एक सामान्य निम्न मध्यम वर्ग परिवार में जन्मा विक्रम भी सामान्य और साधारण सा ही युवक था।अच्छे स्वास्थ्य का धनी विक्रम अपने माता पिता का चहेता था तो वह भी अपने परिवार के प्रति समर्पित था,परिवार क्या बस माँ और बापू ही तो थे।धनीराम जी ने पूरी जिंदगी में ले देकर एक छोटा सा घर जरूर बना लिया था,इसके अतिरिक्त कुछ न कर पाये।धनीराम जी वही एक विद्यालय में अध्यापक थे।उनकी हार्दिक इच्छा थी उनका अकेला बेटा विक्रम पढ़ लिख कर अच्छे सी नौकरी कर ले और बुढ़ापे में ही सही उनके दिल्लदर दूर हो जाये और वह भी चैन से जिये।
ये सब बातें समझता तो विक्रम भी था,वह यह भी समझता था कि पानी पीने के लिये कुँवा उसे ही खोदना पड़ेगा,पर वह करे तो क्या करे,उसका मन पढ़ाई लिखाई में उतना था ही नही।इतना मात्र था कि कभी द्वितीय तो कभी तृतीय श्रेणी में पास जरूर हो जाता।आज की गलाकाट प्रतियोगिता में अच्छे अच्छे मेरिट वाले धक्के खाते फिरते हैं तो उस तृतीय श्रेणी वाले को भला कौन पूछेगा,यह भी वह जान रहा था,पर अपने दिमाग का क्या करे?किसी प्रकार द्वितीय श्रेणी में विक्रम ने आखिर ग्रेजुएशन कर लिया।काफी प्रयासो के बाद भी नौकरी मिली तो उसी विद्यालय में जिसमे उसके पिता अध्यापक रहे थे,वहां भी पिता की मृत्यु के बाद उनका सम्मान करते हुए विक्रम को क्लर्क के तौर पर रख लिया गया।
इससे फायदा ये हुआ कि उसके पिता की पेंशन विक्रम की माँ को मिलती थी,और उसको मिलने वाले वेतन से घर ठीक चलने लगा।घर पिता बनवा कर गये ही थे।
विक्रम की माँ अब विक्रम की शादी करना चाहती थी,उसके पिता तो बिना पोते पोती के मुँह देखे ही दुनिया से चले गये थे,कम से कम वह तो पोते पोती मुख देख ले,यही इच्छा बची थी।संयोगवश उनके जानने वालो के यहां से विक्रम का रिश्ता आ गया।लड़की का नाम कुसुम था,अभागी के माँ बाप बचपन मे ही चल बसे थे,अपने चाचा शिवकुमार के यहां ही उसकी परवरिश हुई थी।सुंदर और सादगी से भरपूर कुसुम विक्रम की माँ को भा गयी।विक्रम ने भी मां की पसंद में कोई ना नुकुर नही की।दोनो की जल्द ही शादी भी कर दी गयी।कुसुम अब विक्रम की पत्नी थी।दोनो खुश थे।कुसुम ने पूरा घर संभाल लिया था।माँ तथा विक्रम का वह पूरा ध्यान रखती।
एक दिन कुसुम को बुखार हो गया।विक्रम कुसुम को डॉक्टर को दिखाने ले गया।डॉक्टर ने सामान्य मौसमी बुखार बता दवा दे दी।विक्रम अपने काम से लग गया।दो तीन दिन में बुखार उतर गया।पर कुसुम उदास सी ही रही,विक्रम ने पूछा भी कि क्या अभी बुखार नही उतरा है?कुसुम चुप ही रही।विक्रम ने कुसुम का हाथ पकड़ कर बुखार होने न होने का अनुमान लगाया तो पाया कि कुसुम को बुखार नही है।वह निश्चिंत हो विद्यालय चला गया।
गर्मियों की छुट्टियां होने वाली थी,विद्यालय का साल भर का लेखा झोखा तैयार करना था,सो काम अधिक था। इधर कुसुम गुमसुम सी रहने लगी थी।थका हारा विक्रम उससे हाल पूछता तो कह देती सब ठीक है,घर का काम हो तो रहा है,क्या फर्क पड़ता है।विक्रम कहता भी ऐसा क्यों बोलती हो कुसुम,पर कुसुम चुप ही रहती।विक्रम को अब कुछ असामान्य होने का अहसास हुआ।कुसुम का वजन भी कम होता जा रहा था।
विक्रम कुसुम को फिर डॉक्टर के पास लेकर गया और उसका निरीक्षण कराया।डॉक्टर ने कुछ टेस्ट कराए जो सब सामान्य थे।डॉक्टर ने कहा कि कुसुम को कोई बीमारी नही है।लेकिन वह बीमार है, यह साफ प्रतीत हो रहा था।कुसुम को घर छोड़ विक्रम पुनः डॉक्टर के पास आया,और सब बातें बतायी कि वह गुमसुम रहती है,वजन भी कम हो रहा है।विक्रम डॉक्टर से यही जानकारी चाह रहा था,जब सब ठीक है तो ऐसा क्यों हो रहा है? डॉक्टर ने कहा भाई उसे कोई शारीरिक बीमारी नही है।
ऐसा करो तुम उसे किसी मनोचिकित्सक को दिखाओ।समय निकाल विक्रम कुसुम को मनोचिकित्सक के पास लेकर गया।सब बातें सुन मनोचिकित्सक ने विक्रम को बताया कि उसे कोई मानसिक दुविधा है,उसके लिये उसकी कुछ दिन काउंसिलिंग की जरूरत है।विक्रम अब दूसरे तीसरे दिन कुसुम को मनोचिकित्सक के पास ले जाने लगा।काउंसिलिंग का असर दिखने लगा था,कुसुम सामान्य होती जा रही थी।मनोचिकित्सक ने अकेले में विक्रम को बताया।कुसुम के मां बाप बचपन मे मर गये थे,चाचा चाची के यहां रही।
चाची का व्यवहार कुछ ठीक नही रहा, इससे उसके मस्तिष्क पर प्रभाव पड़ा उसे लगने लगा कि वह तो बोझ है,उसके होने न होने से क्या फर्क पड़ता है,अकेलेपन से घिर गयी वो।फिर तुमसे शादी हुई तो उसे लगा कि एक अपना बिल्कुल अपना उसे मिल गया है।तुम्हारे व्यस्तता के कारण वह फिर पहली अवस्था मे चली गयी थी।अब उबर गयी है।विक्रम हफ्ते दस दिन की छुट्टियां लेकर उसे कही घुमा कर ले आओ तो उसे लगेगा कि मेरा अपना उसके पास है,उस पर उसी का अधिकार है।
विक्रम कुसुम को लेकर मसूरी चला गया।होटल की उसकी बिसात नही थी सो धर्मशाला में कमरा ले लिया।पर इससे क्या हुआ विक्रम और कुसुम एक साथ तो थे।कुसुम का अधिकार उसके पास था,वह अकेली नही है,ये अहसास वह शिद्दत के साथ महसूस कर रही थी।मन की गांठ खुल चुकी थी,मन पंछी खुले आकाश में विचरण करने लगा था।
बालेश्वर गुप्ता, पुणे
मौलिक एवं अप्रकाशित।