क्या पैसा रिश्तों में इतना फर्क करा देता है –  किरण विश्वकर्मा

आइने गुजरा हुआ वक्त नहीं बताया करते! पर जब भी बीती बातें याद आती हैं….. तो दिल में दर्द जरूर दे जाते हैं।

मैं प्रमिला ससुराल में सबसे बड़ी बहू…. आज से बीस वर्ष पहले हमने शहर में मकान बनवाया कर्ज लेकर, आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया…. सबसे बड़े होने के नाते मेरे पति प्रखर जी के ऊपर घर की जिम्मेदारियां भी थीं। हर महीने इनके घर वालों को कुछ ना कुछ पैसे की जरूरत पड़ ही जाती। जिससे कि पूरा बजट ही बिगड़ जाता था। दोनों बच्चे भी पढ़ रहे थे घर का कर्ज भी चुकाना था। हर त्यौहार ससुराल में ही जाकर हम लोग मनाते थे, उसके हिसाब से क्या-क्या सामान लाना है, पहले ही बता दिया जाता था फिर भी हम लोगों से कोई खुश नहीं था।

तभी देवर जी की नौकरी लग गई, सैलरी अच्छी थी कुछ समय बाद एक बड़े घर की लड़की से उसकी शादी भी हो गई दहेज भी बहुत बढ़िया मिला था, बस फिर क्या था सभी का व्यवहार मेरे और मेरे पति के लिए बिल्कुल बदल गया। क्योंकि देवर जी खूब पैसा खर्च करते थे और देवरानी भी अपने घर में इकलौती होने के कारण वहां से भी खूब महंगा- महंगा सामान तीज-त्यौहार पर सबके लिए आता।  जहां पर मुझे और मेरे पति को कदम-कदम पर अपमानित किया जाता, वहीं देवर और देवरानी को हाथों-हाथ लिया जाता।




आज ससुराल में कथा होनी थी… मैं पंजीरी बना रही थी तभी मेरी ननद ने देवरानी से कहा… लाओ भाभी मैं आपके पैरों में रंग लगा दूं.….चूंकि मैं ननद हूं तो बाद में मेरे पैर छू लेना….जब मैने यह सुना तो मैं आश्चर्य चकित रह गईं कि क्या पैसा लोगों को इतना बदल देता है। जब पहले ससुराल में कोई कार्यक्रम होता था तो जितनी भी महिलाएं आती थीं, सबके पैरों में रंग लगाने के बाद ही मुझे रंग लगाना होता था… और अब

जब भी रसोई में कुछ बनता तो वह सबसे पहले ही कुछ न कुछ लेकर खाने लगती और सब लोग देखकर भी अनदेखा कर देते। यह वही लोग थे जो एक बार मुझे बहुत ज्यादा भूख लगी थी और मुझे मेरी बेटी को दूध पिलाना था, तो थोड़ा सा दाल-चावल खा लेने पर सबसे पहले खा लेने का ढिंढोरा पीट दिया था।

इस कहानी को भी पढ़ें: 

गरम चिमटा – लतिका श्रीवास्तव : Moral stories in hindi

हमारे यहां पर्दा प्रथा बहुत ज्यादा था, जैसे ही मैं खाना बना लेती तो ननद रानी आ जाती और वही सबको खाना परोसती थी, उस दिन भी उन्होंने कहा कि…. भाभी आप जाओ अंदर मै खाना दे दूंगी। मैं परदे के पीछे से देख रही थी कि उन्होंने देवर जी को रोटी देते समय खूब सारा घी लगाया और इन्हे रोटी देते समय जरा सा घी….. मैं खड़ी सोच रही थी कि क्या पैसा रिश्तों में इतना फर्क करा देता है। क्या जिम्मेदारियां निभाने का कोई मूल्य नहीं होता। क्यूं लोग एक भाई को सर आंखों पर चढ़ाते हैं और दूसरे को बिलकुल महत्व नही देते। जबकि सभी की शादी ब्याह में इन्होंने एक पिता की तरह फर्ज निभाया।

सभी की शादी ब्याह हो जाने के बाद…..मैं इस तरह का व्यवहार देखकर इन लोगों से दूर होती गईl पैसों की वजह से रिश्तों में जो दूरियां आई… वह आज तक भी नहीं भर पाई।  इतने समय वर्षों बाद मुझे अब किसी से कोई शिकायत नहीं है…. परंतु मैं अब दिल से कभी उन लोगों से जुड़ नही पाई। मैं अब किसी के घर में कोई भी कार्यक्रम होता है सिर्फ तब ही जाती हूं…. हां मेरे घर कोई आता है तो उसका मान सम्मान करती हूं….जब भी किसी को मदद की जरूरत होती है तो मदद भी करती हूं…. परंतु दिल से किसी को भी नही अपना पाईं क्योंकि मैने बहुत अपमान सहा है। रिश्तों में पैसे की वजह से फर्क देखा है।

 किरण विश्वकर्मा 

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!