Moral Stories in Hindi : सुधा दी का फोन आया था, उनके बेटे विवेक की शादी तय हो गयी है। हम दोनों को आने का न्यौता दिया है। मनस्वी अपने पति मयंक को खाना परोसते हुए बता रही थी।
मैं तो नही जा पाऊंगा यार और बच्चों के भी एग्जाम रहेंगे….. देख लो बहुत जरूरी न हो तो तुम भी रहने ही दो फिर कभी चलेंगे,इतना कहकर अपना खाना खत्म कर मयंक कमरे में चला गया।
मन तो किया कि जोर से चिल्ला कर पूछुं, कि यदि तुम्हारी बहन के बेटे की शादी होती तब भी क्या तुम ऐसा ही कहते….. लेकिन कहकर भी क्या फायदा घर गृहस्थी में ऐसी कितनी ही बातें नजरअंदाज करनी पड़ती है।
रात को बिस्तर पर लेटी तो अनायास ही सुधा दीदी का चेहरा आंखों के सामने आ गया। सौम्य सरल और शांत सुधा दी बचपन से ही पढ़ने में बहुत होशियार थी बचपन मे ही मां गुजर गई तो दादी के आंचल में पली बढ़ी। बारहवीं करते ही शादी कर दी गयी। ससुराल में सास ससुर ननद देवर और पति कुल मिलाकर भरा पूरा परिवार था दीदी अपने मायके और ससुराल में बारहवीं तक पढ़ने वाली पहली लड़की थी। लेकिन तब बहुओं की पढ़ाई लिखाई का बहुत अधिक महत्व नही था। ससुराल में जीवन सहज नही था कुंए से पानी खींचना, सिल पर मसाला पीसना….यदि कुछ अच्छा था तो वो थे जीजा जी जो दीदी से बहुत प्यार करते थे। उन्हें पूरा मान सम्मान देते।
पंचायत चुनाव में दीदी की सासु मां सरपंच पद के लिए चुन ली गयी। दीदी के लिए भी एक सुनहरा मौका आया। गांव की सर्वाधिक पढ़ी लिखी बहु होने की वजह से उन्हें प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम के तहत गांव के अशिक्षित बुजुर्गों को पढ़ाने के लिए चुना गया, लेकिन सासु मां ने बड़े ही रौब के साथ ये कहकर मना कर दिया कि ” मैं गांव की सरपंच हूं अब तुम भी मास्टरी करने लगोगी तो घर गृहस्थी कौन देखेगा।
संस्कारों से बंधी मेरी बड़ी बहन ने इसमे भी अपनी खुशी ढूंढ ली और बिना कोई शिकायत किये अपनी छोटी सी दुनिया मे रम गयी।
कालांतर में दीदी और जीजा जी दो बच्चों जय और जिया के माता पिता बने। परिवार में एक और बहू यानी दीदी की देवरानी भी आ गयी, सासु मां सदा ही छोटी बहु की गलतियां नजरअंदाज कर जिम्मेदारियों की पोटली बड़ी बहू को ही थमाती, जिसे मेरी बहन खुशी खुशी निभाती जा रही थी।
कहते है किस्मत के आगे किसी का जोर नही चलता, जब सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था तभी एक मनहूस घड़ी में सड़क हादसे में जीजा जी की मौत हो गयी। ये महज एक्सीडेंट था या चुनावी जद्दोजहद के बीच की गई हत्या कोई समझ ही न सका।
बच्चों की सारी जिम्मेदारी दीदी पर आ गयी, जिया आठ वर्ष की और जय पांच वर्ष का था। बेटे के जाने का गम था या सासु मां की अकर्मण्यता बच्चों को संभालने कोई भी तैयार नही था। ऐसे में घर से बाहर जाकर काम करना मुनासिब नही था। मजबूरन आशा कार्यकर्ता बनकर गांव की गर्भवती महिलाओं को सुरक्षित प्रसव हेतु अस्पताल के चक्कर काटने पड़े तब कंही जाकर थोड़े बहुत पैसे मिलते। जीजा के मरने के बाद बीमा की राशि के पांच हिस्से किये गए जो सासु मां, ननद देवर दीदी और दोनो बच्चों में बराबर बांटे गए। ऐसे ही समय पंख लगाकर उड़ गया और दीदी ने 18 वर्ष की उम्र में अच्छा घर वर देखकर बेटी की शादी कर दी।
तब से अब तक पारिवारिक जिम्मेदारियां आज भी जस की तस बनी हुई हैं। सास ससुर दीदी के साथ ही रहते है लेकिन जरूरत पड़ने पर साथ देवर देवरानी का देते हैं। राखी दीवाली होली जैसे त्योहार पर लेनदेन दीदी को करना पड़ता बड़ी बहू जो ठहरी और फिर सास ससुर जंहा रहते मेहमान भी वंही आकर ठहरते रुकते। अब दीदी की भी उम्र हो चली है बेटे का ब्याह भी समय रहते हो जाये तो कुछ बच्चों की जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाएगी दीदी।
यही सब सोचते विचारते रात कैसे गुजर गई पता ही न चला। अब तो फटाफट सारे काम करके मुझे जल्दी तैयार होना है कोई जाए या न जाये मैं तो अपनी दीदी के बेटे की शादी में जरूर जाऊंगी।
दोस्तों कुछ लोग छोटी मोटी परेशानियों में किस्मत का रोना रोने लगते है जबकि वंही कुछ लोग बड़ी बड़ी मुसीबतों में भी जीवन जीकर दिखाते हैं।
किस्मत की गाड़ी में कर्म का तेल डलता है
मन का ब्रेक सही हो तो जिंदगी का इंजन चलता है
मोनिका रघुवंशी
#किस्मत