कशमकश ( भाग 2)- पूनम अरोड़ा

वह पाँच बजे तक ऑफिस से आ जाता जबकि अनिकेत के आने का तो कोई वक्त  ही नहीं था। उसे रिया के साथ बिताने को काफी समय मिल जाता था । वह उसके साथ उसकी बचपन की बातों , सहेलियों ,काॅलेज के जीवन की , उसकी रूचियों की बातें  कुरेद कुरेद कर पूछता। उसे पेंटिग्स   बनाने का शौक था। वह उसकी इस कला की खुले मन से सराहना करता । उसे इस दिशा में  आगे बढ़ने को प्रोत्साहित  करता ।उसने स्टोर रूम में बंद पडी उसकी पुरानी पेटिग्स  को निकलवाया, उन्हें साफ करके उसे लाॅबी  में लगवाया । उसकी इस कोशिश ने मानो रिया के जीवन को एक नई सकारात्मक ऊर्जा  से भर दिया ।

वह उसके इस शौक को पुनर्जीवित  करने के लिए उसके साथ बाजार जाकर पेंटिग्स  बनाने  का जरूरी  सामान भी ले कर के आया ।

वह उसके बनाए खाने और व्यंजनों की तारीफ करता नहीं थकता जबकि अनिकेत ने कभी खुलकर उसकी तारीफ नहीं की ।अब वह दुगुने  उत्साह  से यू ट्यूब से नए नए व्यंजन बनाना सीखने लगी  और वह  भी उतने ही उत्साह  से उसका मनोबल  बढ़ाता ।

इसके अलावा भी वह अपने ऑफिस के मजेदार किस्से सुनाता । चटखारे ले लेकर लड़कियों के अपने पे फिदा  हो जाने की कहानियाँ  सुनाता ।

वह रिया से कहता “भाभी अपनी तरह ही हसीन और जहीन लडकी हमारे लिए भी ढूँढ दो तो हमारी भी लाइफ सैट हो जाए। भैय्या कितने लकी हैं  कि उनको आप जैसी पत्नी मिली ।काश हमारा  भी ऐसा  भाग्य  होता ।”

फिर जानबूझकर  देवदास की मुद्रा  बना  के  कहता 




कुछ  ख्वाब और सपने तो अधूरे ही रह जाते हैं 

काश और  अगर  सबके  कब  पूरे  हो  पाते हैं 

और फिर  उसकी ऐसी शायरी सुनकर दोनों  खिलखिला  के हँस पड़ते ।

रिया उसकी बातों में खुश भी थी और उसके व्यक्तित्व से प्रभावित भी । जिस घनिष्टता की उसे अनिकेत में तलाश थी उसकी पूर्ति मनन द्वारा हो रही थी । मन का खाली पडा उपेक्षित कोना अब भरा भरा सुवासित हो गया था ।

वह उसके सामीप्य में बेहद प्रसन्न रहती और उसकी अनुपस्थिति में उसका इंतजार करती ।

यदि उसे आने में कुछ देर हो जाती तो बार बार समय देखती, बाॅलकनी में जा जा के बाहर सडक पर झाँकती। उसके आने के बाद समय

व्यर्थ  नष्ट  न हो इसलिए वो चाय के साथ के लिए कुछ स्नैक्स उसके आने से पहले ही  तैयार  कर लेती ।

अनिकेत भी उसे इस तरह खुश देख के हैरान था ।इसका कारण उसने यही समझा कि मनन के आने से उसे कम्पनी मिल गई हैऔर उसका मन लग गया है इसलिए  उसने मनन को स्पष्ट कह दिया कि “जब तक तुम्हारी देखभाल करने वाली आ नहीं जाती तब तक तुम यहीं रहोगे 

अगर तुम्हें इस घर से मुक्ति पानी है तो फिर पहले  शादी करनी पड़ेगी ।”

मनन ने हँसते हुए कहा कि यदि “यहाँ से मुक्ति पाने के लिए मुझे आजीवन कारावास का दंड भुगतना पडेगा तो मैं यहीं ठीक हूँ ।” 

रिया ने भी राहत की साँस ली कि अब मनन यहीं  रहेगा ।

लेकिन यह  राहत उसकी चाहत बनकर उसे आहत कर देगी यह उसे नहीं पता था । रिया ने महसूस किया कि मनन के प्रति उसका आकर्षण अब धीरे धीरे आसक्ति में बदलता जा रहा है । वह पहले उसके व्यक्तित्व से प्रभावित  ही थी लेकिन अब उसके सम्मोहन के वशीभूत होती जा रही थी। अपने मन को नियन्त्रण में रखने में वह स्वयं को असमर्थ पा रही थी।

उसे स्वयं पर इतना विश्वास तो था ही कि मनन के प्रति यह अनुभूति बेशक उसके मन को कितना ही  स्पंदित, उद्वेलित न कर  दे वह इसे अभिव्यक्त नहीं  करेगी  और न ही अपनी  मर्यादा का ह्वास  करेगी  यहाँ  तक कि मनन को भी इसकी भनक नहीं लगने देगी क्यों कि जिस प्रकार हर अभिव्यक्ति अनुभूति को प्रतिरूपित नही करती उसी प्रकार हर  अनुभूति भी अभिव्यक्त नहीं की जा सकती । 

वह मनन को एक सुखद सपने को आँखों में तो बसाए रखना चाहती थी किन्तु उस सपने को साकार नहीं करना चाहती थी।




उसका दिल जो चाहता था उसमें  उसकी खुशी थी किन्तु उसका विवेक उसके दिमाग के साथ था जो किसी अन्य पुरूष की ओर आकृष्ट होने को गलत समझता । उसका दिल उसके काबू में नहीं था लेकिन उसका दिमाग विवेक के चाबुक  द्वारा  उसके बेकाबू होते जा दिल के घोड़े पर अपनी लगाम कसे हुए था। 

दिल और दिमाग की इस लडाई में वह अपनी सामान्य जिन्दगी, हँसी खुशी,  मन की  शांति सब खोती जा रही थी । 

जब उसके मन में  मनन के लिए कोई ऐसा भाव नहीं था वह कितने मुक्त मन से उसके साथ हँसती बोलती, मस्ती करती थी किन्तु मन में आसक्ति उत्पन्न होते ही वह उससे नजरें चुराने लगी। उसका मन जितना ही मनन के पास भागता वो स्वयं उससे उतना ही दूर भागती।

उसे यह भी डर था कि  कहीं मनन उसकी आँखों  या चेहरे को पढ़कर उसके मन के भावों की थाह न पा जाए। अब वह मनन के आने पर खुद को या तो रसोई  या अन्य  कामों  में  व्यस्त रखती  या तबियत का बहाना बनाकर  कमरे  में  ही रहती । 

ऐसी मन मंथन की स्थिति  ने उसे तनावग्रसात और अवसादग्रस्त कर दिया था  ।

उसने मनन के आने के पहले और अभी की स्थिति  में  तुलना की तो पहले की स्थिति को ही बेहतर पाया जिसमें नीरसता और अकेलापन  तो था किन्तु  मन की शांति  और सुकून था ।अब इतनी दुविधा  ,व्यग्रता और बैचैनी है जिसमें  मन की शांति की कोई जगह नहीं  थी ।

मनन को ये सब परिवर्तन  अजीब  लग रहे थे उसने उससे वजह जानने की भी कोशिश की किन्तु  कोई संतोषजनक  उत्तर  नहीं  मिला ।उसने सोचा कि हो सकता है कि अनिकेत और उसकी कोई  ऐसी आपसी बात हो जिसे वो उसके साथ शेयर न करना चाहती हो इसलिए  उसने  भी जानने की अधिक जिद नहीं  की ।

  घर से  अचानक  बुलाए जाने पर तीन चार 

दिन की छुट्टियाँ मनन लेकर  अपने घर गया था आया तो बहुत खुश था । मिठाई का डिब्बा रिया को देते हुए  कहा  कि “भाभी मुझे  तो पता ही नहीं  था कि मम्मी  ने मुझे इतना अर्जेन्ट क्यों बुलाया है। दरअसल  उनकी सहेली की बेटी मेघा किसी इंटरव्यू  के सिलसिले में लखनऊ आई हुई थी और वह उन्हें  बेहद पसंद थी । बस उसी को देखने मुझे वहाँ  बुलाया था ।मैं  तो अभी शादी के लिए मानसिक रूप से तैयार भी नहीं था लेकिन मेघा  से मिल कर इंकार करने  की कोई  वजह भी समझ नहीं  आई । सुन्दर ,आकर्षक,  सुशिक्षित,  स्मार्ट  फैशन डिजाइनर है वो। इन सबके अलावा वो घर में  ऐसे मिक्स अप थी जैसे वहीं  की सदस्य  हो । उससे बात करके मैं बहुत ही प्रभावित हुआ  और सच कहूँ  तो दिल हार बैठा उस पर ।

मेरे हाँ करते ही मम्मी ने उसके पैरेन्टस को बुलाकर मेरी एक छोटी सी रोका  रस्म भी कर दी। अगले महीने की अठारह तारीख को शादी भी है ।सब तैयारी आप को ही करनी है भाभी” 

मनन अपनी रौ में बोले जा रहा था और रिया को ऐसे लग रहा था कि कोई प्रिय वस्तु उसके हाथ से फिसलती जा  रही है लेकिन साथ साथ उसे यह भी  महसूस  हो रहा था कि  उसके सिर से मानो मनों बोझ उतर गया हो ।

आज   आत्म बोध और विवेक ने एक पथप्रदर्शक शिक्षक की भूमिका निभाते हुए उसे उसे उस राह पर जाने से बचाया जिस पर चलने से वह स्वयं तो जीवन भर अपराध बोध से ग्रसित रहती बल्कि तीन ज़िन्दगियाँ भी तबाह हो जातीं ।

जो भी हुआ अच्छा ही हुआ बेशक उसके मन  में  अब खालीपन और रिक्ति जरूर  भर गई है

कुछ खुशनुमा  एहसास जरूर  बिखर गए हैं   लेकिन कम से  कम मन के भटकाव  की  कशमकश की  दुविधा से  तो उसे  मुक्ति  मिल  ही जाएगी और  अंततः मर्यादा का मान भी रह गया ।

#मर्यादा

स्वरचित——- पूनम अरोड़ा

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3 thoughts on “कशमकश ( भाग 2)- पूनम अरोड़ा”

  1. पति अगर पत्नी की इच्छाओं को पूरा करने के प्रति जागरुक
    ही न हो तो पत्नी बेचारी क्या करे? भारतीय समाज में पली होने के कारण वह दूसरे के प्रति आकर्षित होकर भी अपनी सीमा का उलंघन नहीं करती। इसके लिए उसे कितना अपना मन मारना पड़ता है। यह स्त्री ही समझ सकती है। मनुष्य नहीं। काश, मनुष्य भी पत्नी के जज्बातों की ओर ध्यान दे सकें
    जिससे वे भी अपने गृहस्थ जीवन में सुकून पा सकें ।

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  2. Kbhi kbhi kisi ke sath hote hue bhi insan bhut akela ho jata h aur wo akela pan use andr hi andr khane lgta h lekin us akele pan ko kaise koi dur kre kyuki kbhi kbhi ye bhi hota h ki jis insan ke hone se hm apni puri zindagi Khushi se hi lenge usi insan ke sath kbhi kbhi taklif aur ghutan bhi hoti h aur usse dur Jane pe bhi taklif hoti h tb koi kya kre

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  3. मन का क्या मन अत्यंत चंचल है इस, जो सात्विक है मन जी कोई चल नहीं वहां यह होता है फिर भी सामाजिक समझदारी और नैतिक जिम्मदारी यही सिक्षा देती है, प्रेम रूप से नहीं गुणों से किया है ,जब प्रेम करें तो कोई अपराध हो ,इस बात बोध होना नितांत आवश्यक हैं ,
    कहानी सीक्षा प्रद थी,
    प्रेम का खालीपन उम्र भर उदासीनता ही दिखाता है, फिर प्रेम किसी से क्यों न हो ,वह प्रेम फलीभूत न हो तबक इस्थिति में,
    साधुवाद…!

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