सुरभि दीदी अभी कहां जा रही हो? बाहर बहुत बारिश हो रही है, अभी अंदर आ जाओ, मीना बाई ने जाती हुई मालकिन को रोका।
आप काम करो मै देव दर्शन करके आती हूं,बस पांच मिनट में आ रही हूं, सुरभि स्कूटी स्टार्ट करके जाने लगी।
मगर दीदी, इस वक्त सड़क पर बहुत फिसलन है, बारिश बंद होने के बाद चली जाना, मगर उसकी बात सुने बिना ही सुरभि जा चुकी थी।
बारिश झमाझम बरस रही थी, और बिजली भी कड़क रही थी, सुकेत अखबार पढ़ रहे थे , दोनों छोटी बेटियां वहीं आंगन में खेल रही थी।
मम्मी कब आयेगी रिंकी जिद करके बोली, मुझे उनके हाथ से ही दूध पीना है। अभी आ रही है, तुम दूध पीलो मीना बाई ने मनुहार से दूध पिला दिया।
सुकेत बाबू , मालकिन को गये हुए पन्द्रह मिनट हो गये है, वो पांच मिनट का कहकर गई थी, आप जरा फोन लगाइये।
हां, मै लगा रहा हूं पर बारिश में फोन बंद आ रहा है, लगता है उस एरिये में नेटवर्क नहीं आता है, मै थोड़ी देर बाद फिर से लगाता हूं।
ठीक है, मेरा काम हो गया है, मै वापस घर जा रही हूं, वो बैग उठाते हुए बोली।
मीना बाई, रिमझिम अभी भी हो रही है, तुम रूक जाओं।
मै चली जाऊंगी और वो अधीरता से चली गई, मीना बाई का मन घबरा रहा था, घर की सड़क छोड़कर उन्होंने मंदिर की सड़क पकड़ ली, कहीं मालकिन मुसीबत में नहीं हो, ये सोचकर वो चली जा रही थी।
थोड़ी दूर आगे बढ़ी ही थी कि सुरभि की स्कूटी दिखी, और सीढ़ियों को देखकर उनकी आंखें फट गई, वो वहां मुंह के बल पड़ी थी, आसपास बारिश की वजह से कोई नजर नहीं आ रहा था, मीना बाई जोर से मदद के लिए चिल्लाई पर किसी ने उनकी आवाज नहीं सुनी।
वो थोड़ी दूर स्थित एक दुकान पर गई, दुकान पर कोई नहीं था, दरवाजा खटखटाया तो अंदर से टीवी की आवाज भी आ रही थी, थोड़ी देर बाद दो लड़के बाहर निकले, अभी बारिश की वजह से दुकान बंद है, शाम को आना।
बेटा, मेरी मालकिन सीढ़ियों पर गिरी है, उन्हें घर ले जाओ, मुझे फोन नंबर भी किसी का याद
नहीं है, वरना घर से किसी को बुला लेती।
मीनाबाई उन्हें सीढ़ियों तक ले गई, लगता है ये सीढ़ियों से फिसलकर मर गई है, एक लड़के ने कहा।
नहीं, ऐसा मत कहो, ये ठीक है, बस बेहोश हुई है, इन्हें लेकर तो चलो।
दोनों लड़कों के पास सामान का ऑटो था, उसी में बैठाकर उन्हें घर ले गये, सुकेत ने तुरन्त एंबुलेंस बुलाई
और सुरभि का इलाज किया गया, सुरभि की रीढ़ की हड्डी में चोट आई थी, और तीन महीने डॉक्टर ने बेड रेस्ट बताया था।
ये सुनते ही सुकेत चौंक गया, दोनों बच्चे छोटे हैं और
उसकी भी प्राइवेट नौकरी है, और वो इतने पैसे वाला भी नहीं है कि चौबीस घंटे की सार संभाल के लिए कोई रख लें।
सुकेत ने अपनी मां को फोन लगाया, मां सुरभि सीढ़ियों से गिर गई है, और डॉ ने आराम बताया है, आप जल्दी से यहां आ जाइये, पिंकी और रिंकी अभी छोटी है, दोनों के स्कूल भी है और मेरी नौकरी भी है, मै इतना समय नहीं निकाल पाऊंगा।
तेरी पत्नी गिरी है तो मै क्यूं आऊं? अरे! इस बुढ़ापे में मुझसे काम नहीं होगा, फिर तेरा भाई मकान भी बनवा रहा है, दोनों जनें कभी टाइल्स पसंद करने कभी दरवाजे और खिड़कियां बनवाने तो कभी दीवारों पर लगाने वाला कलर पसंद करने जाते हैं, तो बच्चों को मेरे पास छोड़ जाते हैं, अब वो इतना बड़ा मकान बनवा रहा है तो उसे बीच में छोड़कर कैसे आऊं? तूने तो आज तक मां के लिए कुछ नहीं किया, बस अपने परिवार को लेकर अलग रह रहा है, तेरा भाई तो मेरे लिए अलग से आलीशान कमरा बनवा रहा है, मुझे परेशान मत कर, तेरी पत्नी तू जानें, तेरे बच्चे तू जानें और उन्होंने फोन रख दिया।
मां, ऐसा मत कहो, मेरा परिवार क्या आपका परिवार नहीं है? आप ऐसा क्यों कह रही है? हम दोनों की सेवा में क्या कमी रह गई है? मैंने और सुरभि ने कभी आपकी सेवा में कोई कमी नहीं रखी, आज हम दोनों को आपकी जरूरत है।
आप आ जायेगी तो मुझे भी सहारा मिलेगा और सुरभि को भी राहत मिलेगी कि घर किसी अपने के हाथों में सुरक्षित है।
बस सेवा से ही मां को खुश करता है, और तो कुछ करता नहीं है, ये कहकर सुकेत की मां ने फोन कर दिया।
मन ही मन सोचने लगा कि ये मां मुझसे हमेशा नाराज और गुस्से में क्यों रहती है? आखिर मां को क्या चाहिए?
जितना बन पड़ता है उतना तो मै करता ही हूं, जब से सुरभि और मैंने घर छोड़ा है मां मुझसे नाराज़ ही रहती है। अब करता भी तो क्या करता, मै बेरोजगार था और झूठ बोलकर मेरी शादी करवा दी गई, यही बोला कि लड़का किसी दुकान में पार्टनर शिप में काम कर रहा है, सुरभि पर भी दबाव था, उसकी शादी कहीं नहीं हो रही थी, बड़े भैया मानसिक रोगी थे,जो समझ में आया तो ज्यादा पूछताछ नहीं की और हां कर दी।
ससुराल आकर उसने सबको अपना लिया, सबकी मन से सेवा करने लगी, लेकिन वो रोज चिंतित रहती थी कि जब भी वो सुकेत से रूपये मांगती थी, उसकी जेब में कभी रूपये नहीं होते थे, क्यों कि शादी के बाद बेरोजगार सुकेत खुद नौकरी ढूंढने लगा था, वो खुद अपनी मां से रोज सौ पचास रूपए किराये के लेकर जाता था।
एक दिन सुरभि को पता चला कि वो गर्भवती है तो वो खुश हो गई, वो सोच रही थी क्या पता होने वाले बच्चे से उसका भाग्य खुल जायेगा, लेकिन जब उसने अपनी सास की आवाज सुनी तो वो हैरान रह गई, वो सुकेत को कह रही थी, इतनी भी क्या जल्दी थी, बच्चा पैदा करने की, पहले ही तेरा और सुरभि का खर्चा तेरे पापा उठा रहे हैं।
अब तेरी संतान को खिलाने के लिए हमारे पास पैसे नहीं हैं तू कब तक तेरे परिवार का बोझ हम पर डालेगा?
ये बातें सुरभि को चुभने लगी वो रात को कमरे में बोली, तुम कुछ नौकरी क्यों नहीं करते? कुछ नौकरी करके कमाओगे तो हम अपनी संतान को पालेंगे, ये संतान आपकी जिम्मेदारी है, आपके मम्मी-पापा की नहीं ।
लेकिन तुम्हें इस हालत में छोड़कर मै कहां जाऊंगा?
मुझे कुछ नहीं पता? मेरा बच्चा अपने पिता की कमाई खायेगा, मै कब तक सास-ससुर पर निर्भर रहूंगी?
सुरभि ने आश्वासन दिया मै आपके बगैर भी रह लूंगी, मुझे अपने पति की कमाई चाहिए।
सुकेत ने अपने दोस्त से बात की जो उसी के साथ कॉलेज में पढ़ता था, उसने अपनी ही कंपनी में उसकी नौकरी लगवा दी, इधर सुरभि पति से अलग रही और सास -ससुर के साथ उसने काफी तकलीफें झेली, सास उसे गर्भावस्था में भी भरपेट खाना नहीं देती थी, डॉक्टर से इलाज भी वो मायके से आये -गये पैसों से करती थी,
अपनी पीड़ा उसने कभी भी मायके में जाकर नहीं की क्योंकि बड़े बेटे के पागल होने पर उसके माता-पिता वैसे भी दुखी रहते थे।
सुकेत के जाने के बाद पांचवें महीने सुरभि ने पिंकी को जन्म दिया, पर अभी तक भी सुकेत अच्छा कमाने नहीं लगा था, अभी इतनी सैलेरी नहीं थी कि वो अपनी पत्नी और बेटी का खर्च उठा सकें।
सुरभि पांच महीने तक भगवान से प्रार्थना करती रही, सारे देवी देवताओं को मनाती रही, अकेले कमरे में बैठे-बैठे रात भर आंसू बहाती रही, आखिर ईश्वर ने उसकी सुनली, बेटी जब पांच महीने की हुई तो सुकेत की सैलेरी बढ़ गई, और वो अपनी पत्नी और बेटी को इज्जत और स्वाभिमान के साथ ले गया।
सुकेत से उसके मम्मी -पापा और छोटा भाई रितेश भी नाराज़ हो गया, सबने यही समझा कि सुरभि ऊनका बेटा उनसे छीनकर ले गई, पर किसी ने ये नहीं देखा कि सुरभि ने बिना पति की कमाई और साथ के गर्भावस्था के नौ महीने कितनी मुश्किलों से बिताएं।
सुकेत का छोटा भाई उसके माता-पिता के साथ था, पर सुरभि तो अकेली थी। पत्नी को पति के प्यार के साथ जीवन निर्वाह के लिए हर महीने रूपये भी तो चाहिए।
आज दस साल हो गये है, सुकेत और सुरभि मां के पास जाते हैं पर वो हमेशा नाराज ही रहती है।
एक दिन अचानक रात को फोन आया कि सुकेत के पापा अब नहीं रहे, वो पूरे परिवार को लेकर वहां रहा और सारा काम किया, पिता के क्रियाकर्म में आधा खर्चा भी दिया, जब खर्च ज्यादा होने लगा तो उसने मां से असमर्थता जताई, तो मां ने यही कहा कि समाज को दिखाने के लिए ये सब तो करना पड़ेगा, चाहें तू कर्ज ले या किसी संबंधी से उधार लें।
मां की बेरूखी सुकेत को तोड़कर रख देती थी, वो दिन रात आंसू बहाता था, ऐसे में उसे सुरभि ही संभालती थी।
जब बंटवारे की बात आई तो मां ने दोनों बेटों के साथ भेदभाव किया, छोटा बेटा पैसे वाला था तो उसे बड़ा घर, खुद की जमीने और गहने सब दे दिएं, और बड़े बेटा सुकेत जो मुश्किल से घर चला रहा था उसे एक पुराना छोटा सा घर दे दिया, सुकेत ने जरा भी विरोध नहीं किया, इसे माता-पिता का आशीर्वाद समझ कर रख लिया और अपनी जिंदगी जीने लगा।
आज भी सुकेत जब भी फोन करता, कभी मां ढंग से और प्यार से बात नहीं करती है, उनका सारा प्यार छोटे बेटे रितेश के लिए ही उमड़ता है, छोटा बेटा उन्हें हर बात में सही लगता है, और सुकेत-सुरभि हर बात में गलत ही लगते हैं, एक दिन मां पार्क में गिर गई तो वो अपने परिवार को लेकर वहां चला गया।
वो कुछ दिन रहा और वापस नौकरी पर आ गया, लेकिन दो महीने की बच्चों की छुट्टियां थी तो सुरभि अपनी सास की सेवा में लगी रही और उसकी देवरानी बच्चों को लेकर मायके चली गई।
जब -जब भी जरूरत पड़ी, वो जाता रहा, अपनी कमाई के हिसाब से उन्हें पैसा देता रहा, पर मां कभी खुश नहीं हुई, सच है मां भी पैसे, वाले बेटे की होती है, उसी का पक्ष लेती है।
तभी वो पुरानी यादों से बाहर आता है, नर्स उसे अंदर ले जाती है, डॉक्टर कुछ दवाइयां लाने को कहते हैं, और वो सभी दवाईयां ले आता है, पांच-छह दिन के बाद अस्पताल से छुट्टी मिलती है, सुरभि भी बड़ी परेशान होती है, आखिर दोनों छोटी बेटियां हैं, घर है, सुकेत का ऑफिस है, सब कुछ कौन संभालेगा? उसके मायके में मम्मी-पापा है नहीं और भैया -भाभी माता-पिता के जाने के बाद पराये हो जाते हैं, बेटी का मायका ही छूट जाता है।
सुरभि जैसे ही शाम को घर पहुंचीं, पूरा घर व्यवस्थित था, दोनों बेटियां चहक रही थी, उनकी ढंग से चोटी बनी हुई थी, तभी मीनाबाई रसोई से आती है, सुरभि दीदी आप सूप पीयो, गरमागरम तैयार है।
मीनाबाई रात होने वाली है, आप घर नहीं गई?
मै अब यही पर रूक गई हूं, जब तक तुम ठीक नहीं हो जायेगी, मै आपको छोड़कर नहीं जाऊंगी।
लेकिन तुम्हारे घरवाले?
घर पर कोई नहीं है, मै और मेरा पति, बच्चे लोग तो बाहर काम-धंधे करते हैं, और अपने परिवार के साथ रहते हैं, हम दोनों बूढ़ा -बूढी रह गये है, पति तो पूरा बेवड़ा दारू पीकर कहीं भी पड़ा रहता है, घर पर कम ही आता है, अब उसे पता लग गया तो कभी-कभी यहां से खाना ले जाता है, साहब ने खाना देने की इजाजत दे दी है। यहां तुम्हारी दोनों बेटियों और घर को संभालूंगी, दुःख में तुम्हारा साथ नहीं छोडूंगी।
सुरभि उन्हें देखते ही खुश हो गई पर थोड़ी चिंता भी करने लगी।
सुकेत जब उसे सूप पिला रहा था तो सुरभि रोने लगी, लेकिन सुकेत अभी मेरी बीमारी में इतना खर्चा हो गया, हम मीनाबाई की पगार कैसे देंगे? उन्होंने तो बड़ी रकम मांगी होगी, ये काम वालियां ऐसे ही मौके का फायदा उठाती है।
नहीं सुरभि, मीनाबाई ऐसी नहीं है, आज उनकी वजह से तुम जिंदा हो, तुम्हें ढूंढते हुए वो ही मंदिर तक पहुंचीं, वरना मै तो घर पर अखबार पढ़ रहा था, उन्हें तुम्हारी चिंता हुई, वो ही बेहोशी की हालत में तुम्हें घर लाई और जितने दिन तुम अस्तपताल में रही उन्होंने ही घर संभाला।
मैने कहा भी मीनाबाई हमारे पास बहुत ज्यादा पैसे न देने हैं, तो वो बोली साहब दो रोटी के लिए घर-घर काम करती हूं, आप वो ही दो रोटी खिला देना, वो ही मेरु पगार होगी, अब देखो ना घर और बच्चों को बिल्कुल अपना समझ कर पाल रही है।
सुरभि ने सुना तो उसकी आंखों में आंसू आ गये, सुकेत ईश्वर ने हमारे लिए मीनाबाई को ही भेज दिया, अब हमें किसी की जरूरत नहीं है, वो पराई होकर भी हमारे लिए सगी से बढ़कर हो गई है, मैंने तो बच्चे छोटे हैं तो उन्हें झाडू -पौंछे के लिए लगाया था, पर उन्होंने तो अपनापन दिखाकर पूरे घर को ही अपना लिया है, अब मुझे सास
और मां की कमी महसूस नहीं होगी।
कुछ दिनों बाद खबर मिली कि मीनाबाई का पति शराब के नशे में एक कार के नीचे आ गया, तब सुरभि और सुकेत ने उन्हें संभाला, अपने बच्चों के द्वारा ठुकराई गई मीनाबाई को हरा-भरा घर मिल गया, वो हमेशा के लिए वहीं पर रह गई। अब सुरभि ठीक होने लगी, एक दिन सास का गुस्से में फोन आया, मैने सुना है तूने कामवाली को हमेशा के लिए घर में रख लिया, अब तेरे और मेरे रिशते हमेशा के लिए खत्म समझों।
ये बात सुकेत ने सुनी तो सुरभि को समझाया, मां के रिश्ते तो सिर्फ पैसे वाले बेटे से ही रहेंगे, तुम जरा भी दुख ना करो, कभी-कभी पराये भी अपने हो जाते हैं और जन्म देने वाले भी पराये हो जाते हैं।
सुरभि -सुकेत, मीनाबाई दोनों बच्चों के साथ सुखपूर्वक रहने लगे।
पाठकों , ये सच है, कई परिवारों में सिर्फ पैसे वाले बेटे की ओर ही मां बोलती है, कम पैसे वाले और कम खर्चा करने वालों से मां भी दूर-दूर और खिंची- खिंची रहती है, ऐसे में कोई पराया साथ दें तो जिंदगी फिर से हंसने लगती है।
धन्यवाद
लेखिका
अर्चना खंडेलवाल
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