दूसरे शहर में चला गया जहां उसकी पोस्टिंग थी। अब भी शशांक की आँखे नहीं खुली। नन्द जरुर अपनी माँ को फोन पर  बात कर भाभी के विरुद्ध कान भरती रहती।

बच्चे अब बड़े हो गए थे वे सब समझने लगे थे। वे अपनी माँ की स्थिति से दु:खी थे। बचपन से उन्हें अपमानित हो रोते देख बड़े हो रहे थे। उनके मन में अपने पिता के प्रति आक्रोश  था कि वे क्यों नहीं मम्मी का ध्यान रखते।

आज रविवार का दिन था। सब सुबह का नाश्ता करके बैठे  थे। बुआ भी आई हुई थीं। किसी  बात को लेकर सबने शुचिता का मखौल उड़ाना शुरू कर दिया । सब हंस रहे थे केवल शुचिता डबडबाई आंखों से  चाय नाश्ते के बर्तन समेट रही थी। तभी शुभि ने उठकर उनके साथ बर्तन उठवाये। शुभम भी  चुप था । दोनों बच्चे मौन रह कर अपना क्रोध जता रहे थे । तभी शशांक अपने कपडे प्रेस  न  हुऐ देखकर बुरी तरह से चिल्लाया मेरे कपड़े अभी तक तैयार नहीं है। क्या कर रही थी सुबह से। मैं क्या पहन कर जाऊं।समय पर काम नहीं करने की तो तुमने कसम खा रखी है।

शुचिता -जी, अभी कर देती हूं,कह कर कपड़े लेकर चल दी।

तभी शुभम बोला – पापा ये क्या तरिका है  मां  से बात करने का । मां तो सुबह से किचन मे लगी थीं । इतना तरह तरह का नाश्ता  जो बनाया ।आप  क्या कर रहे थे, आप भी तो कर सकते थे। 

क्या  कहा  मैं करूं  तो इसको किस बात का खिलाता हूं। 

पापा माँ कोई नौकरानी  नहीं है इस घर की गृहस्वामिनी है ।उन्हेंने आपके इस मकान को सुघढ़ता से गढ‌ कर एक घर बनाया हुआ है और आप हर समय उनका मान सम्मान धूल में मिलाते  रहते हैं, चाहे जब सबके सामने उन्हें उल्टा सीधा बोल कर अपमानित करते हैं।

 तभी शुभि बोली हां पापा दादी और बुआ भी हर समय उन्हें बुरा भला बोलतीं  रहती हैं आप कभी उन्हें मना नहीं करते। अब हम इतने भी छोटे नहीं है कि सब समझ नहीं सकें। चाची से कोई कुछ नहीं कहता क्योकि चाचा किसी को उनसे कुछ कहने ही नहीं देते किन्तु आप तो दूसरों को क्या मना करेंगे खुद ही हमेशा उन्हें डांटते  रहते हो, मम्मी को कितना बुरा लगता है। हमेशा रोती रहती है। आप कभी उनकी खुशी का ध्यान नही रखते। 

बस पापा थोडे दिनों की बात है , में बडा हो कर मम्मी को अपने साथ ले जाऊंगा आप सबसे दूर । उन्हें  पूरे मान सम्मान  के   साथ रखूंगा ।कभी उनकी आँखों में एक आँसू नही आने दूंगा। उन्हें वे सारी खुशियां दूँगा जिनकी वे हकदार हैं और आपने आज तक उन्हें हर खुशी से दूर रखा । बताइए कब आप मम्मी से अच्छी तरह बोले, कब उन्हें कहीं खुश होकर घुमाने ले गए। कब आपने  पूछा  कि उन्हें कुछ दुःख तकलीफ है. सिर्फ काम और काम की उनसे अपेक्षा की गई वे क्या चाहती हैं किसीने सोचा कभी। 

शशांक – तो और क्या चाहता उसमें ऐसा क्या गुण है जो में उसकी तारीफ में कशीदे कहता। 

शुभि- पापा मम्मी में कौनसा गुण नहीं है।वो पढ़ी लिखी हैं, समझदार हैं आप सब की तरह किसी को अपशब्द नहीं बोलतीं किसी का मजाक बना कर अपमानित नहीं करतीं सबकी जरुरतों का ध्यान रखती हैं। हमें पढ़ाने लिखाने  में इतनी मेहनत करतीं हैं। और आपको क्या चाहिए। क्या-कभी आपने देखा है कि हम क्या करते हैं। पढ़ते है या नहीं कभी आप हमारे स्कूल गए हैं। हमा क्या करते हैं कभी आपने दो मिनट भी हमारे पास  बैठ कर पूछा ,कभी हमसे बात की। 

शशांक का मुँह हैरानी से खुला रह गया। अपने किशोर वय बच्चों के मुख से इतना कटु सत्य सुनकर उसे शब्द नहीं मिल रहे थे कि बच्चों को क्या जवाब दे। आज उन्होंने उसे, उस सत्य के दर्शन करवाए थे जिसकी तरफ कभी उसका ध्यान ही नहीं गया। आज उसकी गर्दन अपनी पत्नी और बच्चों के सामने शर्म से झुकी थी।सोच रहा था कि पन्द्रह वर्षों तक शुचिता के साथ उसने कितना अमानुषिक बर्ताव किया जिसकी कोई माफी नहीं है।है तो केवल सजा।

तभी शुभि बोली पापा दादी और बुआ को 

समझाओ मम्मी को परेशान करना बन्द करें। वे सबकी सेवा करतीं हैं फिर भी उन्हें बुरा भला कहा जाता है। 

आज सौरभ जी का सीना गर्व से फूल गया था अपने पोते-पोती की बातें सुनकर जो वे चाहते थे और कर नहीं पाए वह काम बच्चों ने इतनी आसानी से कर दिया। यह उनकी बहू के  ही दिए संस्कार थे जो आज उसके  बच्चे उसकी ढाल बन कर खडे थे। वह वास्तव में एक सुघड गृह लक्ष्मी थी जिसने सब कुछ सहते हुए भी उस परिवार को बाँध कर रखा किन्तु उसके गुणों की की कद्र उनकी पत्नी एवं बेटे ने नहीं जानी। वे  अपनी कुर्सी से उठ कर बच्चों के पास आए, और बच्चों को गले लगाते भावुक स्वर में बोले वाह मेरे शेर बच्चों आज तुमने वह कर दिखाया जो में वर्षो से चाहते हुए भी नहीं कर पाया। तुमने सबकी आँखें खोल दी।

अगर अभी भी किसी को कुछ समझ नहीं आया तो उससे ज्यादा दुर्भाग्यशाली कोई  और नहीं होगा। आजसे अभी से मै तुम लोगों के साथ हूँ ।आज से तुम्हारी मम्मी- यानि कि मेरी बहू जो गुणों की  खान थी उसको घर में सही दर्जा नही दिया गया पर अब मैं कहता हूँ कि वह इस घर की गृहस्वामिनी है। गृहलक्ष्मी है। साक्षात लक्ष्मी स्वरुपा मेरी बहू को अपमानित करने की जो जुर्रत करेगा वह इस घर में रहने का हकदार नहीं होगा  ,चाहे वह कोई भी हो। आज बच्चों तुम्हारे साथ से इस बूढे शरीर में भी निर्णय लेने की क्षमता आ गई है।

बच्चों कहते हैं न कि देर आये दुरुस्त आये। दो दिन बाद दीवाली है सही मायने में  तुम्हारी माँ का गृहप्रवेश ,मैं गृह लक्ष्मी के रूप में कराऊँगा और पूरे मान सम्मान के साथ उसे वो पूरे अधिकार मिलेंगे जो एक पत्नी, गृहस्वामिनी को मिलने चाहिये।

सौरभ जी शुचिता के सिर पर हाथ रख बोले बेटी देर तो हो गई पर अब तू चिंता  मत कर ये तेरा बूढ़ा बाप तेरे साथ है, तेरे ये संस्कारवान बच्चे तेरे साथ है अब किसकी चिन्ता।

सास-नन्द अपनी जगह गर्दन झुकाए बैठीं थीं। शर्मिनदगी की वजह से शंशाक शुचिता से नजरें नहीं मिला पा रहा था, बच्चों के लिए गर्व अनुभव कर रहा था कि उन्होंने उसकी आंखे खोल दी।

सौरभ जी बोले बच्चों आज इसी जीत का जश्न मनायेंगे । आज तुम्हारी मम्मी कोई काम नही करेगी । बाहर चलते है लंच के लिए और जिसे नहीं आना है वह अपना बना कर खाये। चलो सब तैयार हो जाओ।  बच्चे बहुत खुश थे अपनी मम्मी के लिए। शुभि बोली मम्मी जल्दी अच्छे से तैयार हो जाओ मैं आपकी मदद करती हूं। सास ननद  और शशांक भी चुपचाप उनके साथ चल पड़े।

आज शुचिता के शापित जीवन का अन्त हो सुखद भविष्य की राहें जो खुल गई थीं। 

 

शिव कुमारी शुक्ला

स्व रचित मौलिक अप्रकाशित 

8-11-23 एवं

साप्ताहिक विषय   गॄहलक्षमी

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