क्या मेरा कोई हक नहीं – अर्चना कोहली अर्चि  : Moral Stories in Hindi

“कहाँ खोई हो नीलिमा, कितनी आवाजें दीं, पर तुमने कोई उत्तर ही नहीं दिया। कई दिनों से देख रहा हूँ, तुम्हारा चेहरा भी उतरा- उतरा है। कोई बात है क्या?” सुजीत ने नीलिमा से पूछा।

“ऐसी तो कोई बात नहीं है। आजकल ऑफिस में काम बढ़ गया है, इसलिए जल्दी थक जाती हूँ।”  

“क्यों झूठ बोल रही हो? तुम्हारा चेहरा देखकर ही पता चल जाता है, तुम सच बोल रही हो या झूठ।” सुजीत ने कहा।

“मुझे नहीं पता था, मैंने वकील से नहीं एक ज्योतिषी से शादी की है। नीलिमा ने बनावटी हँसी से कहा।

“यह हुई न बात। चलो, मेरी बातों से हँसी तो छूटी। इसी मोहक हँसी के कारण ही मैंने तुम्हें अपना बनाने का ठान लिया था। मेरे लिए तो यह हँसी एक टॉनिक के समान है, जिससे पूरा दिन कार्य करने की स्फूर्ति बनी रहती है। अच्छा, मैं ज़रा यह फाइल पिताजी को देकर आता हूँ। बहुत ज़रूरी है, फिर आकर तुम्हारी कक्षा लेता हूँ।‌ वकील हूँ, बात की तह तक जाकर ही दम लूँगा।” कहकर पापा को फाइल देने सुजीत चला गया।

उधर सुजीत के जाते ही नीलिमा की आँखों के आगे फिर से कुछ दिन पहले का वह दृश्य कौंध गया, जब उसने भाई के घर आने पर उसके हाथ में पंद्रह हज़ार रुपए रख दिए थे, जबकि भाई ने बहुत मना किया था, पर नीलिमा ने उसे यह कहकर चुप करा दिया था, मैं तेरी बड़ी बहन हूँ।’

 यह देख भाई के जाते ही सासू माँ अकेले में उस पर बरस पड़ी थी, हमसे बिना पूछे किस हक से तुमने अपने भाई को इतने सारे रुपए दे दिए। यह सुनकर नीलिमा कुछ क्षण के लिए तो अवाक रह गई थी। उससे कुछ बोलते नहीं बना, क्या उत्तर दे।

नीलिमा को चुप देख सासू माँ सुधा ने कहा, “अब चुप क्यों हो? जवाब दो, तुमने अपने भाई को किस हक से इतने सारे रुपए दे दिए? क्यों उलटी गंगा बहा रही हो?”

“बड़ी बहन के हक से। फिर अब पिताजी रिटायर हो चुके हैं। भाई की भी अभी नई नौकरी लगी है। आज के जमाने में बेटा हो या बेटी सब बराबर हैं। उनका जायदाद पर भी बराबर का हक है तो सेवा का भी, मदद का भी हक होना चाहिए। फिर भाई को जो रुपए मैंने दिए हैं, वो मेरी मेहनत की कमाई है। अपनी मेहनत के पैसों को अपनी मर्जी से खर्च करने का क्या मुझे कोई हक नहीं,” नीलिमा ने भरी आँखों से कहा।

“अब तुम उस घर की बेटी नहीं, इस घर की बहू हो। इस घर के प्रति तुम्हारे कुछ कर्तव्य हैं कोई भी काम तुम अपनी मर्जी से, बिना किसी से पूछे नहीं कर सकती।”

 “माफ कीजिए माँजी, भले मेरी शादी हो गई है, पर मैं मायके के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को नहीं भूल सकती। जैसे मैं आप सबके प्रति सब जिम्मेदारी अच्छी तरह से निभाती हूँ,वैसे मायके के प्रति भी निभाना चाहती हूँ। आखिर आप भी एक स्त्री हैं। किसी की बेटी हैं। मेरी भावना समझिए। माता-पिता ने मेरे लिए बहुत त्याग किया है। मुझे मत रोकिए।”

बहू मुझसे बहस न कर। जो कहा है, वह कर। हर माता-पिता बच्चों के लिए त्याग करते हैं।इसमें अलग क्या है। अब जा, रसोई में भोली काकी को डिनर में क्या बनेगा बता दे और चाय और कुछ नाश्ता भी बनाने को कह देना। सुजीत और तेरे ससुर जी किसी मुक्विकल से मिलने गए हैं, आने ही वाले हैं।” 

“अरे, फिर से किसी सोच में डूब गई हो! क्या बात है? अब फिर से यह मत कहना, थकान है। बताओ न क्या बात है।” कमरे में प्रवेश कर नीलिमा को झकझोरते हुए सुजीत ने कहा।

“आप नहीं समझेंगे।”

“एक बार बताओ तो सही। समझने का प्रयास करूँगा।”

“क्या शादी के बाद लड़कियों का मायके से हक खत्म हो जाता है। आप पुरुष कुछ भी कहिए, कम ही लड़कियाँ ऐसी होती हैं, जिन्हें ससुराल में हक मिलता है, तभी तो कहा जाता है, लड़कियों का कोई घर नहीं होता। विदाई होते जायदाद लेने का हक तो मिल जाता है पर जिम्मेदारी का नहीं। आप तो वकील हैं, क्या मैं गलत कह रही हूँ।”

“कह तो तुम सही रही हो पर इस तरह की बातें क्यों कर रही हो? किसी ने कुछ कहा क्या?” सुजीत ने नीलिमा से पूछा। 

“ठीक है, बताती हूँ, पर एक अनुरोध है ओवर रिएक्ट मत कीजिएगा।”

“अब पहेलियांँ मत बुझाओ, बता भी दो।”

“यह तो आपको पता है, पिता जी सेवानिवृत्त हो चुके हैं। भाई की भी नई नौकरी है। आजकल पिता जी की तबियत सही नहीं रहती है। उनकी दवाइयों का हर महीने सात आठ हज़ार का खर्च है। इस कारण कुछ दिन पहले जब भाई त्योहार देने आया था तो मैंने उसे जबरदस्ती पंद्रह हजार रुपए दे दिए।”

“तो क्या हुआ? इसमें क्या गलत है, फिर तुमने तो शादी से पहले ही मुझे बता दिया था कि मैं दोनों घरों की जिम्मेदारी निभाना चाहती हूँ। इस बारे में घर में सबको मालूम है।”

“मेरे इस फैसले में मम्मी जी खुश नहीं है। उन्होंने कहा, मुझे कोई भी काम करने से पहले पूछना होगा।”

“मुझे विश्वास नहीं हो रहा, यह मम्मी ने कहा है। क्या सच में मम्मी ने ऐसा कहा है।”

” मैंने कहा था न, आप नहीं समझेंगे।” जाने दीजिए। रात गई, बात गई।” 

“नहीं सच तो मैं जानकर रहूँगा। रात को डिनर के समय मैं इस बारे में मम्मी से बात करूँगा।”

 पर•••

“पर वर कुछ नहीं। आखिर मुझे भी सच जानने का अधिकार है। तुम चिंता मत करो। मैं सब सँभाल लूँगा।” 

रात को•••

“मम्मी जी। मैं यह क्या सुन रहा हूँ, आपने नीलिमा से कहा है, शादी के बाद उसे हर काम पूछकर करना होगा। साथ ही मायके के लिए भी जो वह करना चाहती है, वह भी पूछना होगा।”

“तो क्या गलत कहा। सारी कमाई क्या मायके वालों पर ही उड़ा देगी। और बहू, कोई बड़ी बात तो नहीं थी जो बेटे के कान भर दिए।”

“मम्मी आप यह कैसी बात कर रही हैं। नीलिमा तो मुझे कुछ भी बताना नहीं चाहती थी, वो तो इसकी उदासी देखकर मैंने ज़ोर दिया, तो इसने बताया। फिर इसके पैसे हैं, जैसे चाहे खर्च करे। इस बारे में तो उसने शादी से पहले ही कह दिया था कि यह दोनों घरों की जिम्मेदारी निभाएगी। फिर समस्या क्या है? फिर हमारे पास कोई कमी है क्या! फिर ससुराल में भी तो नीलिमा दिल खोलकर खर्च करती है, तब तो आपने कुछ नहीं कहा।”

“सुधा ठीक तो कह रहा है सुजीत, मुझे तुमसे यह उम्मीद नहीं थी। नीलिमा इस घर की बेटी है, बहू नहीं। फिर जो तुम्हारे साथ हुआ, वो तुम बहू के साथ क्यों करना चाहती हो? क्या तुम चाहती हो, जिस तरह तुम्हारे मन में अपनी सास के प्रति कड़वाहट आखिरी समय तक रही, उसी तरह बहू के मन में भी भर जाए। यह भी छिप-छिपकर मायकेवालों की मदद करे।” सुधा के पति महेश ने कहा।

“क्या मतलब पिता जी। मैं समझा नहीं।” सुजीत ने हैरानी से पूछा।

“सुजीत तुम्हारी दादी तुम्हारी मम्मी के साथ यही व्यवहार करती थी, जो इसने नीलिमा के साथ किया, यद्यपि मैंने इसे मायकेवालों के लिए कुछ भी करने से नहीं रोका। हर त्योहार पर इसमें अपनी मर्जी से उनको दिया। मैंने कभी भी तुम्हारी मम्मी को नहीं रोका।

सुधा को चुप देख महेश ने आगे कहा, इतिहास को मत दोहराओ सुधा। इस तरह की बातों से कड़वाहट ही बढ़ती है।”

“शायद आप सही कर रहे हैं। मुझसे गलती हो गई। जो मेरे साथ हुआ, वही मैं बहू के साथ करना चाहती थी। बहू मुझे माफ कर दे। आगे से ऐसा नहीं होगा।”

” मम्मी जी आप बड़ी हैं। बड़े छोटों से माफी माँगते अच्छे नहीं लगते। आप समझ गईं, मेरे लिए इतना ही काफ़ी है। अब मैं सबके लिए एक अच्छी-सी कॉफी बनाकर लाती हूँ।”

अर्चना कोहली अर्चि (नोएडा)

स्वरचित, मौलिक और अप्रकाशित

#हक

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