बहनजी…… ये तुम्हारी जेठानी कहाँ गई , पिछले चार दिन से दूध ना ले रही…कभी किसी को…. कभी किसी को, दूध देना पड़ रहा है । क़रीब अठारह-बीस साल से दूध दे रहा हूँ पर पहली बार ऐसा हुआ कि दरवाज़े पर ताला लटका है ….. तुम्हें भी ना पता क्या , कहाँ गई ? दो लीटर दूध है ….. ले लो …. अमावस है ….खीर बना लियो ।
अरे भइया, मुझे क्या पता….. और हमारी बोलचाल ना है उनसे …. चल एक लीटर तो ले लूँगी…..किसी पड़ोसी से नहीं पूछा ?
अजी …. ले लो पूरा दूध ….. कहाँ पूछता फिरूँगा । कल भी आधा-आधा लीटर करके दिया था । और दस रूपये कम दे दियो । बस आपको और उनको ही देता हूँ इस तरफ़ तो …… सुबह-सुबह कोई नहीं मिलता वहाँ….. किससे पूछूँ?
नीलम ने पूरा दूध ले लिया पर उसके मन में भी यही बात घूम रही थी कि जेठ-जेठानी और बच्चे कहाँ गए ? वो भी चार दिनों से ? रिम्पी और लवली के तो स्कूल भी चल रहे हैं , बारहवीं कक्षा है ….
सोचते- सोचते नीलम कमरे में आ गई । वहाँ माँजी के पास बच्चों को बैठा देखकर बोली—-
चीकू …. रिम्पी और लवली स्कूल नहीं आ रही क्या ?
हाँ मम्मी…. कल मैम भी पूछ रही थी….. शायद उन्हें किसी ने बता दिया कि वे मेरी कज़िन है । उन्होंने तो कल का टैस्ट भी मिस कर दिया ।
माँजी …. क्या हो गया होगा? इस तरह…..
तू क्यों सोच रही ….. जब लेना एक , ना देने दो तो …. चल नाश्ते की तैयारी कर ले …. बच्चे भी स्कूल जाएँगे और राजन को भी काम पर जाना है….. अभी तो सुबह- सुबह क्या फ़ोन करूँ…… केशव की बहू से फ़ोन करके पूछूँगी ।
नीलम सास की बातें सुनकर रसोई में जाकर काम में लग गई पर उसके दिमाग़ में यही बात घूम रही थी कि पूरा परिवार कहाँ चला गया …. उसकी शादी को बीस साल हो गए पर एक राखी को छोड़कर जेठानी को कभी मायके जाते भी नहीं देखा ।
बच्चों और पति के जाने के बाद नीलम फिर बोली—-
माँ जी, आप फ़ोन करोगी या मैं पूछूँ ? एक बार राज़ी- ख़ुशी का पता लग जाए बस ….
फ़ोन करने पर पता चला कि नीलम के जेठ राजेश चार दिन पहले आई तेज बारिश में छत से गिर पड़े । सुबह चार बजे के क़रीब छत पर यह देखने चढ़े कि कहीँ नाली में कूड़ा तो नहीं अड़ गया…… बस पैर ऐसा फिसला कि संतुलन बिगड़ गया और वे मुँडेर से होते हुए सीधे आँगन में आकर गिरे ।
गिरते ही बेहोश हो गए…… शायद अंदरूनी चोट थी क्योंकि बाहर से तो एक खरोंच भी नज़र नहीं आ रही थी । उसी समय पड़ोसी केशव जी चीख पुकार सुनकर बाहर आए और उनका बड़ा बेटा उन्हें तत्काल अस्पताल लेकर पहुँचा , जहाँ उन्हें आई० सी० यू० में भर्ती कर लिया गया और शायद कल से वेंटिलेटर पर हैं ।
मैं कह ना रही थी माँजी…अजीब सा लग रहा है….. बार-बार रोने का मन करता है….. ये तो अभी ऑफिस पहुँचे भी नहीं होंगे….. फ़ोन करके बता दूँ ?
हाय इतनी बड़ी बात हो गई , चार दिन से मेरा बच्चा मौत के मुँह में है और सुदेश ने हमें बताना भी ज़रूरी नहीं समझा ….. चल जल्दी उठ मैं और तू ही चल पड़ते हैं…………जैसा भी है , बेटा तो है……..जी तो ऐसा खट्टा कर दिया दोनों ने कि देखने को भी मन नहीं करता पर माँ का कलेजा है……गोल्डन अस्पताल वैसे तो अच्छा ही बताते हैं
दोनों सास-बहू अस्पताल पहुँची और रिसेप्शन पर नाम बताकर कमरे इत्यादि की जानकारी लेकर जैसे ही लिफ़्ट की तरफ़ मुड़ी तो स्वीटी मिल गई——
स्वीटी…. पापा कैसे हैं ?
दादी और चाची पर नज़र पड़ते ही स्वीटी की आँखों में पानी भर आया——
पा…पा…. को होश ही … नहीं आ रहा, डॉक्टर… कुछ बता नहीं रहे ….. आज तो मम्मी सुबह से रोए जा रही है….. दादी….
ना यूँ जी छोटा नहीं करते ….. ठीक हो जाएगा तेरा पापा …. डॉक्टर से बात करेंगे…. इन्हें समझ ना आएगी तो दूसरे अस्पताल में ले चलेंगे…..तू कहाँ जा रही अब ?
मैं तो रिम्पी और लवली को लेकर घर जा रही हूँ, चार दिन से तो यही थे पर आज मम्मी कह रही कि इन दोनों को घर छोड़ आऊँ….. केशव बाबाजी के घर सो जाएगी या……
रूक जा …… हमारे साथ चल पड़ना…. चल अपने पापा के पास ले चल ।
स्वीटी दादी और चाची को लेकर आई० सी० यू० की तरफ़ चली गई वहाँ फ़र्श पर एक पुरानी सी चादर पर बड़ी बहू सुदेश बदहाल सी बैठी थी । सास को देखकर खड़ी तो हुई और बोली— कहीं से पता लगा होगा …. हाँ, बस पैर फिसला और बेहोश हो गए ….इन डॉक्टरों का क्या कहूँ……
कब देखकर गया डॉक्टर ? नीलम ! राजन को फ़ोन करके बुला…. इनसे बात ना संभल रही तो दूसरे डॉक्टर को दिखा लेंगे ।
चार दिन से यहाँ हो ….. यूँ कभी ना सोचा कि माँ को खबर कर दूँ …. नौ महीने पेट में रखा ….. कहीं पेड़ पे से तोड़कर ना लाई थी ….. बताओ….. तीन-तीन जवान लड़कियों को यहाँ लिए पड़ी….. ऐसे में तो किसी दुश्मन से भी मदद माँगों तो वो भी मना ना करेगा ।
नीलम ने बातों का रुख़ मोड़ते हुए कहा— माँजी…. इनका फ़ोन नहीं लग रहा है । थोड़ी देर में फिर करूँगी ।
पर माँ का दिल ….. नीलम की कोशिश के बावजूद भी उनके मन की पीड़ा शब्दों के द्वारा प्रकट होने से नहीं रुक रही थी—
पंद्रह साल हो गए….. राम- लक्ष्मण जैसे- भाइयों की जोड़ी को दुश्मन बना दिया । मैं ही जानती हूँ…. कैसे- कैसे करके मैंने अपने बच्चों को पाला ….. चार दिन से पड़ा मेरा बच्चा….. क्या ब्याह के बाद माँ का अधिकार ख़त्म हो गया ….. सारे फ़ैसले ये ही करेगी ….
माँजी… ये अस्पताल है …. बाद में बात कर लेना ….इनसे बात हो गई है…. बस आधा घंटे में पहुँच रहे हैं ।
नीलम ने दुबारा सास को धैर्य बरतने के लिए कहा । राजन के पहुँचते ही माँजी के दिल का दर्द आँखों से बह चला …. आज बाहर से कठोर और कर्कश दिखने वाली माँजी छोटे बेटे को देखकर भावुक हो गई——
राजन , बचा सकता हो तो बचा ले अपने भाई को ….पर मेरा मन क्यूँ बुरा सोच रहा है…. बेटा , बुरे-बुरे ख़्याल आ रहे हैं ।स्वीटी ! रिम्पी और लवली को लेकर चाची के साथ घर जा …
बातचीत करने पर राजन को ऑफिस में काम करने वाले एक कर्मचारी का भाई मिल गया , जो उसी अस्पताल में एक्स-रे विभाग में कार्यरत था ….. राजन ने उससे बात की ….. कुल मिलाकर नतीजा शून्य ही रहा ….. केवल इतना पता चला कि अगर परिवार वाले दूसरे अस्पताल में ले जाना चाहते हैं तो वे ही ज़िम्मेदार होंगे ।
होनी को कौन टाल सकता है…. उसी रात दो बजे के क़रीब अस्पताल वालों ने राजन को बुलाकर राजेश का पार्थिव शरीर सौंप दिया तो वह लड़खड़ा गया ।
माँ और भाभी को कैसे कहे , क्या कहे , वह तो अभी इस बात को भी स्वीकार नहीं कर पा रहा था कि चार दिन से भाई बेहोश पड़ा है और अब एक नई स्थिति…..
आई० सी० यू० से बाहर निकलते ही भाभी पर नज़र पड़ते ही उसका धैर्य टूट गया…. भा….भी….. में…रा..भाई ……
पता नहीं…. सुदेश तक उसकी आवाज़ पहुँची या नहीं पर ज़मीन पर लेटी जवानी में ही विधवा हुई माँ राजन की आवाज़ सुनते ही बिलख उठी—- हाय राम ! ये तूने क्या किया भगवान……. सुदेश! लुट गई तू ….. हे प्रभु! तीनों लड़कियों पर तुझे दया ना आई ….. मेरे राजेश….
सुदेश ने तो कल्पना भी नहीं की थी कि ऐसा भी हो सकता है….. राजेश का अंतिम संस्कार कैसे हुआ, किसने किया , मेहमानों की व्यवस्था कैसे हुई, बेटियाँ किस हालत में है…. उसे कोई सुधबुध नहीं थी । बस आँखों के सामने अँधेरा था ।
आज राजेश को गए तीसरा दिन था । अभी-अभी नीलम अपनी जेठानी को चाय का कप पकड़ा कर गई थी । सुदेश दीवार से कमर लगाए बैठी सोच रही थी—-
बीस साल पहले उसकी गोदी में स्वीटी थी जब देवर राजन का विवाह हुआ था । तीन साल बाद ही देवरानी नीलम के पैर भारी हो गए और वह भी दुबारा माँ बनने वाली थी । किस तरह वह लड़के के लिए पागल हो रही थी । यह पता लगते ही कि वह दुबारा माँ बनने जा रही है….. उसने कहाँ-कहाँ पूछना शुरू नहीं कर दिया था कि उसका होने वाला बच्चा लड़का है या लड़की….. उधर नीलम बेफ़िक्री से रह रही थी । अक्टूबर में सुदेश की डिलीवरी थी और नवंबर में नीलम की….. अक्सर सुदेश प्रार्थना करती——
भगवान! मेरी गोद में बेटा देना । नीलम के बेटी …. नहीं तो इसकी कद्र बढ जाएगी । जबकि सास ने कभी इस तरह की कभी कोई बात ही नहीं की पर सुदेश को लगता कि बेटों वाली माँ का रुतबा ही अलग होता है….
निश्चित समय पर सुदेश ने जुड़वां बेटियों को जन्म दिया और बीस दिन बाद नीलम ने जुड़वां बेटों को….. बस पहले से ही देवरानी से कटी-कटी रहने वाली सुदेश उसी दिन से देवर-देवरानी और उनके बेटों की जानी दुश्मन बन गई । हर बात पर कलह, हर बात पर झगड़ा…. बिन हुई बात बना देना ।
सास ने कई बार समझाने की कोशिश की——
सुदेश, इस स्वर्ग जैसे घर को नरक मत बना …. पछताएगी । हम पाँच बहनें हैं और उस जमाने में हमारी माँ ने कभी हमारे सामने लड़का-लड़की का ज़िक्र तक नहीं किया …. अब तो भला , लड़कियाँ कहाँ की कहाँ पहुँच रही हैं । ये भी बेचारी अपराध बोध से भरी रहती हैं….
पर माँ को सबसे ज़्यादा दुख और हैरानी तब होती जब राजेश भी पत्नी की हाँ में हाँ मिलाता , बेवजह राजन के बेटों को दुत्कारता …. उसी समय राजन की नौकरी चली गई, जिस कंपनी में वह काम करता था वह बहुत घाटे में चल रही थी इसलिए एक महीने के नोटिस पर कंपनी को बंद कर दिया गया। ऐसे में जब एक दिन राजेश और सुदेश ने कहा—-
हमने इन्हें पालने का ठेका नहीं ले रखा …. चार-चार खाने वाले… सारा दिन बेटों के मुँह पर दूध का गिलास लगाए रहते … जब पालने की औक़ात नहीं थी तो पैदा क्यों किए …..
माँजी …. तुम भी इनके मुँह में ठूँसने में लगी रहती हो ….. तुम तो चाहती हो कि मेरा वंश ही ख़त्म हो जाए ….. मरते भी नहीं ये…..
बस ये शब्द माँ जी के दिल पर जा लगे और वे उसी दिन राजन और नीलम के साथ पीछे की गली में बने एक कमरे के पुराने ख़ाली अपने ज़मीन के टुकड़े में रहने चली आई ।कुछ हफ़्तों के बाद राजन को नई नौकरी मिल गई और ज़िंदगी पटरी पर आने लगी ।
कहते हैं कि वक़्त बीत जाता है पर बात याद रह जाती हैं । आज सुदेश को वे सारी बातें याद आ रही थी । उसे ऐसी एक भी घटना याद नहीं आती थी कि जब नीलम और राजन की गलती हो ….. इस बात को उसका अंतर्मन बख़ूबी जानता था ।
माँ जी ने खुद को भी और राजन तथा नीलम को भी अच्छी तरह समझा दिया था कि जो अपना तिरस्कार करें , उनसे खुद ही दूर हो जाना चाहिए । पहले तो कभी कभार माँजी बच्चियों के लिए खाने -पीने का सामान भेज देती थीं पर जब एक दिन पुरानी पड़ोसन ने कहा—-
राजेश की मम्मी, क्यों भेजती हो तुम वहाँ कुछ भी…… मोहल्ले में खड़ी होकर सुदेश बोलती है कि दूर जाने पर भी पीछा नहीं छोड़ते, कुछ न कुछ मिलाकर खाने को भेजते हैं……
बस तब से संबंध पूरी तरह से ख़त्म हो गए । सारी बातें सुदेश के दिमाग़ में घूम रही थी और आँखों से आँसू बहते जा रहे थे । पिछले दो सालों से तो मायके में भाई के साथ भी मनमुटाव चल रहा था, राजेश की मौत पर भाई-भाभी बस औपचारिकता वश आए ।
तेरहवीं तक राजन और नीलम ने सारा बंदोबस्त इस तरह से किया कि देखने वाले को पता ही नहीं चला कि ये दोनों भी बरसों बाद इस घर में आए हैं । सारे मेहमानों के जाने के बाद , हर रोज़ की तरह नीलम -राजन के जाने के बाद माँ जी ने पोतियों की मदद से थोड़ी रसोई की व्यवस्था की , ब्रहमभोज के बाद का बचा सामान डिब्बों में डाला , स्वीटी के साथ बैठकर बैंक में काम करने वाले अपने भतीजे के बेटे के साथ बात करके अकाउंट आदि की जानकारी ली तो पता चला कि अकाउंट में मात्र पाँच लाख रुपये हैं । घर के ऊपर का मकान किराए पर दिया है । ख़ैर अपनी तरफ़ से वो जितना जानती थी, बता दिया ।
अगले दिन सुबह चाय पीकर माँजी बोली—-
सुदेश! जा रही हूँ , देखकर चलना । जो होना था, हो गया……
इतना कहते ही उनका गला भर आया , इस घर की बड़ी बहू को कितने प्यार से लेकर आई थी पर इसी बहू के रवैये ने …..
तभी सुदेश ने पीछे से माँजी का हाथ पकड़कर रोकते हुए कहा—-माँ…..जी ….. मैं बिल्कुल अकेली रह गई, यहीं रुक जाओ मुझे सहारा रहेगा ।
माँ जी का मन किया कि बहू के पास ही रुक जाए पर उन्होंने अपनी भावनाओं पर क़ाबू करके कहा—
आती रहूँगी, बस एक बात कहना चाहती हूँ कि तेरे देवर-देवरानी हीरा हैं ….. आगे तेरी मर्ज़ी ।
दरवाज़े के बाहर पैर रखने ही वाली थी कि नीलम और राजन आते दिखे——
अरे बेटा ! तुम दोनों यहाँ, ऑफिस नहीं जाना ….. और तुम्हें बच्चों को स्कूल नहीं भेजना ?
माँ जी, हम यहाँ इसलिए आए हैं कि भइया के बाद जीवन को नए सिरे से… नई ज़िम्मेदारी के साथ चलाना है तो भाभी ….. रिम्पी और लवली आकाश और अर्जुन के साथ उनके रिक्शे में ज़ाया करेंगी और स्वीटी को मैं ऑफिस जाते समय कॉलेज छोड़ दिया करूँगा ।
भाभी….. तैयार हो जाना ग्यारह बजे तक …. भइया के बॉस का फ़ोन आया था….. वे आपको कुछ न कुछ कार्य देने की बात कह रहे थे…… वैसे ज़बरदस्ती नहीं है…. आप मजबूरी मत समझना….. आकाश और अर्जुन की तरह स्वीटी , रिम्पी और लवली मेरी ज़िम्मेदारी है ।
हमेशा कैंची की तरह ज़बान चलाने वाली सुदेश आज चुप थी क्योंकि जिन देवर-देवरानी की चार दिन की रोटियाँ उसे भारी हो गई थी, आज वे खुद उसकी बेटियों को अपनी ज़िम्मेदारी समझ रहे हैं ।
माँ जी….. यहीं आ जाओ , सब मिलकर रह लेंगे……
नहीं भाभी……..जैसा चल रहा है, ठीक है । रहेंगे तो अलग-अलग ही ….. पर हमेशा हमें अपने आसपास ही पाओगी ।
कुछ ही दिनों में सुदेश को पति के ऑफिस में उसकी योग्यता के आधार पर एक क्लर्क की नौकरी मिल गई , रसोई चलाने लायक़ तनख़्वाह मिलने लगी । बच्चों में भी प्रेम सहयोग की भावना बढ़ी …… जिन बच्चों के लिए एक दिन राजेश ने “ मरते भी नहीं “ शब्दों का प्रयोग किया था , आज उन्हीं बच्चों का मुँह बड़ी माँ , बड़ी माँ कहते नहीं थकता ।
शिक्षा पूरी करने के बाद जिस दिन स्वीटी का विवाह हुआ उस दिन सुदेश हर किसी से कहती फिर रही थी—-
भगवान! मेरे जैसे देवर-देवरानी सबको मिले …. मैं तो क़िस्मत वाली हूँ ……
दूर बैठी माँ जी जानती थी कि राजन की हर ज़िम्मेदारी निभाने के पीछे मेरी नीलम की समझदारी है ….. उसे अपने माता-पिता से ऐसे संस्कार मिले जो दोनों परिवारों की इज़्ज़त रखना जानती है । काश! मेरा राजेश भी होता और अपने परिवार के बीच हँसता- खेलता ।
करुणा मलिक