” आ गई बेटा .….. बड़ी देर कर दी आज!!” मनोरमा जी अपनी छोटी बेटी गीता को देखकर खुश होते हुए बोलीं।
” हां मां, वो मेरी ननद भी आ गई थी ना आज राखी बांधने…. इसलिए निकलने में देर हो गई। ….. भईया भाभी कहां हैं??? और दीदी आ चुकी क्या राखी बांधने के लिए? “
” बेटा, वो तो सुबह हीं राखी बांधकर चली गई । तू बैठ , वो तेरी भाभी अपने मायके गई हैं राखी बांधने। मानव भी उसके साथ हीं गया है। बस अभी थोड़ी देर में आ जाएंगे। तब तक तू समर के यहां चली जा वो भी तो तेरी राह देख रहा होगा।”
” चली जाऊंगी मां….. अभी गई तो वो जल्दी आने नहीं देगा। वो छोटी भाभी भी खाना खाने की ज़िद करेंगी।” गीता मुंह बिचकाते हुए बोली।
” हां तो क्या हुआ!! वो भी तो तेरे भाई भाभी हैं। यहां खा या वहां एक ही बात है।”
” ठीक है मां …. एक काम करो आप ये सामान यहीं रख दो। ये बड़े भईया भाभी के लिए है। मैं जाकर आती हूं।” गीता ने एक बैग अपनी मां को पकड़ाते हुए कहा।
” क्या लाई है इसमें ??” मनोरमा जी ने उत्सुकता से पूछा।
” मां भईया के लिए कुर्ता और भाभी के लिए एक सूट है। अब भईया भाभी इतना कुछ देते हैं तो मेरी तरफ से भी तो गिफ्ट बनता है ना ।” बोलते हुए गीता अपने छोटे भाई भाभी के घर जाने के लिए उठ गई जो उसी गली में थोड़ी दूरी पर था।
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” बेटा समर और तेरी छोटी भाभी के लिए तू कोई गिफ्ट नहीं लाई !!” गीता के हाथों में सिर्फ राखी और मिठाई का एक डब्बा देखकर मनोरमा जी बोले बिना रह नहीं सकीं ।
” मां, अब वो कौन सा मुझे ढेर सारा नेग देते हैं जो मैं इतना खर्च करूं। जो जितना करेगा उसी हिसाब से तो मैं भी करूंगी।” गीता बोली।
” बेटा, भाई बहन के रिश्ते में हिसाब किताब नहीं देखते। बहन के लिए तो सभी भाई बराबर होते हैं।”
बेटी की इस सोच पर मनोरमा जी को बहुत बुरा लगता था। लेकिन गीता हमेशा ऐसा ही करती थी। मनोरमा जी ने की बार उसे समझाया भी कि भाई बहन के रिश्ते में हिसाब किताब नहीं देखते लेकिन गीता अपने अहम में हीं रहती थी। छोटे बेटे के साथ गीता का ये व्यवहार उन्हें अंदर से कचोटता था।
समर कि आर्थिक स्थिति इस समय जरा ठीक नहीं थी क्योंकि जिस कंपनी में वो काम करता था वो बंद हो गई थी। अब वो नई नौकरी की खोज में था और रोजी रोटी के लिए एक अस्थाई नौकरी कर रहा था। वहीं मानव का अपना कारोबार था जो अभी तरक्की पर था।
खैर मनोरमा जी ने ज्यादा कुछ नहीं कहा और गीता समर के यहां चली गई। समर और उसकी पत्नी गीता को देखकर बहुत खुश हुए। बड़े मन और चाव से उन्होंने राखी बंधवाई। समर ने जब नेग में ग्यारह सौ का लिफाफा दिया तो गीता ने मुंह बनाते हुए पकड़ा और जल्दी हीं वहां से निकल गई। छोटी भाभी खाना खाने की मनुहार करती रह गई।
शाम को गीता के बड़े भाई भाभी वापस आए तो गीता ने बड़े चाव से उन्हें राखी बांधी और अपनी तरफ से भेंट भी दी। मानव ने भी हमेशा की तरह ढेर सा शगुन दिया जिसे देखकर गीता का चेहरा खिल उठा।
वापस जाते हुए मनोरमा जी ने गीता को इस बार सिर्फ आशिर्वाद दिया तो गीता को अजीब लगा क्योंकि हर बार तो मां साड़ी और कुछ ना कुछ शगुन भी देती थी।
अगले दिन मनोरमा जी के पास गीता का फोन आया, ” मां, आपने हम दोनों बहनों के शगुन में भेदभाव क्यों किया?? दीदी बता रही थी कि आपने उन्हें कल इतनी सुन्दर साड़ी और कंगन दिए लेकिन मुझे कुछ नहीं दिया!! पता है मुझे कितना बुरा लग रहा है?? ,, रूठते हुए गीता बोली।
” बेटा, मैंने सिर्फ एक बार तुम दोनों बहनों को देने में अंतर किया तो तुझे इतना बुरा लग रहा है और जो तूं हर बार अपने दोनों भाई भाभियों के बीच भेदभाव करती है तो क्या उन्हें बुरा नहीं लगता?? बेटा मेरे लिए तो तुम सभी बच्चे बराबर हो लेकिन तुम बस रिश्तों को लेन देन से तौलने लगी हो तो सोचो मुझे कितना बुरा लगता होगा? बेटा किस्मत पलटते देर नहीं लगती । माया तो ढलती फिरती छाया है। कब किसका वक्त पलट जाए पता नहीं चलता लेकिन ये छोटी छोटी बातें हमेशा मन में रह जाती हैं। ,,
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मां की बात सुनकर गीता की गर्दन झुक गई।सच में आज उसे अपनी सोच पर शर्म आ रही थी। उसे अपना बचपन याद आ गया जब दोनों भाई अपना गुल्लक फोड़कर दोनों बहनों के लिए राखी पर गिफ्ट लेकर आते थे। दोनों बहनें भी अपने हिस्से की चाकलेट , मिठाई भी भाईयों को खिला देती थीं। साल भर उन्हें इस दिन का इंतजार रहता था। कितने प्यारे थे वो दिन जब रिश्तों के बीच पैसों का कोई मोल नहीं था।
गीता की आंखें नम हो गई थीं। भर्राइ आवाज में वो बोली, ” आप ठीक बोल रही हो मां, बड़े होने के साथ साथ ये दिल ना जाने कब इतना छोटा हो गया। आगे से मैं कभी ऐसी गलती नहीं करूंगी। ,,
मनोरमा जी के चेहरे पर मुस्कान छा गई। उन्हें संतुष्टि थी कि अब चाहे स्थिति कुछ भी हो उनकी बेटी अपने भाईयों के बीच भेदभाव नहीं करेगी…..
लेखिका : सविता गोयल