किरपा करो हे राम – रवीन्द्र कान्त त्यागी : Moral Stories in Hindi

सुबह आठ बजे ऑर्डर मिलने शुरू हो जाते थे। कभी स्वीगी, ब्लिंकिट तो कभी जमैटो। कोई सप्लाई छूट न जाये इसलिए रामचन्द्र कुशवाहा सुबह जल्दी उठते और नहा धोकर, नाश्ता करके आठ बजे तक तैयार हो जाते।

सरकार की पाबंदियों के कारण लकड़ी चिरायी का कारख़ाना बंद होने से, छह महीने पहले नौकरी छूट गई थी। तभी पड़ौस के मिसरा जी ने बताया कि सप्लाई का काम ले लीजिये। बहुत काम है। लरका बीस तीस हजार महीने के डाल रहा है।” तब साइकिल पर ही सप्लाई का काम शुरू किया मगर स्पर्धा का जमाना है।

जल्दी माल पहुंचाने की शर्तों को पूरा न करने के कारण उन्हे बहुत कम ऑर्डर मिलते थे। बाद में बीवी की पायजेब और एक अंगूठी बेचकर कुछ पैसे जुटाये और बैंक लोन से एक मोटरसाइकिल खरीद ली। सुबह आठ बजे या कभी कभी उस से भी पहले उठ जाते। नहा धोकर पूजा करते। मोटरसाइकिल की सफाई करते।

आखिर यही उनकी दूध देने वाली गाय थी। सुबह नौ बजे से लगाकर रात ग्यारह बजे तक कभी स्वीगी तो कभी जमैटो से मोबाइल पर कोरियर पहुंचाने के ऑर्डर मिलते थे। बहुत भागदौड़ करें तो दिन के पाँच सात सौ रुपये कमा लेते थे।  

एक शाम थके हारे रात नौ बजे घर पहुंचे तो पत्नी बेहद परेशान थीं।

“मोटरसाइकिलवा इहाँ खड़ा मत कीजिये। ऊ बैंक वाला सुबह से तीन चक्कर लगा चुका है। धमका रहा था कि मोटरसाइकिल जमा नहीं की तो पुलिस केस करेंगे। तीन महीने का किस्त टूटा हुआ है।”

रामचंदर के सर पर जैसे किसी ने ठंडे पानी का घड़ा फोड़ दिया हो। बैंक से किश्तों पर मोटरसाइकिल खरीदी। खूब मेहनत की तो किश्तें भी ठीक ठाक उतर रही थीं और बचुआ की फीस का जुगाड़ भी हो जाता था। काम ठीक चल रहा था कि गाँव में पिताजी गुजर गए। फिर कर्जा लेकर चार भाइयों का मुंह झूठा कराना पड़ा।

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मगर मोटरसाइकिल की किश्त नहीं टूटने दी। गरीब की चादर के चार कौने होते हैं। ना जाने कब कौन सा हवा में उड़ने लगे। बापू के मृत्युभोज से निवृत हुए तो बेटा बीमार हो गया। हस्पताल वाले तन के कपड़े भी बिकवाने की फिराक में लग गए थे। रामचंदर ने काम के घंटे बढ़ा दिये।

शराब पीकर जश्न मानते लफंगों की कोई चौकड़ी रात एक बजे भी चिकन बर्गर या मसाला मेक्रोनी मंगाती तो दो पैसे ज्यादा कमाने के लालच में गरम रज़ाई से बाहर निकलकर ठंडी मोटरसाइकिल को गरम करना पड़ता। सौलह घंटे सड़क नापते, मगर बेरोजगारी के चलते इतने लड़के सप्लाई में आ गए थे कि काम कम ही मिल पाता। जरूरतों का पेट इतना बड़ा होता है कि जिंदगी गुजर जाती है पर गड्ढा भर भरने का नाम ही नहीं लेता। आखिर मोटरसाइकिल की तीन महीने की किश्तें टूट गई थीं और बैंक वाले वाहन जप्त करने के लिए चक्कर काटने लगे थे। इत्तेफाक ही था कि जब जब बैंक के बाहुबली घर आते रामचंदर कोरियर देने निकले होते।

क्या होगा अगर मोटरसाइकिल जप्त हो गई। दो पैसे का जो एकमात्र आसरा है वो भी छूट जाएगा। बच्चों के भूखे मरने की नौबत आ जाएगी।

रामचंदर ऐसे ही कई पल मोटरसाइकिल की सीट पर किंकर्तव्यविमूढ़ से बैठे रहे। आँखों के सामने अंधेरा सा छा रहा था।

“परेसान ना होइए। मोटरसाइकिल मिसरा जी के यहाँ खड़ी कर देते हैं।” पत्नी ने कहा।

“अरे इसे तो मिसरा के यहाँ खड़ा कर देंगे मगर… मगर मैं कहाँ मुंह छुपा लूँ कौसल्या। भाग ही फूटे हैं। अरे हमारा बेइज्जती पूरे मुहल्ले के सामने करेंगे। फिर कहाँ डूब मरने को जगह मिलेगी। मेरा तो सर चकरा रहा है।” उसकी आँखों से आँसू की धार बहने लगी।

पत्नी चूल्हे से उठकर उनके पास आ गायी और स्नेह से बोली “पहले खाना तो खा लीजिये। भगवान सब रच्छा करिहैं।”

“तू… तो एक काम कर। दो रोटी एक अखबार में बांध दे। अब यहाँ रुकना ठीक नहीं है। एकबार मोटरसाइकिल चली गई तो… कहीं के न रहेंगे।”

“कहाँ जाईयेगा जी। घर तो आना ही पड़ेगा।”

“पिताजी कहते थे कि जब कोई रास्ता नजर न आए तो खुद को भगवान के हवाले छोड़ दो। अब कुछ रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है। महाकुम्भ लगा है। मोटरसाइकिल छिन जाने से पहले गंगा मैया में डुबकी लगा आऊँ। बाकी वो जाने। जाहि बिध राखे राम ताही बिध रहिए।”

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“ऐसे मत जाओ जी। रात होने वाली है। कब पहुंचेंगे। सुबह देख लीजिएगा।”

“दुई घंटे का रास्ता है। दुनिया हजारों मील से दौड़ी चली आ रही है। अब जो करिहैं, बाबा भोलेनाथ ही करिहैं।”

रामचंदर भीड़ और सड़कों पर लगे जाम के कारण रात दो बजे प्रयागराज पहुँच पाये। पहले मोटरसाइकिल खड़ी की। वस्त्र उतारे और संगम में कूद पड़े। असीम शांति का अहसास हुआ। एक डुबकी लगाते और कभी अपने पित्रों के लिए प्रार्थना करते तो कभी भगवान से अपने जीवन की दुश्वारियां दूर करने की याचना करते। बाहर निकले तो थकान और नींद से बदन टूट रहा था। कंधे पर पड़ा अंगोछा जमीन पर बिछाया और संगम की रेती पर लेट गए।

आसमान में लाली छाने लगी थी। भीड़ के सैलाब ने संगम की सारी जमीन को मानो आच्छादित कर दिया था। भक्तों के झुंड के झुंड संगम तट की ओर बढ़ रहे थे। कोई कंधा हिलाकर झिंझोड़ रहा था। रामचंदर ने उदासी से जगाने वाले की ओर पृश्नवाचक निगाह से देखा। एक पल को लगा कि बैंक वाले यहाँ भी आ गए क्या।

“भैया मोटरसाइल वाले, दो सवारी स्टेशन तक छोड़नी हैं।” एक बुजुर्ग कह रहे थे।

“नहीं भैया मैं…।”

“अरे जाता क्यूँ नहीं है। और सुन, दो सवारियों का पाँच सौ रुपये रेट है। उस से अधिक मत लेना।” एक मुच्छड़ पुलिसिए ने रुआब झाड़ा और आगे बढ़ गया।

तंद्रा लौटी तो रामचंदर को सारी बात समझ में आयीं। इतनी देर में तीन और सवारियाँ उस से अलग अलग स्थानों पर छोड़ने की याचना कर रही थीं। भीड़ बहुर अधिक थी और वाहनों की संख्या बहुत कम। एक एक थ्रीव्हीलर पर लोग गेहूं की बोरी की तरह लदकर जा रहे थे।

रामचंदर ने जमीन पर बिछा अंगोछा उठाया। एक झटके से उसकी रेत झाड़ी। फिर उसे मोटरसाइकिल की सीट पर फिराया। इस से पहले कि वह स्वयं सीट पर बैठता सवारी जल्दी से बैठ गई थी।

भीड़ को चीरती हुई हीरो होंडा हाईकोर्ट की ओर सरक रही थी। बीस मिनट में एक नया करारा पाँच सौ का नोट रामचंदर की जेब में था।

फिर हाईकोर्ट से दो सवारी लेकर वापिस संगम। फिर झूसी क्षेत्र। उसके बाद स्टेशन और…।

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अगली रात दो बजे सुरसती का फोन आया। डरी, डरी सी निराश आवाज। दराने वाकई शंकाएँ कि पति ने निराशा में कुछ कर न लिया हो। पंद्रह घंटे में पहली बार फोन उठाकर देखा तो छत्तीस मिसकौल पड़ी थीं। न जाने कब बैंक की कौल से डरकर साइलेंट कर दिया था।

“कहाँ हो जी। सब बहुत परेसान हैं। फोन भी नहीं उठा रहे। एक बूंद पानी और अन्न का एक दाना किसी के हलक से ना उतरा जी। हमरे बाऊजी गाँव से दौड़े आए हैं। आप को तलास करने के लिए निकलने वाले हैं। सब खैरियत तो है जी। चिंता के मारे हमारा कलेजा फटा जा रहा है।”

न जाने खुशी थी या परेशान पत्नी से बात करने की भावुकता। रामचंदर की हिचकी बंध गईं। कई पल बोला नहीं गया। फिर थोड़ा संभलकर बोले “भोले बाबा की किरपा बरस गई सुरसती। बारह हजार रुपैया जेब में हैं। मोटरसाइकिल की तीन किश्तें और लल्ला को तीन महीने की फीस। किरपा बरस गई भोले बाबा की। चिंता मत करो। पंद्रह दिन में इतना पैसा कमा लेंगे कि पूरा पैसा बैंक वालों के मुंह पर मार सकें।”

“परेसानी में कोई पाप मत करना जी। भगवान सब भला करेंगे। आप की आवाज सुनकर करेजा में ठंडक पड़ गई।”

“सेवा… सेवा कर रहे हैं भोले बाबा के चरणों में…।”

फिर फोन पर बस हिचकियों की आवाज थी। दोनों तरफ से।

रवीन्द्र कान्त त्यागी

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