Moral stories in hindi : “बहू होना भी किसी गुनाह की सज़ा से कम नहीं है! शादी ही नहीं करनी चाहिए! बँधुआ मजदूरी का ही एक अलग तरीक़ा है ये भी…बस मेरा और काम भी क्या है…दिन भर रंग-रंग के व्यंजन बना कर चराती रहूँ सबको। अपनी ख़ुशी के लिए अपने मन का कुछ करने की सोचो भी तो मम्मीजी को खटक जाता है…मेरा पढ़ना-लिखना तो कुछ ज्यादा ही चुभता है इनको। ख़ुद तो खा-पीकर, सज-सँवर कर, तैयार होकर न जाने किधर निकल ली हैं, मुझे यहाँ चूल्हे-चौके में अकेली झोंक कर…!”
स्वस्ति नाश्ते के लिए पराँठे सेंकती जा रही थी और चेहरे से पसीने के साथ भर आयी आँखों को दुपट्टे के छोर से पोंछती, धीमी, थकी आवाज में बड़बड़ाती जा रही थी।
डाइनिंग टेबल पर उसके ससुर, पति और देवर बैठे हुए नाश्ता कर रहे थे। तीनों के तीनों किसी राजनीतिक प्रसंग के बारे में बात करते हुए ठहाके लगा रहे थे। बीच-बीच में उसके बनाये गोभी के पराँठों और खट्टी-मीठी चटनी का आनन्द लेते हुए ‘एक और..एक और’ की डिमाण्ड के साथ-साथ पराँठों की जम कर तारीफ़ भी किये जा रहे थे।
यूँ सबको संतुष्टि से खाते देखकर उसे हमेशा अच्छा ही लगता है, मगर आज कुछ नहीं सुहा रहा था। सुबह-सुबह उसके हाथ से सासूमाँ ने अख़बार छीन कर उसका जी एकदम से खट्टा जो कर दिया था। एकदम मज़ेदार आर्टिकल था वह, उसकी रुचि का, जिसे आधा ही पढ़ पायी थी।
“ये क्या लेकर बैठ गयी हो फालतू का…चलो बहुत काम पड़ा है अभी!” उनकी यह बात उसे किसी तीर की तरह लगी। तुरन्त ही वह रसोई में चली गयी। आखिर यही तो वह जगह है, जहाँ उसे देख कर मम्मीजी ख़ुश रहती हैं।
तवे पर पराँठा डालते हुए उसका मन मायके के आँगन में विचरने लगा।
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मायके में माँ सभी को पढ़ने के लिए प्रेरित करती थीं। उसे और उसके बड़े भाइयों के साथ दोनों भाभियों को भी ताकि समाचार पत्र मँगाने का उद्देश्य पूरा हो जाये, कागज की पूरी क़ीमत भी वसूल हो जाये।
घर में माँ-पिता दोनों को किताबें पढ़ने का शौक़ था तो घर में मिनी लाइब्रेरी बनी हुई थी और कई साप्ताहिक, मासिक पत्र-पत्रिकाएँ नियमित बँधी हुई थीं। बचपन से माँ-पिता दोनों को पढ़ते देखकर तीनों बच्चे भी उन्हीं की तरह हो गये थे, पुस्तकें पढ़ने के रसिक।
ससुराल में भी दैनिक समाचार पत्र तो दो-दो आते थे, कुछ पत्रिकाएँ भी आती थीं लेकिन किसी को भी पढ़ने का शौक़ नहीं था। बस उसके ससुर थोड़ा बहुत हेडलाइंस और कुछ मुख्य समाचारों को पढ़कर समाचार पत्र या तो अपने साथ अपने कार्यालय ले जाते थे या फिर ऐसे ही पड़े रहते थे, केवल खिड़कियों के शीशे पोंछने के काम आते थे। पत्रिकाएँ भी यूँ ही मेज पर सजावटी सामान की तरह पड़ी रहती थीं। ये आने-जाने वालों पर अच्छा प्रभाव डालती हैं, सोच कर शायद उन्हें मँगाया जाता रहा होगा या फिर पता नहीं क्यों। स्वस्ति जब विदा होकर यहाँ आयी थी, इतनी सारी नयी-नयी पत्र-पत्रिकाओं को देख कर ख़ुशी से झूम उठी थी, “चलो अच्छा है, मेरे शौक़ यहाँ भी आराम से पूरे होते रहेंगे।”
लेकिन…!
दुःखी, निराश मन इतना भरा हुआ था कि उसकी अपनी ख़ुद की भूख ही मर गयी थी आज। कुछ भी खाने की इच्छा नहीं हो रही थी अतः वह रसोई साफ करके समेटने लगी। इसी बीच घर के तीनों पुरुष नाश्ता करके अपने कार्यस्थल के लिए निकल गये थे।
इतने में अचानक उसकी सास रसोई में प्रविष्ट हुईं।
“स्वस्ति बेटा! यह लो, पकड़ो तो जरा! मैं अपनी सहेली के साथ इंश्योरेंस पॉलिसी रिन्यू करवाने पोस्ट-ऑफिस गयी थी न, वहाँ रेखा अपनी शादीशुदा बेटी के लिए बी.एड. की प्रवेश परीक्षा का फॉर्म ले रही थी…पूछने पर जब उसने बताया तो मैंने भी तुम्हारे लिए ले लिया। तुमने एम.ए. तो किया ही हुआ है, अगर बी.एड. भी कर लोगी तो एजुकेशन डिपार्टमेंट में एप्लाई कर सकोगी। मैंने देखा है, तुम पड़ोस के बच्चों को कितने अच्छे तरीके से पढ़ाती हो, पूरी लगन से…पैसे भी नहीं लेतीं…मतलब केवल अपनी ख़ुशी के लिए ही पढ़ाया करती हो! एक अच्छे शिक्षक के सारे गुण हैं तुम में! यह चूल्हा-चौका तो ज़िन्दगी भर लगा ही रहेगा, मगर तुमको अपने भविष्य के बारे में भी सोचना चाहिए बेटा!”
स्वस्ति को अपने कानों सुने, आँखों देखे पर एक बारगी विश्वास नहीं हुआ। अचरज के मारे थोड़ी देर के लिए वह जड़वत खड़ी की खड़ी रह गयी।
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अपने तो अपने होते ही हैं पराए भी अपने बन जाते हैं। – श्रद्धा खरे
“अरे क्या हुआ?” सास की तेज आवाज सुन कर मानों नींद से जागी। सिर उठा कर देखा तो उसे लगा, अचानक से मम्मीजी का चेहरा बदल गया है।
“अरे, मम्मीजी कहाँ चली गयीं…ये तो मेरी अम्माँ ही यहाँ…!” अनायास ही उसके मुँह से निकला। उसकी यह बचकानी बात सुन कर उसकी सासूमाँ ठठा कर हँस पड़ीं।
और एकाएक…सारे पूर्वाग्रहों को एक झटके में परे हटा कर स्वस्ति लपक कर सास के गले लग गयी। और सासूमाँ ने भी पहली बार, हाँ पहली बार ही तो…बहू को बाहों में भर कर उसका माथा चूम लिया।
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स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
नीलम सौरभ
रायपुर, छत्तीसगढ़