सुप्रिया और निर्मला एक ही सोसायटी में वर्षों से रहते आ रहे थे। निर्मला सुप्रिया के घर में काम करती थी। दोनों के बीच आम तौर पर ठीक-ठाक रिश्ता था, मगर आज एक छोटी-सी बात पर मतभेद ने गहरी खाई बना दी। सुप्रिया को अपनी बाई निर्मला से अचानक यह अपेक्षा हो गई थी कि वह अपनी बेटी स्वाति को एक हफ्ते के लिए उसके पास छोड़ दे ताकि वह उसकी बेटी और दामाद की आवभगत में सहूलियत महसूस कर सके। सुप्रिया की बेटी और दामाद की शादी के बाद यह पहली बार था कि वे घर पर रुकने आ रहे थे, और वह चाहती थी कि किसी प्रकार की सेवा-सत्कार में कमी न रहे।
निर्मला स्वभाव से सरल और ईमानदार महिला थी, वह अपनी बेटी स्वाति को लेकर बहुत आशान्वित थी। वह उसे बेहतर भविष्य देना चाहती थी, खासकर इसलिए कि उसकी अपनी ज़िन्दगी मजदूरी में ही बीत रही थी। स्वाति दसवीं कक्षा में थी और उसकी बोर्ड की परीक्षाएं नजदीक थीं, इसलिए निर्मला को भी इस समय अपनी बेटी का विशेष ध्यान रखना पड़ रहा था।
जब सुप्रिया ने निर्मला से उसकी बेटी को एक हफ्ते के लिए अपने पास छोड़ जाने के लिए कहा तो निर्मला ने बड़ी विनम्रता से जवाब दिया, “दीदी, स्वाति के दसवीं के बोर्ड की परीक्षा है, तो इस समय वो नहीं आ सकती। आप मुझे जो भी काम कहेंगी, मैं वह सब कर दूंगी।” निर्मला ने अपनी तरफ से सुप्रिया को आश्वस्त करने की पूरी कोशिश की कि वह अतिरिक्त काम करने में कोई कमी नहीं छोड़ेगी।
लेकिन सुप्रिया को निर्मला का यह जवाब नागवार गुजरा। उसे लगा कि उसकी बात की अवहेलना की गई है, जैसे उसने कह दिया हो कि उसके कहने का कोई मोल नहीं है। वह खुद को अपमानित महसूस करने लगी और उसे निर्मला की यह बात असहज लगी। इसी खीझ में उसने ताना मारते हुए व्यंग्य में कहा, “अरे, करने तो उसे झाड़ू-बर्तन ही है, तेरे दो पैसे ज्यादा बन जाते तो तेरा ही फायदा था।”
सुप्रिया की यह बात निर्मला के मन पर गहरा आघात कर गई। उसने महसूस किया कि उसका अपमान हुआ है। एक पल के लिए उसका सिर नीचा हो गया, लेकिन उसने खुद को संभाला और बहुत ही शांत तरीके से जवाब दिया, “बस यही सोच तो बदलनी है, मालकिन। मेरी किस्मत में घरों में काम करना लिखा है, लेकिन मैं अपनी बेटी के भविष्य से कोई समझौता नहीं करूंगी। वो पढ़ेगी और आगे बढ़ेगी।”
सुप्रिया को निर्मला का यह जवाब सुनकर थोड़ी हैरानी हुई और थोड़ी खीझ भी। उसने कभी यह नहीं सोचा था कि उसकी बाई उसकी बात का ऐसा जवाब देगी। एक तरफ वह यह सोच रही थी कि उसने निर्मला के लिए हमेशा अच्छा ही किया है, उसकी जरूरतों का ध्यान रखा है, और बदले में निर्मला को उसकी छोटी-सी बात माननी चाहिए थी। लेकिन दूसरी तरफ वह निर्मला के आत्मसम्मान को समझ नहीं पा रही थी, जो शायद उसके एक दायरे से परे था।
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निर्मला की बातों ने उसे कहीं न कहीं छुआ भी, मगर उसके अहम ने उसे इसे मानने से रोक दिया।
कुछ दिन ऐसे ही बीते। सुप्रिया ने मन ही मन ठान लिया कि वह निर्मला से दूरी बना लेगी और दूसरे घर के काम में ध्यान लगाएगी। इस पूरे हफ्ते के दौरान, सुप्रिया ने यह महसूस किया कि वह न सिर्फ निर्मला से, बल्कि अपने घर के कामकाज में एक भरोसेमंद साथी खोने का अहसास कर रही थी। अब कोई भी उसे वैसा सुकून और भरोसा नहीं दे पा रहा था, जो निर्मला से मिला करता था।
उधर, निर्मला भी जानती थी कि उसने अपने उसूल के साथ खड़े रहकर एक कड़ा कदम उठाया था, जो संभवतः उसके रोजगार को खतरे में डाल सकता था। लेकिन उसके मन में विश्वास था कि यदि उसकी बेटी पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हो गई, तो वह सभी संघर्षों का सामना कर सकेगी। स्वाति भी अपनी माँ की बातों को ध्यान में रखकर पढ़ाई में मेहनत करने लगी थी। उसने अपनी माँ की कठिनाइयों को देखकर अपने मन में यह ठान लिया था कि वह जीवन में कुछ ऐसा करेगी कि माँ को गर्व महसूस हो।
एक दिन सोसायटी में बच्चों के परिणाम आने की चर्चा हो रही थी। सुप्रिया ने सुन रखा था कि स्वाति के बोर्ड के परिणाम आने वाले हैं। वह दिल ही दिल में चाहती थी कि स्वाति अच्छे अंक न ला सके, ताकि निर्मला अपनी उस ‘अहम भरी’ सोच को समझ सके और उसे इस बात का अहसास हो कि जो उसने कहा, वह सही था। लेकिन फिर, किसी अन्य महिला से उसे यह सूचना मिली कि स्वाति ने अपनी बोर्ड परीक्षा में शानदार अंक हासिल किए हैं। यह सुनकर सुप्रिया हैरान रह गई।
उसकी इस हैरानी को कुछ देर में निर्मला की गर्व भरी मुस्कान ने और भी गहरा कर दिया। निर्मला सोसायटी में एक बधाई देने वाले को धन्यवाद कह रही थी, और उसके चेहरे की खुशी और संतोष साफ झलक रहा था। जब सुप्रिया ने निर्मला को बधाई दी, तो निर्मला ने बड़े ही सरलता से कहा, “धन्यवाद, दीदी। स्वाति की मेहनत और मेरे सपनों का फल मिला है। अब मैं उसे एक शिक्षिका बनते देखना चाहती हूं।” जो अपने जैसे गरीब बच्चों को नौकरी के साथ-साथ मुफ्त मे शिक्षा दे सके।
सुप्रिया की नज़रें झुक गईं। उसने इस सफलता में एक माँ के संघर्ष और बेटी की लगन को साफ देखा। उसने महसूस किया कि खुद अपने ऐशो-आराम के लिए दूसरों की भावनाओं को समझना कितना ज़रूरी है। उसके मन में निर्मला और उसकी बेटी के लिए सम्मान की भावना पैदा हुई। उसने तय कर लिया कि अब वह निर्मला को कभी छोटा नहीं समझेगी और न ही किसी की मेहनत और सपनों का मजाक बनाएगी।
इसके बाद, दोनों के बीच रिश्ते में नया मोड़ आ गया। सुप्रिया ने महसूस किया कि भले ही वह संपन्न परिवार से थी, लेकिन एक सच्चे संघर्ष का अर्थ समझने के लिए उसे निर्मला की तरह एक जुझारू माँ का संघर्ष देखना पड़ा। अब वह न केवल निर्मला का सम्मान करती थी, बल्कि उसकी मदद भी करती थी ताकि स्वाति अपनी शिक्षा और जीवन में ऊंचाइयों तक पहुंच सके।
सुप्रिया की यह सोच अब बदल चुकी थी।
मौलिक रचना
कविता भड़ाना