मां मुझे नहीं जाना ** – –डॉ उर्मिला शर्मा

 प्रकाश मेहता और उनकी पत्नी नमिता रात का खाना खाकर सोने की तैयारी कर ही रहे थे कि फोन की घण्टी बजी। नमिता का दिल धड़क उठा। बेटी स्मृति को लेकर मन आशंकित हो गया। फोन प्रकाश जी ने उठाया। “आपकी बेटी ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। फांसी लगा ली उसने। आकर ले जाएं इस बला को।” – दामाद नीरज की आवाज़ आयी।

हक्के- बक्के प्रकाश के हाथ से मोबाइल फिसल कर बिस्तर पर गिर पड़ा।

“क्या हुआ जी”- सम्भावित आशंका से नमिता सिहर उठी।

“अपनी स्मृति नहीं रही।” – सारा बल लगाकर प्रकाश ने कहा।

“नहीं ऐसा नहीं हो सकता”- कहकर नमिता चीख पड़ी। वह दहाड़े मारकर रोने लगी।

मां की रुलाई सुनकर पुत्र प्रशांत दौड़ा आया। सारी बातें जानकर वह दुख और क्रोध से बौखला गया -“आखिर उस शैतान ने दीदी की जान ले ही लिया।”

घर में दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। रातों रात गाड़ी बुक कर बेटी के घर के लिए निकल पड़े। प्रकाश जी, उनकी पत्नी और पुत्र- सभी को स्मृति की कही बातें, उसके गिड़गिड़ाते शब्द उनके हृदय को कचोट रहे थें। कल ही दिन में तो फोन पर तो उसने कहा था – “मां मुझे नहीं रहना है यहां।”

तीन साल पहले स्मृति ने अंतरजातीय विवाह अपने से श्रेष्ठ जाति के नीरज से किया था। वह पति के साथ रहती थी। कुछ ही दिनों बाद नीरज का उसके प्रति रवैया बदलने लगा। सीधे मुंह उससे बात तक न करता और कहता -“तुझसे शादी कर फंस गया। मेरे घरवाले नाराज रहते हैं।”


नीरज ऑफिस से देर रात घर लौटता था। वह मानसिक और शारीरिक रूप से उसे प्रताड़ित करने का एक मौका नहीं गंवाता। उसके घरवाले भी स्मृति की जाति और दहेज न मिलने की बात को लेकर कान भरते रहते थे। जब वह ससुराल जाती तो वहाँ उसे अपमानित किया जाता था। वह जब भी मायका आती तो कहती -” मां मुझे नहीं जाना है वापस।”

हम सब उसे समझाबुझाकर भेज कैसे भेज देते थे यह कहते हुए कि शुरू में एडजस्ट करने में वक़्त लगता है। उसकी पीड़ा को हमने समझ ही नहीं। हम ही क्या हमारे यहाँ के तमाम माता- पिता हमेशा यही करते हैं। और इसी तरह कितने पेरेंट्स अपनी बेटियों से हाथ धोकर आजीवन पछतावा की अग्नि में जलते हैं। कल दिन में भी स्मृति ने बताया था कि उनके बीच ससुराल जाने की बात को लेकर ही खूब झगड़ा हुआ था। ओह ! न जाने उसका डेढ़ साल का बेटा कैसे बिन मां का रह पाएगा।

              बाद में उन्होंने दामाद के खिलाफ प्रताड़ना कर आत्महत्या के लिए उकसाने का केस दर्ज कराया। अदालतों की तमाम लड़ाइयां लड़ीं। किन्तु इस लड़ाई में क्या हासिल होने वाला था। मिलने वाला था तो केवल बेटी को खो देने का स्थायी दुःख। तब इन सबके बीच स्मृति में घरवाले यही सोच पछताते रहे कि काश! वक़्त पर दुनिया-समाज की न सोच अपनी बच्ची की तकलीफ को महसूसते तो वह आज उनके साथ होती। आज उन्हें नन्हे गोलू को स्मृति के स्मृति शेष के रूप में न देखना पड़ता।

–डॉ उर्मिला शर्मा

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