लौट के बुद्धू घर को आये – भगवती सक्सेना गौड़

एक रिश्ते की ननद की शादी थी, 2005 में, तब मैं यू पी के एक शहर में थी। वैसे तो बेटी बोर्ड के एग्जाम की पढ़ाई में व्यस्त रहती थी, पूरे दिन मैं भी इसी कारण व्यस्त और उनकी खातिरदारी करती रहती थी। पढ़ाई में इतना डूब जाती थी, कि उसे खाने पीने का भी ध्यान नही रहता था।

फिर भी एक ही शहर में शादी थी, तो जाना ही था।

बेटी ने कहा, “मम्मा, मैं नही जाऊंगी,”  तो उसका पूरा खाना भी बनाया, क्योंकि वो जमाना जोमाटो का नही था।

आखिर मैंने भारी बनारसी साड़ी निकाली, प्रेस कराकर रात पूरे श्रृंगार के साथ श्रीमान जी की स्कूटर पर बैठकर शादी में पहुँची। उस समय शादियों में एक कार्ड में चार या पांच लोग तो निश्चित पहुँच जाते थे। धूमधाम, होहल्ला , गाने से माहौल पूरा मेले के वातावरण सा प्रतीत हो रहा था। हर मिनिट में भीड़ बढ़ते ही जा रही थी, अधिकतर सब परिचित ही थे, हाय, हेलो, नमस्ते, पैर छूना सब औपचारिकता निभाते हुए, किसी तरह अंदर पदार्पण हुआ। सारी महिलाये ढोलक के साथ बन्नी गाने में मस्त थी, किसी तरह जगह बनाकर मैं भी बैठ गई।


थोड़ी देर में हल्ला हुआ, बारात आ गयी, सारी भीड़ बाहर आई। धक्का मुक्की करके दूल्हे की एक झलक पाने को सब बेताब थे, उसी समय इतनी जोर से बादल कड़का, बिजली चमकी, कि दुल्हन की जयमाला अपने आप हवा से दूल्हे में गले मे सुसज्जित हो गयी। और फिर जो तूफानी हवा के साथ बेताब बारिश आयी। पूरे खुले मैदान में शादी का इंतज़ाम था, चारो ओर खाने के स्टाल लगे थे। बारात आने में ही ग्यारह बज चुके थे। बस अब समझिए, सारे लोग भूखे भेड़िए की तरह खाने में टूट पड़ना चाहते थे, पर जो बहुत हिम्मती था, वही बारिश से लड़ने जा सकता था। कुछ लोग थे, किसी तरह सीना तानकर आगे आये। भूख तो मुझे और इनको भी लग रही थी, बेटी की चिंता भी थी।

हिम्मत कर हम दोनों ने भी भीगने की सोची। प्लेट उठायी ही थी, सिर्फ एक दो आइटम परसे, तभी लगा, बारिश का पानी रोटी भिगाकर मुलायम कर रहा है, पनीर में तरी बढ़ते ही जा रही है। फिर तो समझिए प्लेट देखकर भूख समाप्त हो गयी और आंखों ही आंखों में इन्होंने इशारा किया, निकलो जल्दी से। किसी तरह स्कूटर निकाली, पूरा बाजार देख लिया, कही कुछ नही मिला, पेट बिल्कुल खाली था। आगे बढ़े, चलो जल्दी से घर पहुँचे, कुछ बनाया जाए। पूरी सड़क पर कमर तक पानी भरा था। स्कूटर खींचते हुए, मुझे संभालते हुए, ये किसी तरह घर लाये और बोल पड़े, “लौट के बुद्धू घर को आये।” सबसे ज्यादा दुख मुझे हुआ, मेरी बनारसी साड़ी खराब हो गई।

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