“लंगड़ी , हाँ यही उसका नाम है।”
“जब भी मेरी यह भक्त कन्या अपने एक छोटे पाँव पर हिलक-हिलक कर अकेली ही कदम खींचती हुई आती है , मेरा ध्यान अपने समस्त भक्तों से हट कर उस पर ही केंद्रित हो जाता है,
“अपनी हँसी उड़ाए जाने के डर से हमेशा एकाकी ही दिखती है मुझे “
“पुजारी भी उसे देख अनायास चिड़चिड़ा जाता है ” साफ भर्त्सना सी दिखती है उसके चेहरे पर,
“परे हट, कहाँ घुसी चली आ रही बीच में ‘कलूटी-लंगड़ी ‘ “
वह सांवली सी कन्या शायद अपनेआप से खफा है, या फिर दुखी है ?
बचपन से ही पिता ‘बलराम’ ठेलेवाले ने उसकी माँ के असमय काल-कलवित हो जाने बड़ी मुश्किलों से संभाला है। घर में तो सबने हाथ खड़े कर दिए थे,
“हृए जन्म लेते ही माँ को खा गई अब न जाने गाज़ किस पर गिराएगी”
इस कहानी को भी पढ़ें:
गाँव से अमेरिका तक का सफर – के कामेश्वरी : Moral stories in hindi
“जब दादी, चाची सबने किनारा कस लिया तब रूई के फाहे से बकरी के दूध को मृत संजीवनी बना बूंद-बूंद मुँह में टपका,
“बाबू ने किस वास्ते मुझे जिला दिया माँ ? “।
मन ही मन बुदबुदाती हुई शायद मुझसे ही मुखातिब हो रही है,
” हे माँ, तू तो अंतरयामी है, मेरी व्यथा समझती है ना ?”
तभी बगल वाली खूबसूरत भक्तिन को देख सकपका कर किनारे हो जाती है।
” मेरी सब समस्याओं का समाधान तो नहीं हो सकता पर तू तो सबकी पालनहार है ‘ माँ’ “
“किसी तरह बाबू ने नगरपालिका के स्कूल में भेज दसंवी तो पास करा दिया है, पर अब अपने पीछे खोली में अकेला छोड़ जाने में डरता है “
वह लगातार अपने को कोस रही है।
“चुपचाप अकेली कोने में खड़ी देख मेरी कृपा उस पर बरसना ही चाहती है “,
तभी पुजारी की ,
“निकलो… निकलो… सभी खाली करो संध्या आरती का वक्त हो चला है”
सुन कर सबके पीछे उसे भी निकल कर जाते देख,
” मैंने उसे भर-भर कर आत्मविश्वास, कठिन जिंदगी को तसल्ली से जीने की इच्छा से… उसके मन के उदास क्षितिज को सतरंगी रंगों से भरने का आशीर्वाद दे दिया है”।
इस कहानी को भी पढ़ें:
शाम का धुंधलका अब स्याह हो चला है।
घर के दरवाजे पर ही बाबू को अपनी बाट जोहते देख कह उठी,
” क्या बात है बाबू? यह वक्त तो तेरे ठेले लेकर निकलने का होता है”।
“कैसे निकलूँ ? तुझ जैसी सयानी बिटिया को छोड़ कैसे निश्चिंत… ? “
अचानक लंगड़ी अनूठे आत्मविश्वास में भर ,
“चल बाबू, अब तू भी अकेला कहाँ ठेला खींच पाता है? आज से मैं बिकवाली में तुम्हारे साथ रहा करूंगी “।
स्वरचित /सीमा वर्मा