दादा जी पूजा ख़त्म हो तो इधर आइये, हम, आप और पापा तीनों की एक सेल्फी तो बनती हैं..। कह अवि दादा जी के साथ सेल्फी लेने लगा..। आज दिवाली हैं… सब लोग पूजा करने के बाद फोटो लेने लगे.। दादा जी के साथ मग्न, अवि को देख आज संध्या को अपने पिता की याद आ गई..।माँ के जाने के बाद वो अकेले हो गये..।
संध्या का मन हुआ कि अवि को बोले की नानाजी को भी फ़ोन कर लो…। थोड़ी देर बाद रहा नहीं गया तो बोल ही दिया…।अभी कर दूंगा माँ… आप चिंता मत करो..। संध्या का मन बुझ गया… हर बार अवि यहीं करता हैं,.. उससे बोलेगा अभी करता हूँ, पर उसका अभी, कभी नहीं आता..। संध्या समझ नहीं पाती, कि अवि दादा जी का इतना ध्यान रखता हैं,… फिर नाना जी को क्यों भूल जाता..। क्या पितृसत्तात्मक समाज में बच्चें सिर्फ पिता के रिश्तों को समझते हैं..। शूल की तरह यह प्रश्न संध्या को चुभता हैं..।
या कहीं उसने ही अपने इन रिश्तों की अहमियत नहीं बताई… ऐसा नहीं की बच्चों को नानी के घर से प्यार नहीं…,. पर शायद ये सोच ज्यादा पैर पसार ली..।कि दादा जी का दायित्व हमारा हैं, और नाना जी का दायित्व हम लोगों का नहीं हैं…।
इस सोच को विकसित करने में अनजाने में उसका हाथ भी हैं..। सिर्फ गर्मियों की छुट्टी में वो पन्दरह दिन के लिए जाती थी…..। उसने भी अपने कर्तव्यों को,..पुराने नियमों के तहत मान, पूरा नहीं किया..। कभी जरूरत भी नहीं पड़ी..।और उसने कोशिश भी नहीं की..। माँ जब आती थी, जाते समय बेटी के घर का नहीं खाते कह…पैसे दे कर जाती,तो कभी प्रतिवाद भी नहीं किया..।क्यों..सब रीति रिवाज़ पर आँख मुंद कर विश्वास करती रही…। क्या स्वार्थी हो गई थी…, नहीं स्वार्थी नहीं थी, पर लीक से हट कर सोचा भी नहीं..।
उसके जैसी महिलाओं ने,इन गलत रीति रिवाज़ को तोड़ने की कोशिश क्यों नहीं की.। अगर की होती, तो आज उसे अवि से शिकायत नहीं होती .। नानी का घर सिर्फ घूमने और मस्ती की जगह हो जाती… वहां का सब कुछ माँ का ही होता हैं..।माँ तो प्यारी होती हैं पर माँ के संग जुड़े रिश्ते सिर्फ माँ के ही होते..। यानि माँ का मायका सिर्फ माँ का होता हैं… जहाँ बच्चें और पति मेहमान होते हैं..।
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नानी के घर की बहुत यादें बच्चों के पास होती हैं… नानी का स्पेशल प्यार…, उनके द्वारा दिये गिफ्ट… बच्चों को पता होता हैं,…।यहाँ उनकी सब जिद पूरी होती हैं… फिर भी दायित्व.. उनका नहीं हैं…।
बहुत छोटी सी बात पर, कितना गूढ अर्थ लिए हुए हैं..। जहाँ लड़का हैं वहाँ तो ठीक, पर जहाँ सिर्फ लड़कियां हैं, उन माँ -बाप को कौन देखेगा… अगर हम पितृसत्तात्मक संस्कार को ही मानेंगे..।संध्या खुद तीन बहन ही हैं..।पिछले साल माँ नहीं रही… पापा को हम तीन बहने नहीं बोल पाये की हमारे साथ चलो..। जबकि हम तीन बहनों को पापा ने कभी कम नहीं समझा.. पुत्र समान ही माना..।संध्या ने सोचा..।
संध्या को उदास देख प्रकाश ने पूछा तो संध्या छुपा नहीं पाई..। बहते आँसुओं के साथ अपनी व्यथा सुना दी..।सिर पर स्नेहिल हाथों के स्पर्श से संध्या ने सिर ऊपर उठाया तो ससुरजी को पाया… बेटा ये गलती तो तुमसे हुई, पर हमसे भी हुई… हम क्यों नहीं सोच पाये… तुम्हारे पिता का अकेलापन..। चलो आँसू पोंछ लो.. कल हम उन्हे अपने साथ ले आएंगे… आखिर किसी को तो पहल करनी ही होंगी..।
हाँ माँ अब तुम्हारा मायका सिर्फ तुम्हारा नहीं, हम सबका होगा .. नाना जी के प्रति हम सब अपने फ़र्ज निभाएंगे..।
संध्या के पिता ने उनके साथ रहने से मना कर दिया… पर अवि ने अपने घर के सामने दूसरा फ्लैट किराये पर ले नाना जी को शिफ्ट करा दिया… अब दोनों बुजुर्गो को कंपनी मिल गई… और नाना जी भी अपने सम्मान के साथ रह रहे..।
दोस्तों कई बार हम लीक पर चलते भूल जाते की ये सही नहीं हैं, पर कौन आफत मोल ले ..।सोच सब चुप रह जाते..।पर समय की जरूरत के हिसाब से कुछ बदलाव घर के हर सदस्य को खुशी दे जाती…।
—संगीता त्रिपाठी