क़िस्मत की कठोरता; – दीपांशी राजपूत : Moral Stories in Hindi

सोद्रा की शादी को अभी कुछ ६ महीने भी नहीं हुए थे की उसे घर से अलग रहना पड़ रहा था। पुराना समय सोचते सोचते उसे याद आया की कैसे सब उसे दिन भर प्यार से रखते और रखते भी क्यो ना क्युकी सोद्रा थी ही एक बहुत गुणवान, पढ़ी लिखी और हंसमुख लड़की। पर चूँकि वो बड़े छोटे गाँव से थी

जहाँ अधिकतर शादी ब्याव की बात कम उम्र में ही तय हो जाती है तो सोद्रा के लिए लड़का ढूँढने में काफ़ी मुश्किलें आयी। छोटी बहन की बात पक्की सोद्रा ने ही समय रहते करवा दी थी। वह बैंक में मैनेजर थी और छोटी बहन सॉफ्टवेर इंजीनियर।

सोद्रा की माँ एक बड़ी ही चरित्रवान और शशक्त महिला थी, उनकी भी शादी गाँव में हो गयी थी जबकि वह बहुत पढ़ाई करके नौकरी करना चाहती थी। उन्होंने जैसे मानो अपने सपने सोद्रा के ज़रिये पूरे किये पर उन्हें डर भी था कि बिटिया की क़िस्मत भी उनके जैसे ना हो जहाँ कदम कदम पर संघर्ष हो।

डर था कहीं समाज उसके सपने ना कुचलदे तो वो ख़ुद ही सोद्रा के प्रति इतनी शख़्त थी की माँ का लाड़ प्यार थोड़ा उसके हिस्से में कम आया था।

पर सोद्रा इतनी ज़्यादा मज़बूत और प्यारी है की पूरे परिवार की मानो रौनक हो और हों भी क्यो ना क्युकी उसका सबसे आदर से बात करना, सबको अपना बना लेना, सारी मुश्किलों से हस हस के लड़ लेना और इसके बावजूद भी अपनी ज़मीन से जुड़े रहना यह उसके गुण थे।

कोई गाँव में उसे देख कर कह नहीं सकता था की वह एमबीए की हुई लड़की आज बड़ी बैंक में मैनेजर है वो भी मुंबई में।

सोद्रा के पिताजी शादी को लेके उसके बड़े ही चिंतित थे क्युकी समाज में कोई लड़का मिल नहीं रहा और ईधर सोद्रा का कहना था की जो भी होगा जैसा भी होगा आप ही ढूँढ के लेके आयेंगे।

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फिर कुछ २६ की पूरी होते हुए एक रिश्ता आया जिसमे दोनों परिवारों की हा हो गई पर सिर्फ़ सोद्रा को ही पता था की लड़के की कुछ कारणों वश ग्रेजुएशन भी पूरी नहीं हुई और वह भी एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता है। 

क्युकी शहर में उनके दो मकान थे और सासू माँ की भी सरकारी नौकरी थी तो माँ पिताजी थोड़ा निश्चिंत थे एवं वे जानते ही थे की सोद्रा सब कर लेगी।

शादी के बस ६ महीने ही हुए थे की उसके पति की अचानक तबीयत ख़राब हो गई, उसने अस्पताल घर सब सम्भाल लिया पर उसे शायद पता नहीं चला की घर में उसके ख़िलाफ़ कोई अलग ही शाजिश थी, जब पति बीमार थे तो उसने अपनी माँ को बुला लिया था की वह साँस के पास रह सके, पर इधर जेठ जेठानी जो अलग रहते थे

उनके कम चालू हुए और उसकी माँ का भी निरादर करके घर से बाहर निकाल दिया गया और १५ दिन बाद जब वह अपने पति को घर लेकर आयी तो छोटी छोटी बाते शुरू हुई और उन्हें घर से निकलने को कहा गया।

दोनों ने पास में ही किराए से घर लिया ताकि साँस की देखभाल की जा सके।

सोद्रा ने अभी नौकरी अपने पति की देखभाल के लिए छोड़ रखी थी पर उसकी पीड़ा जैसे कुछ और ही हो।

वह मनन जो की उसके पति हे उनसे बहुत ही प्रेम करती हे परंतु मनन कुछ से भी बहुत सीमित ही बात करते हे।

प्यार तो सोद्रा से करते हे पर कभी कहते भी नहीं ना ही जताते हे, दोनों बस चुपचाप पूरा दिन काट लेते हे।

वह दिन भर उनके सूप ज्यूस खाने में लगी रहती हे फिर बड़ी ही आशाओ भरी नज़रो से इस उम्मीद में दिन गुजार देती हे की थोड़ा अपनापन उसे मिले।

सोद्रा पूरे दिन चिंतित रहती की जितनी भी कमाई थी वह सब इलाज में और घर से अलग होने में लग चुकी थी पर उसे ख़ुद पर पूरा भरोसा था की वह सब थक कर लेगी बस उसे उतना ही प्यार और आदर मिल जाए जिसकी वह हकदार है।

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पर यहाँ तो वह एकदम अकेली सी पढ़ गई थी मानो सब ही ख़त्म हो चला हो, ना तो अब पैसे बचे थे ना नी हौसला।

ना ही पति से प्यार और एक पहचान।

आख़िरकार सोद्रा की माँ का डर सही हो ही गया की समाज और क़िस्मत अक्सर सबसे मेहनती और निडर लोगो को ही तोड़ने की कोशिश करते है ।

दीपांशी राजपूत

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