माँ को समर्पित –  विभा गुप्ता : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi:   ” हा-हा…पगली काकी…पगली काकी….” कहते हुए मुहल्ले के बच्चे उन्हें देखकर तालियाँ बजाने लगें और वे हर आने-जाने वालों को ऐसे देखने लगीं जैसे किसी अपने को तलाश कर रहीं हों।तभी अपनी बाइक को साइड में रोककर अभिनव उस महिला की तरफ़ लपका और उन्हें अपने हाथों से पकड़कर घर ले जाते हुए बोला,” माँ .., आप बाहर क्यों आई…मैं तो आ ही रहा था।”

    ” वो…त….नहीं … चिंत….” अस्पष्ट शब्द उनके मुख से निकले तो अभिनव मुस्कुराया,” आप भी ना माँ…ज़रा-सी देर हुई नहीं कि परेशान हो जाती हैं..।”

        अभिनव की माँ स्नेहलता जी, एक सरकारी विद्यालय की शिक्षिका थीं और उनके पति निरंजन बाबू थें एक सरकारी मुलाज़िम।दोनों के विवाह के दस बरस होने को आ रहें थें लेकिन स्नेहलता की गोद अभी तक सूनी ही थी।उन्होंने सावन के सोमवार का व्रत कर रखा था।भगवान शिव से अपनी गोद भरने की प्रार्थना करके वे मंदिर से लौट रहीं थीं।मंदिर की सीढ़ियों से उतरते हुए न जाने कैसे उनकी पूजा की डलिया से छोटी लुटिया गिर गई और सीढ़ियों पर लुढ़कने लगी।तभी लगभग आठ वर्ष के एक बालक ने उस लुटिया को उठा लिया और उन्हें देने आया।उन्होंने उससे पूछा कि तुम कौन हो बेटे और तुम्हारा क्या नाम है? जवाब में वह रोने लगा।

          स्नेहलता जी बेशक माँ नहीं बनी थी लेकिन ममता भरा दिल तो था ही उनके पास जो उस बच्चे के क्रंदन से भावविह्वल हो उठा।उन्होंने आसपास देखा कि शायद कोई उसका पहचान वाला हो लेकिन जब कोई भी नज़र नहीं आया तो वे उसे अपने संग घर ले आईं।हाथ-मुँह धुलाकर उसे खाना खिलाया और फिर पूछा,” अब बता बेटे..तुम कौन हो? तुम्हारे माता-पिता, भाई-बहन…।” वह फिर-से रोने लगा तो उन्होंने प्यार-से उसके सिर पर अपना हाथ फेरा और पूछा,” अब तो बता दो कि तुम्हारे माँ- बाब…”

 ” हमारी माँ नहीं है, हमारे काका उसे जला आये हैं।काकी बहुत मारती थी तो हम…उहाँ से भाग आये।”ममता का स्पर्श पाकर उसने अपना मुँह खोल ही दिया।उन्होंने उसे अपने अंक में ले लिया।बस उसी दिन से वह बालक उनका बेटा बन गया और वे उनकी माँ..।शाम को जब निरंजन बाबू घर लौटे तो उन्होंने उन्हें पूरा वृतांत सुनाया।

        अगले ही दिन दोनों प्राणी बालक को लेकर स्कूल गए। प्रिंसिपल सर ने उससे नाम पूछा तो वह स्नेहलता जी को देखने लगा, तब निरंजन बाबू तपाक-से बोले, ” अभिनव…अभिनव मिश्रा..”

        स्नेहलता जी उस दिन बहुत खुश हुई।कुछ दिनों के बाद दम्पति ने अभिनव को कानूनी रूप से गोद ले लिया।शुरु-शुरु में तो उनके सास- ससुर ने आपत्ति जताई लेकिन फिर अभिनव की भोली-भाली व प्यारी बातों ने उनका भी दिल जीत लिया था।

      किसने किसकी किस्मत सँवारी…ये कहना तो ज़रा मुश्किल था लेकिन तीनों आपस में बहुत खुश थें।अभिनव पढ़ाई के साथ स्कूल के अन्य एक्टिविटिज़ में भी खूब बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता था और ईनाम जीतकर आता तो माँ को दिखाकर कहता,” ऐसा बहुत सारा लाऊँगा माँ, घर भर जाएगा तो तुम कहाँ रखोगी?” तब स्नेहलता जी अपने हृदय की ओर इशारा करके कहतीं, ” यहाँ रखूँगी मेरे लाल..।”

       दसवीं की परीक्षा के बाद निरंजन बाबू ने बेटे से पूछा कि आगे किस फ़ील्ड में जाने की इच्छा है? वह कुछ बोलता, उससे पहले ही स्नेहलता जी बोल पड़ी,” एयरफ़ोर्स ज्वाइन करेगा….अपने मातृभूमि की सेवा करेगा और देश का नाम रौशन करेगा। क्यों अभि…” कहते हुए उनका चेहरा चमक उठा था।

    ” हाँ माँ …।” बेटे का जवाब पाकर निरंजन बाबू संतुष्ट हो गये थें।परन्तु मनुष्य की सभी इच्छाएँ पूरी हो जाए, ऐसा कब होता है।

        एक दिन ऑफ़िस से आते समय निरंजन बाबू ने सोचा, सब्ज़ी मंडी से कुछ आलू- प्याज खरीदता चलूँ।वहाँ जाकर देखा तो बहुत भीड़ थी।दो समूहों में किसी बात पर बहस छिड़ गई थी।फिर हाथापाई होने लगी..किसी ने बंदूक निकालकर गोली चला दी जो न जाने कैसे निरंजन बाबू को लग गई।भगदड़ मच गया।सब अपनी जान बचाने में लग गये और वे बेचारे… लहूलुहान होकर तड़पते रहें।पुलिस आई…एंबुलेंस उन्हें लेकर अस्पताल पहुँचा लेकिन तब तक तो….सब खत्म हो चुका था।अपने पति को समर्पित स्नेहलता जी उनकी मृत्यु का सदमा सह न सकी और मानसिक रूप से बीमार हो गईं।उन्हें वर्तमान का कुछ होश ही न था।

          अभिनव पर तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा था।पिता का शोक मनाये या अपनी माँ को संभाले।स्नेहलता जी को लेकर उसने कई अस्पतालों के चक्कर लगाये लेकिन हर डाॅक्टर यही कहता,” गहरा सदमा लगा है, धीरज रखिये।” फिर भी वह अपनी माँ का अच्छे से अच्छा इलाज कराने का प्रयास करता रहा।निरंजन बाबू के ऑफ़िस से जो रकम मिली थी, वो सब उसकी माँ के इलाज़ में खर्च कर हो चुका था।स्नेहलता जी की थोड़ी बचत की हुई पूँजी ही थी उसके पास।पढ़ाई भी उसकी अनियमित ही रही।इसलिए एयरफ़ोर्स ज्वाइन करना तो सपना बनकर रह गया।किसी तरह से उसने बारहवीं की परीक्षा पास कर ली।माँ सरस्वती की कृपा थी उस पर और वह मेहनती भी था।उसने कॉलेज़ में दाखिला ले लिया।साथ ही, आसपास के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगा।साल भर बाद वह बैंक की परीक्षा की तैयारी भी करने लगा।

        उसकी परेशानी देखकर एक मित्र ने उसे सलाह दी कि अपनी माँ को मेंटल हाॅस्पीटल भेजकर तू फ़्री हो जा और मजे से अपनी ज़िंदगी जी, तब उसने कहा,” माँ ही तो मेरी जिंदगी है।दादा-दादी तो रहे नहीं, पापा भी हमें छोड़ गये।दिनभर में एक बार भी माँ मुझे अभि कहकर पुकार लेती हैं तो मुझे नया जीवन मिल जाता है।बचपन में मैं जब भी बीमार पड़ता था तो माँ स्कूल से छुट्टी लेकर मेरे पास बैठी रहतीं थीं और आज…, मैं उन्हें छोड़ दूँ … नहीं..,कभी नहीं…।उनका साथ ही मेरे लिए बहुत है।”

      अभिनव की मेहनत रंग लाई।उसने बीए अच्छे अंकों से पास कर लिया और बैंक की परीक्षा में भी उसे सफलता मिली।उसने सबसे पहले माँ को खुशखबरी सुनाई और उनसे आशीर्वाद लिया।

       बैंक के एक कर्मचारी का तबादला दूसरे शहर में हो गया था।उसी की फेरवेल पार्टी थी, जिसके कारण अभिनव को आने में आधे घंटे की देरी क्या हुई, स्नेहलता जी बेचैन उठी और बाहर निकल गईं।बच्चे उनका मज़ाक बनाने लगे थें,तभी वह आ गया था।

       अभिनव के बैंक में नये मैनेजर की नियुक्ति हुई थी।उन्हें जब अभिनव की माँ के बारे में पता चला तो उन्होंने उसे एक फ़ोन नंबर देते हुए कहा,” अभिनव.., डाॅक्टर चटर्जी बहुत अच्छे डाॅक्टर हैं और मेरे अंकल भी।एक बार मिल लो, शायद तुम्हारी माँ ठीक हो जायें।”

        अभिनव ने तनिक भी देरी नहीं की।एक-दो टेस्ट होने और थोड़े इलाज के दो महीने के बाद जब स्नेहलता जी को होश आया तो ऐसा लगा जैसे वे एक लंबी नींद के बाद जागी हों।सामने अपने अभि को देखी तो उसे सीने से लगाकर वो फूट-फूटकर रोने लगी।पति का दुख और बेटे का समर्पण-भाव आँसू बनकर उनकी आँखों से बहने लगा।देखने वाले भी कह उठें, ” बेटा हो तो अभिनव जैसा जिसने अपना पूरा जीवन अपनी माँ को समर्पित कर दिया।माँ को भगवान मानकर उसकी सेवा करने वाला ऐसा बेटा ईश्वर सबको दे।”

         अभिनव की पदोन्नति हो गई।बैंक की ओर से उसे अच्छी तनख्वाह और रहने लिए एक फ़्लैट मिल गया था।स्नेहलता जी बेटे से विवाह करने के लिये कहते-कहते थक गईं पर वह नहीं माना।एक दिन ऑफ़िस से आया तो उसके साथ एक दस साल की बच्ची देखकर स्नेहलता जी चकित रह गई।वो कुछ पूछती, उससे पहले ही अभिनव ने उस बच्ची से कहा,” कृति बेटी.., ये तुम्हारी दादी हैं, इन्हें प्रणाम करो।” फिर उनसे बोला,” माँ.., मैंने कृतिका को गोद ले लिया है।अब आप इसके साथ अपने बचे हुए सपनों को पूरा कीजिये।” स्नेहलता की आँखें खुशी-से छलछला उठीं।उन्होंने कृतिका को अपने सीने से लगा लिया।

                                   विभा गुप्ता

 # समर्पण                     स्वरचित 

            रिश्ता पति-पत्नी का हो अथवा माता-पुत्र का,एक-दूसरे के लिए समर्पित होने की भावना होना आवश्यक है।स्नेहलता जी अपने पति-पुत्र के लिए समर्पित थीं और अभिनव अपनी माँ के लिये। वह अपनी लगन, विश्वास और समर्पण की भावना से अपनी माँ के जीवन में छाये गहन अंधकार को दूर करने में सफल रहा।

#समर्पण

 

 

 

 

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