** मां की अगुआई ** – डॉ उर्मिला शर्मा

   फोन की रिंगटोन बजी तो अनामिका ने देखा उसकी कजन अलका दीदी का फोन था।

“नमस्ते दी!…कहिए कैसी है?”- उसने पूछा

“सब ठीक है…. एक बात बतानी थी तुम्हें। मेरे बेटे के रिश्ते का साला अमेरिका में इंजीनियर है। आई.आईटीयन है। अपनी आलेख्या के लिए ये लड़का कैसा रहेगा?”

“सुनने में तो बहुत अच्छा लग रहा है… तुम देख लो। आखिर मौसी हो आलेख्या की…।”- हंसते हुए अनामिका ने कहा।

“देख न अनु!…मैंने तो पहले ही तेरे पति अमित को फोन पर ये बात कहलवाई थी बेटे के ससुर द्वारा किन्तु उसने यह कहते हुए साफ मना कर दिया कि उसे अपनी बेटी को दूर नहीं भेजना है।”

“उसने ऐसा कहा?…उसे तुमने बेकार कहलवाया, तुम तो जानती ही हो उसको। केवल अपनी मनमानी करता है।”

“खैर…मैं कहती हूँ… बात आगे बढ़ाकर देखो। जरा डिटेल पता करो।”- अनामिका ने आगे कहा।

मन ही मन अनामिका को पति अमित पर गुस्सा आ रहा था। इस आदमी ने न कभी उसकी न ही बच्चों के हित सम्बन्धी सोचा है। बल्कि हम तीनों की जिंदगी नरक करने में कोई कसर न छोड़ी। वो तो अनामिका ने घर से लेकर बाहर तक सब संभाला। बच्चों की परवरिश से लेकर पढ़ाई कराना, बाद में उनके करियर सम्बन्धी दिशा-निर्देश करना, सबकुछ तो उसने ही किया। अपने आप को होम कर दिया उसने बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में। फिर भी कई कमियां रह ही गयीं, क्योंकि जो माहौल अमित घर में उत्पन्न कर रखता था, उसमें तो व्यक्ति का समुचित व्यक्तित्व का निर्माण मुश्किल ही था। घर को वह हमेशा सिनेमा हॉल बनाकर रखता था। हरसमय टी. वी. ऑन रखता था।



एंटरटेनमेंट और धर्म का ढोंग यही तो उसका पसंदीदा काम था। केवल बच्चों के स्कूल का फीस भर देना और घर में राशन देना, भले ही  सामाजिक दायित्व निर्वाह के ही कारण, इतना ही तो करता था वह। सम्भवतः उसे यह भी पता नहीं होता होगा कि बच्चे किस क्लास में हैं। डर और दहशत का वातावरण ही घर में प्रायः रहा। कभी उसने बच्चों अपने पास प्यार से बुलाकर न बिठाया, न एक अक्षर उन्हें पढ़ाया। बल्कि जब अनामिका बच्चों को पढ़ते समय टेलीविजन बन्द करने को कहती तो वह झगड़ा करने पर उतारू हो जाता। कभी-कभी तो अनामिका को घर के छत पर दोपहर में चादर टांगकर उसकी छाया में उन्हें पढ़ाना पढ़ता था। और घण्टों उन्हें लेकर वह वहीं रहती।

बच्चे हमेशा उसके इर्द-गिर्द ही रहते थे। अनामिका ही बच्चों की मां भी थी और दोस्त भी। वह छत पर उनके साथ खेलती। घर में इनडोर गेम्स में उनका साथ देती। मतलब जितना कुछ उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए वह अपनी समझ और सामर्थ्य में कर सकती थी, करती थी। और यह उसके समर्पण व समझदारी का ही फल है कि बेटी आज सेंट्रल जॉब में इंजीनियर है। और आज अमित ने बिना पूछे बेटी के विवाह सम्बन्धी निर्णय ले लिया। अपनी मन की करना तो उसकी पुरानी आदत है।

 

अनामिका स्वयं पी.जी.टी है। यह बात और है कि अमित के नजर में उसकी कोई वैल्यू नहीं। एक हप्ते बाद दीदी का फोन आया तो उन्होंने कहा कि जब उसने बेटे के ससुर से बात आगे बढ़ानी चाही तो उन्होंने कहा-“आपकी बहन के कहने से क्या होगा…जब उनके पति ने मना कर दिया है।”

यह सुनकर अनामिका को बहुत बुरा लगा। तभी उसे अपनी सहेली शिखा की भतीजी के विवाह से जुड़ा वाकया स्मरण हो आया। शिखा के भैया का देहांत हो गया था और उसकी भाभी भी जब बेटी के रिश्ते के लिए कहीं जाती थी तो ऐसी ही परेशानी आती रही। तरह-तरह के सवाल पूछे जाते जैसे-‘आप अकेली आयी हैं, शादी के बाद आप लड़की के घर तो नहीं रहने जाएंगी? इत्यादि।’

मैं पूछती हूँ… अगर जाती भी हैं तो क्या बुराई है? एकलौती बेटी है। वह मां की देखभाल नहीं करेगी तो कौन करेगा? मां की वारिस बेटी है तो दायित्व निभाने कोई और आएगा? हद है… इस समाज की सोच कब बदलेगी ?

उसे दीदी के बेटे के ससुर की सोच पर बेहद अफसोस हुआ कि स्वयं एक प्रोफेसर होने के बाद भी उनकी ऐसी सोच….ओह। पिता कितना भी नकारा हो, फैसला वही ले सकता है….माँ नहीं। मां के हिस्से में केवल अपने को होम व न्योछावर ही कर सकती है… फैसला नहीं। अमित के कारण जिंदगी में वह अनगिनत बार टूटती आयी है, फिर जुड़ती है… आज समाज भी?…ये सिलसिला कबतक चलता रहेगा?

 

–डॉ उर्मिला शर्मा।

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