संध्या दफ्तर से निकली तो रात की सब्ज़ी के लिए सोचते हुए वह मेट्रो से उतर सब्ज़ी मंडी की तरफ मुड़ गई।वहीं से हफ्ते भर की सब्ज़ियां इकट्ठी लेकर घर आई तो नीचे पास वाले घर में आई नई पड़ोसन मृदुला मिल गई।मृदुला के साथ बातचीत करते हुए उसे 10 मिनट ही बीते होंगे कि उसने देखा कि उसके ससुर इतनी देर में ही बालकनी के दो चक्कर लगाकर नीचे देख गए थे।संध्या को उनके हावभाव से ही पता लग गया था कि उसे अब चलना चाहिए और मृदुला से फटाफट बातचीत खत्म कर सब्ज़ियों के थैले हाथों में पकड़ वह दनदनाती हुई सीढ़ियां चढ़ गई।
संध्या ने देखा कि शाम के लगभग 6:30 बज गए थे और उसके हाथों में सब्ज़ियों के थैले को देखकर भी सास कमला जी के माथे की त्यौरियां चढ़ी रही थी।संध्या ने फटाफट हाथ मुंह धोकर चाय चढ़ाई और होमवर्क करती हुई बेटी को अंदर दूध गर्म कर दे आई।कुछ ही देर में सास ससुर को चाय पकड़ा वह काम पर लग गई थी..अपनी प्याली वह अंदर ही छोड़ आई थी।चाय पीते पीते ही उसने दाल चढ़ाई, सब्ज़ी काटी और सब्ज़ी को छौंक लगा दिया और साथ ही साथ सुबह का गुंधा हुआ आटा फ्रिज से निकाल कर रख दिया था ताकि रोटी बनाने तक वो थोड़ा नरम पड़ सके और बीच-बीच में वह चाय भी पीती जा रही थी।
संध्या दिल्ली के एक मध्यमवर्गीय घर की नौकरी पेशा महिला थी जो अपने पति,बेटी और अपने सास-ससुर के साथ रहती थी।उसका पति रमेश एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर था जो कि एक मल्टीनैशनल कंपनी में काम करता था और ज़्यादातर उसकी टूरिंग जाॅब थी।महीने के काफी दिन वो घर के बाहर ही रहता और ऐसे में संध्या के ऊपर घर और बाहर दोनों तरफ की ज़िम्मेदारी आ जाती। अभी भी रमेश कंपनी की तरफ से बेंगलुरु गया हुआ था और 2 दिन बाद उसे वापिस आना था।
संध्या की सुबह तड़के 5:00 बजे शुरू हो जाती।मोटर चला कर पानी भरने से लेकर बेटी को स्टॉप तक छोड़ने, अपना और रमेश का टिफिन बनाने, सास ससुर और अपना नाश्ता बनाने में और घर के इधर-उधर के कामों में कैसे उसके दफ्तर का समय हो जाता उसे खुद भी पता नहीं चलता और दौड़ती हुई वह मेट्रो स्टेशन की तरफ भागती।घर में से कोई भी काम में उसका हाथ बंटाने की कभी कोशिश नहीं करता।
रमेश ने एक दो बार अगर कुछ करने की कोशिश भी की तो सास ने यह कहकर टोक दिया,” रहने दे, तू क्यों काम करने लग पड़ा है खुद ही कर लेगी सब कुछ”, और रमेश वही काम छोड़ देता। संध्या समझ नहीं पाती कि कम से कम रमेश को तो उसकी दिक्कत को समझना चाहिए था।
आज भी संध्या को दफ्तर से आते आते देर हो गई थी। घर पहुंची तो उसने देखा कि सास ससुर का मुंह बना हुआ था और बेटी रोज़ाना की तरह अंदर बैठी अपना होमवर्क कर रही थी।संध्या को देखते ही उसकी सास एकदम से गुस्से में बोल पड़ी,” यह कोई वक्त है घर आने का..दफ्तर में काम करती है तो यह थोड़ी मतलब है जब मर्ज़ी घर आएगी”।
संध्या पहले ही दफ्तर के अधिक काम की वजह से थकी हुई थी और उसका मन इन बातों से और थक चुका था लेकिन बिना कोई जवाब दिए उसने उसी तरह रोज़ाना की तरह हाथ मुंह धो चाय चढ़ाई और उन दोनों को चाय दे आई और धीरे से इतना ही बोल आई” मांजी आज दफ़्तर में काम थोड़ा ज़्यादा था”।
अगले दिन भी संध्या को शाम को दफ्तर से लौटते हुए मृदुला मिल गई संध्या देख रही थी कि उसके सास-ससुर को उसकी मृदुला से दोस्ती भा नहीं रही थी।मृदुला से क्या उन्हें तो उसकी किसी से भी दोस्ती कभी भाई ही ना थी। शादी के इतने सालों बाद भी उसने अपनी सोसाइटी में कभी किसी से कोई खास बातचीत नहीं की थी।घर से सीधा दफ्तर और दफ्तर से घर बस इसी चक्की में वह पिसती रहती थी।कभी रमेश से भी उसने बात करने की कोशिश की तो उसने यह कहकर टाल दिया,” छोड़ो, जब मम्मी-पापा को पसंद नहीं है तो तुम क्यों नई मुसीबत मोल लेना चाहती हो”।
2 दिन बाद रमेश घर आ गया था उसके आने से घर में थोड़ी रौनक हो गई थी।रमेश बेटी को बहुत प्यार करता था और उसके लिए बेंगलुरु से काफी कुछ लेकर आया था संध्या ने दफ्तर से आकर रमेश का मनपसंद खाना बनाया था। रमेश अपने माता-पिता की इकलौता संतान थी इसीलिए उसके मां-बाप भी उसे ज़रूरत से ज़्यादा ही लाड़ प्यार करते थे लेकिन बहू भी तो इकलौती थी लेकिन उसकी बात आते ही उनका लाड़ प्यार ना जाने कहां गायब हो जाता।
इस बार जब रमेश बेंगलुरु से वापस आया तो उसकी तबीयत थोड़ी खराब सी थी।दो-चार दिन उसे बुखार आता रहा तो डॉक्टर से चेक करवा कर कुछ टेस्ट कराए तो पता चला कि उसे टाइफाइड हो गया है।दफ्तर से छुट्टी ले वह घर पर ही आराम कर रहा था।संध्या ने चार-पांच दिन की छुट्टी तो ले ली थी फिर उसके थोड़ा संभलते ही संध्या ने दफ्तर जाना शुरू कर दिया था।
संध्या के छुट्टी लेने से उस पर थोड़ा आजकल काम का दबाव ज़्यादा आ गया था इसलिए उसे कभी-कभी आने में थोड़ी देर हो जाती।उसने देखा कि अब सास ससुर के साथ रमेश भी उसे लेट आने के लिए सवाल पूछने लग पड़ा था।एक दिन जब वह नीचे मृदुला के साथ बातें कर रही थी तो ऊपर आते ही रमेश उस पर गुस्से से फट पड़ा। संध्या को बुरा तो बहुत लगा लेकिन वह चुप्पी लगा गई थी।
अगले दिन जब शाम को संध्या वापिस आने लगी तो एक लाइन की मेट्रो खराब होने से मेट्रो बहुत देरी से चल रही थी इसलिए संध्या पहले तो काफी देर वहीं इंतज़ार करती रही फिर उसने ऑटो से आने की सोची पर मेट्रो की खराबी से भीड़ होने से उसे कोई ऑटोवाला भी नहीं मिल रहा था। इतनी देर में उसने रमेश को फोन कर बता भी दिया था।
वह सड़क पर खड़ी ही थी कि उसके दफ्तर का सहकर्मी रजत वहां आ गया और उसने उसे अपनी कार से घर पर छोड़ दिया।उसकी कार से उतरते हुए उसके ससुर ने बालकनी से उसे देख लिया था संकोच के मारे वह रजत को अपने घर भी बुला नहीं पाई थी लेकिन जैसे ही वह घर पहुंची मांजी गुस्से से बोली कि यह कोई वक्त है आने का तुझे नहीं पता कि घर में सारे तेरा इंतज़ार कर रहे हैं।
संध्या को मांजी से तो यही उम्मीद थी पर रमेश को भी जब अपने माता-पिता की वकालत करते देखा तो उससे रहा ना गया और वह गुस्से से बोल पड़ी,” मांजी, आपने तो हमेशा मेरे साथ भेदभाव ही किया है।रमेश भी तो इतने इतने दिन टूर पर रहता है आपको क्या पता वह वहां क्या करता है क्या कभी आपने अपने बेटे से पूछा है? नहीं ना, तो यह सवाल आप रोज़ ही क्यों मेरे से पूछती हैं जबकि आप को सब पता है कि कभी सब्ज़ी लाते हुए यां कभी नीचे मृदुला से बात करते हुए 5-10 मिनट ऊपर नीचे हो ही जाते हैं।
मैंने सदा आपकी इज्ज़त की है और इसी इज्ज़त की वजह से मैंने कभी सोसाइटी में किसी और से बात करने की कोशिश भी नहीं की क्योंकि आपको मेरा किसी से बात करना पसंद नहीं लेकिन अगर सामने से कोई मिल जाए मुझे तो मैं उसे क्या जवाब दूं कि मेरे सास ससुर को मेरा तुझ से बात करना पसंद नहीं है और दनदनाती हुई सीढ़ियां चढ़ जाऊं…ऐसा कैसे कर सकती हूं मैं और अगर आपको यह लगता है कि मैं अपने सहकर्मी के साथ कार में घूमने के लिए मेट्रो का बहाना करूंगी तो वह तो मैं कार में दफ्तर के समय भी उसके साथ घूम सकती हूं आपको क्या पता चलेगा।आपके लिए तो मैं दफ्तर में ही हूं हर बार संदेह के कटघरे में हमेशा औरतों को ही क्यों खड़ा किया जाता है यह मैं आज तक नहीं जान पाई।आप भी तो एक औरत है क्या आप ही मेरे दर्द को समझ पाई है कभी”, और संध्या यह कहती हुई गुस्से से अपने कमरे में चली गई।
संध्या का पहली बार ऐसा रूप देकर उसके सास ससुर के साथ-साथ रमेश भी सकते में आ गया और कहीं ना कहीं उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया था। उस दिन संध्या अपने कमरे से बाहर नहीं निकली।थोड़ी देर के बाद मांजी उठी और उन्होंने ही रात का खाना बनाया और रमेश के हाथ संध्या की थाली भिजवा दी।
रमेश उसकी थाली कमरे में ले गया और बोला,” संध्या, मुझे माफ कर दो..मुझसे बहुत बड़ी गलती हुई है जो मैंने तुम्हें संदेह की नज़रों से देखा।मैं जानता हूं कि मम्मी और पापा के बहकावे में आकर ही मैं ने तुम से ऐसे बात की थी लेकिन फिर भी गलती तो मेरी ही है जो मैं तुम्हारी मजबूरियों को कभी समझ ही नहीं पाया और तुम्हारे साथ ऐसा सलूक करता रहा”।
संध्या बोली,” रमेश ,तुम जानते हो कि मेरे माता-पिता नहीं है और मैंने हमेशा मांजी और पापा जी में हमेशा अपने माता पिता की छवि देखनी चाहिए लेकिन वह हमेशा मेरे साथ भेदभाव ही करते रहे मैं सब कुछ सहन कर गई लेकिन आज जब उन्होंने मेरे चरित्र पर संदेह किया तो वह मुझसे सहन ना हो सका और मैंने गुस्से में जवाब दे दिया”।
संध्या की यह बातें सुन उसकी सास और ससुर भी
कमरे में आ गए और उससे माफी मांगते हुए बोले,” बेटी हमें माफ कर दो..हमें अपनी गलती का एहसास हो गया है”।
संध्या ने मांजी के गले लगते हुए कहा,” नहीं मांजी, मैं आपको माफ करने वाली कौन होती हूं..बस मैं इतना चाहती हूं कि आप मुझे अपनी बेटी की तरह ही देखें और इस घर में भेदभाव कि यह भावना बिल्कुल खत्म हो जाए”।
थोड़ी देर बाद घर में हंसी की ठहाके गूंज रहे थे।ऐसा लग रहा था जैसे भेदभाव की छाया उस घर से हमेशा के लिए दूर हो गई थी।
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#अप्रकाशित
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गीतू महाजन।