डोरबेल बजते ही शैली ने दरवाज़ा खोला तो कोरियर वाले ने उसे एक लिफ़ाफा थमाया और उससे हस्ताक्षर करवाकर चला गया।शैली ने लिफ़ाफा खोला तो तलाक के पेपर देखकर वह दंग रह गई।शशांक ने उसे तलाक का नोटिस भेजा था।उसने अपनी मम्मी शकुंतला को तलाक के कागज़ात दिखाये तो वो खुश होकर बोली,” कर दे साइन…तुझे छुटकारा मिल जायेगा।”
” नहीं मम्मी…मैं साइन नहीं करुँगी।मैं वापस जाऊँगी।” शैली लगभग चीखते हुए बोली तो शकुंतला जी चौंक पड़ी।पिछले छह महीने से शैली उनके पास रह रही थी…कभी कोई शिकायत नहीं की..फिर आज जाने की बात…।सो उन्होंने पूछ लिया,” वापस जाएगी…लेकिन क्यों?”
” क्योंकि आपने अपना दायित्व नहीं निभाया…।” शैली ने उसी लहज़े में कहा और अपने कमरे में चली गई।बेटी की बात से शकुंतला जी आहत हो गई, सोचने लगी…मैंने कौन-सा दायित्व नहीं निभाया…।
शकुंतला जी के पति महेन्द्रनाथ जी गुड़गाँव के एक सफल उद्योगपति थे।ईश्वर की कृपा से उन्हें एक पुत्र सिद्धार्थ और पुत्री शैली का सुख प्राप्त था।शैली के जन्म के बाद महेन्द्रनाथ जी ने दो और फ़ैक्ट्री लगाई थी, इसीलिए वो अपनी बेटी को अपनी किस्मत मानते थे। बारहवीं के बाद सिद्धार्थ कनाडा चला गया और वहाँ से एमबीए करके लौटा तो वह अपने पिता के इंडस्ट्रीज को संभालने लगा।साल भर बाद शकुंतला जी ने अपनी बराबरी वाले परिवार की बेटी सिमरन के साथ उसका विवाह करा दिया।
सिमरन देखने में जितनी सुन्दर थी…स्वभाव में उतनी ही सरल और मिलनसार थी।उसने बीकाॅम किया हुआ था।जब कभी सिद्धार्थ टूर पर जाते तब वह अपने ससुर के साथ ऑफ़िस चली जाती थी।आर्यन और अनन्या की माँ बनने के बाद वह पूरी तरह से घर-गृहस्थी में व्यस्त हो गई।
शैली दिल्ली में रहकर कंप्यूटर इंजीनियरिंग कर रही थी, उसी समय उसकी मुलाकात शशांक से हुई जो MTec कर रहा था।कैंटिन से शुरु हुई दोनों की मुलाकातें धीरे-धीरे पार्क और माॅल में होने लगी।
एक दिन रेस्तरां में काॅफ़ी पीते हुए शैली ने शशांक से अपने प्यार का इज़हार किया तब शशांक ने उसे अपने बारे में बताया कि वह एक मध्यवर्गीय परिवार से संबंध रखता है।उसके पिता एक सरकारी मुलाज़िम है जो दो साल में रिटायर हो जाएँगे।घर में माँ और एक छोटी बहन आकांक्षा भी है।मेरा-तुम्हारा तो कोई मेल ही नहीं है।तब शैली उसके कंधे पर अपना सिर टिकाते हुए बोली,” मैं तुमसे कोई अलग थोड़े ही हूँ..आज से वो सब मेरे अपने हैं..।” शैली के मुख से इतनी प्यारी बातें सुनकर तो वह निहाल ही हो गया।
शशांक को ज़ाॅब मिलते ही उसके माता- पिता वधू तलाश करने लगे तब शशांक ने उन्हें शैली के बारे में बताया।शैली ने जब अपने पिता को शशांक के बारे में बताया तो वे बहुत खुश हुए कि बेटी संस्कारी परिवार में जा रही है।शकुंतला जी तो अपनी बराबरी का दामाद लाना चाहतीं थीं लेकिन बेटी के आगे उन्हें झुकना पड़ा।
एक दिन महेन्द्रनाथ जी सपरिवार शशांक के घर पहुँच गये।दोनों परिवारों में बातचीत हुई।शशांक के पिता माणिक चन्द्र जी ने हाथ जोड़कर इतना ही कहा कि बेटी को बस दो कपड़ों में विदा कर दीजियेगा…हमारे लिये यही बहुत है।
” जी भाईसाहब…शैली हमारे घर में बेटी बनकर ही रहेगी।” चाय लेकर आती शशांक की माँ सुनंदा पति के समर्थन में बोलीं तो महेन्द्रनाथ जी भावविभोर हो गये।
शुभ मुहूर्त में शैली का विवाह शशांक के साथ हो गया।समधी के मना करने के बाद भी महेन्द्रनाथ जी ने बेटी को देने में कोई कमी नहीं की।ससुराल आकर शैली बहुत खुश थी कि अब वह हमेशा शशांक के साथ रहेगी।सप्ताह भर बाद शशांक अपने काम पर जाने लगा।
कुछ दिनों तक तो सब अच्छा रहा..फिर एक दिन शशांक ने शैली से कहा कि दिन भर लैपटॉप पर बैठी रहती हो…कभी-कभी किचन में जाकर माँ की हेल्प भी कर दिया करो।आकांक्षा तो स्कूल रहती है लेकिन तुम तो घर पर…। वह तुनक कर बोली,” यार… इन कामों के लिये एक नहीं चार नौकर रख लो लेकिन मुझे बोर मत करो।” शशांक चुप रह गया।
एक दिन आकांक्षा ने शैली का लिपस्टिक क्या उठा लिया.. वह तो भड़क उठी,” आइंदा से मेरी चीज़ों को हाथ न लगाना।” आकांक्षा के लिये यह अप्रत्याशित था।
शैली का बात-बात पर कहना कि ये मेरे मायके का है..इससे घर में तनाव का वातावरण होने लगा।शशांक ने पत्नी को समझाया कि तुमने तो कहा था कि सब मेरे अपने हैं तो फिर ये तेरे-मेरे वाली बात कहाँ से आ गई।लेकिन शैली ने उसकी बात को अनसुना कर दिया।
आकांक्षा को स्कूल-प्ले में ट्राॅफ़ी मिली थी।वह इस खुशी को अपनी भाभी के साथ शेयर करना चाहती थी।ट्राॅफ़ी लेकर वह भाभी के कमरे में जा ही रही थी कि ड्राइंग रूम के टेबल पर रखा फूलदान उसके हाथ से लगकर टूट गया।वो फूलदान शैली की सहेली ने गिफ़्ट किया था।शैली ने फूलदान के टुकड़े देखे तो आपे से बाहर हो गई और आकांक्षा को अनाप-शनाप बकने लगी।उसने यहाँ तक कह दिया कि तुम लोग जाहिल-गंवार हो..।उसी वक्त किसी काम से शशांक घर आया था, सुनकर वह अपने गुस्से पर काबू न कर सका और शैली पर हाथ उठा ही रहा था कि सुनंदा जी ने आकर बेटे को रोक लिया,” ये क्या अनर्थ करने जा रहा था तू..वो तो नादान है पर तू तो समझदार…।” तभी उनकी नज़र शैली पर पड़ी जो अपना बैग लेकर घर से जा रही थी।सुनंदा जी और शशांक ने उसे रोकने की कोशिश की लेकिन सब व्यर्थ…।
मायके आकर एक दिन तो शैली अपसेट रही..फिर अगले दिन से सहेलियों के संग पार्टी करने में व्यस्त हो गई।बेटी को अपने पास देखकर शकुंतला जी तो बहुत खुश थीं लेकिन महेन्द्रनाथ जी के माथे पर चिंता की लकीरें थीं।बहू सिमरन से उन्हें सारी बात पता चली तो उन्होंने तुरंत समधियाने फ़ोन करके कहा कि चिंता न करें…कुछ दिनों में हम खुद शैली को छोड़ने आयेंगे।दो-तीन महीने ऐसे ही बीत गये।
एक दिन शैली को तेज बुखार हो गया।कमज़ोरी के कारण वह बिस्तर पर से उठ नहीं पा रही थी।पानी पीने के लिये उसने शीशे का गिलास उठाया तो उसके हाथ से छूट गया और गिरकर चकनाचूर हो गया।वह नीचे झुकी तो टेबल पर रखा फ़ोटो फ्रेम भी गिर गया।फ़ोटो फ़्रेम उसकी भाभी का था जो उन्हें उनके भाई ने गिफ़्ट किया था।भाभी को देखते ही वह रुआँसी हो गई ,” साॅरी भाभी….वो मैं…नया.. ला..।”
सिमरन हा-हा करके हँसने लगी,” शैली..काँच की चीजों के लिये अफ़सोस क्या करना…बस रिश्ते नहीं टूटने चाहिये।”
” भाभी..आप कितनी समझदार हैं..।” शैली बोली।
” मैं कोई समझदार-वमझदार नहीं हूँ…आपकी तरह ही तो थी…तब मेरी माँ ने मुझे समझाया कि ससुराल ही लड़की का अपना घर होता है और सास-ननद, देवर उसका परिवार।उनके साथ मतभेद हो लेकिन मनभेद कभी नहीं करना…।बस माँ की उसी सीख से मैं अपने दायित्व का निर्वहन कर रही हूँ।” कहते हुए सिमरन मुस्कुराई तो शैली सोचने लगी…भाभी को तो उनकी माँ ने सीख दिया लेकिन मेरी मम्मी…।काश! वो भी मुझे ससुराल-परिवार के तौर-तरीके समझाती तो मैं..आकांक्षा के साथ…अपनी माँ समान सास के साथ…बुरा बर्ताव नहीं करती..।उसे अपने व्यवहार पर पछतावा हो रहा था, इसीलिए उसने वापस जाने का निर्णय लिया।
शकुंतला जी ने अपने पति से कहा कि मैंने तो शैली की हर फ़रमाइश पूरी की है..फिर भी…।उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।महेन्द्रनाथ जी बोले,” बेटी को सुविधाएँ देने से ही माँ का दायित्व पूरा नहीं होता बल्कि उसे अच्छे संस्कार देना भी माँ का कर्तव्य होता है।तुम तो क्लब- पार्टियों में व्यस्त रहीं…यदि कभी बैठकर उसे बड़ों का आदर करना, ससुराल में पति के साथ-साथ बाकी सदस्यों का भी मान करना सिखाया होता तो आज वह भी अपनी भाभी की तरह अपने ससुराल में होती।फिर ये तलाक के पेपर…।”
” अब क्या होगा…।”
” कुछ नहीं… शैली को साॅरी बोलकर कल दिल्ली चलते हैं।” महेन्द्रनाथ के ओंठों पर मुस्कान थी।
अगले दिन शकुंतला जी ने बेटी से माफ़ी माँगते हुए उसे वह सब संस्कार दिये जो बरसों पहले उनकी माताजी ने उन्हें दिये थें।तभी डोरबेल बजी…सामने शशांक को देखकर शैली चकित रह गई।फिर ‘भाभी’ कहकर आकांक्षा उससे लिपट गयी तो उसकी आँखें छलक पड़ी।माणिकचन्द्र के हाथ में मिठाई का डिब्बा देखकर महेन्द्रनाथ जी बोले,”प्लान कामयाब हुआ समधी जी..हा-हा..।”तभी सिमरन चाय ले आई।चाय पीते-पीते महेन्द्रनाथजी ने बताया कि बच्चों को एक करने के लिये ही उन्होंने माणिकचन्द्र जी के साथ मिलकर तलाक का प्लान बनाया था।
शकुंतला जी ने अपने पति की ओर देखा जैसे कह रहीं हों, जो फ़र्ज मैं न निभा सकी वो आपने पूरा कर दिया।महेन्द्रनाथ जी भी उन्हें देखकर मुस्कुराये जैसे कह रहें हों, हम दोनों अलग थोड़े हैं..।उस दिन बेटी को विदा करके शकुंतला जी ने सही मायने में एक माँ का दायित्व निभाया था।
विभा गुप्ता
# दायित्व स्वरचित
बच्चों को सुख-सुविधाओं के साथ-साथ अच्छे संस्कार और नये परिवेश में सभी को अपना बनाने की कला सिखाना भी माता-पिता का दायित्व होता है।