काम पर जाते हुए करुणा जैसे ही गली के मुहाने पर सखाराम हलवाई की दुकान के सामने से निकली,
उसके कानों तक फुसफुसाता हुआ एक स्वर पहुंचा, “-लो..निकल पड़ी करमजली! लोक लाज को तो घोल कर पी गई है..”
वह स्वर से ही पहचान गई कि ये सखाराम की पत्नी केतकी का स्वर था जो उसे दुकान के सामने से गुजरता देखकर दुकान पर मिठाई लेने आई निर्मला ताई को कुहनी मारकर उसकी भर्त्सना करके असीम सुख का रसपान कर रही थी। परंतु उसने कुछ प्रत्युत्तर नहीं दिया और चुपचाप काम पर निकल गई। अब तो यह प्रतिदिन की ही बात हो चली थी। उसे कोसने, उसकी निंदा करने, उसकी भर्त्सना करने में जैसे पूरा मोहल्ला एक हो गया था।
रात को बच्चों को खाना खिलाने के बाद दोनों बच्चों को आजू-बाजू सुला कर वह बीच में लेट कर दोनों को अपने बाहों में समेटे थी। बच्चे सो चुके थे परंतु उसकी आंखों से नींद भी जैसे खुशियों की तरह ही बैरन हो चली थी। अनगिनत विचारों की संदूकची उसके मन में खुल गई थी।
कितना प्यारा हंसता खेलता परिवार था उसका। अमित कस्बे के ही विद्यालय में अध्यापक था। वह अमित और दोनों बच्चे… बहुत प्यारा हंसता खेलता परिवार था उनका। परंतु उनका यह परिवार पता नहीं किसी कुदृष्टि की चपेट में आ गया। एक दिन अमित रात में सोया तो सोया ही रह गया। सुबह करुणा ने चाय बनाई तो उसे कई बार पुकारा पर उसकी ओर से कोई प्रत्युत्तर न पाकर जब उसने उसे हिला कर
जगाने के लिए हाथ बढ़ाया तो उसके शीत हुए शरीर को छूते ही वह कुछ भी अमंगल हो जाने के भय से कांप उठी। वह बदहवास सी दौड़कर पड़ोस में रहने वाली रमा ताई को बुलाकर लाई। उसका चीखना चिल्लाना सुनकर और लोग भी जमा हो गए। आनन फानन में किसी ने डॉक्टर को भी बुला लिया।
डॉक्टर ने जांच के बाद उसे मृत घोषित कर दिया। क्षणांश में जैसे करुणा का भाग्य आकाश से पाताल में पहुंच गया। उसके सपनों का शीश महल खंड-खंड होकर शून्य में विलीन हो गया।
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वह विक्षिप्तों सी विलाप करने लगी। तभी दोनों बच्चे भी आकर उसके पांवों से लिपट गए। उसने कस कर दोनों बच्चों को अपने वक्ष में भींच लिया। दोनों बच्चों को वक्ष से लगाते ही जैसे उसकी चेतना जाग पड़ी… ” ” नहीं…उसे हारना नहीं है.. अब उसे अपने बच्चों के लिए जीना है, और उनके लिए एक ठोस अवलंबन कर रहना है उन्हें सहारा देना है…” अंतस्तल की सारी शक्ति समेटकर वह उठ खड़ी हुई।
नियत समय पर सारे क्रिया कर्म जब निबट गए, तो करुणा ने प्रयास करके अमित के विद्यालय में ही एक छोटी सी नौकरी प्राप्त कर ली। और जैसे ही उसका काम पर जाना शुरू हुआ, साथ ही लोगों के ताने और व्यंग्यबाण उसके साथी बन गए। जितने मुंह उतनी बातें…..
“-पति को गुजरे हुए महीना लगा न लगा है कि महारानी जी चल पड़ी अपनी रासलीला रचाने। अरे कम से कम कुछ दिन तो सबर कर लेती
.. पति के पैसे तो मिले ही होंगे.. उन्हीं से कट जाती जैसे तैसे जिंदगी…”
“- अरे नहीं… आजकल के जमाने में सबको मौज मस्ती चाहिए… दस लोगों से मिलें.. हाहा हीही करें… गुलछर्रे उड़ाएं.. यह बेशर्मी इन्हें बहुत भाती है..मर्यादा नाम की तो कोई चीज ही नहीं रह गई है…. जाने दो हमें क्या करना है…..”
“- हुंह.. करमजली कहीं की….”
उसके कानों तक भी पहुंचती थी यह सब बातें…. उसका हृदय विदीर्ण हो जाता था परंतु अपने बच्चों का मुख देखकर हिम्मत कर पुन: कमर कसकर तैयार हो जाती थी सब कुछ झेलने के लिए…
मगर अब उसने भी सोच लिया था कि वह अब किसी भी बात को कोई महत्व नहीं देगी और अपना जीवन अपने हिसाब से जीएगी। यही सब सोचते सोचते कब सुबह हो गई करुणा को कुछ पता न चला। जब भोर की नर्म किरणें खिड़की से होकर अंदर पहुंचने लगीं वह बिस्तर से उठ गई। आज रविवार का दिन था तो घर में ही रहना था और अगले दिन ही दिवाली थी। इस बार पहली दिवाली होगी अमित के बिना…
उसकी आंखें छलछला गईं। ‘ इस बार कहां मनेगी उसके घर दिवाली…उस के घर तो जैसे सदा के लिए अंधेरा हो गया… ‘ …वह खिड़की की जाली पकड़े खड़ी शून्य में बाहर देख रही थी तभी अचानक छोटा पुत्र आकर उसके पैरों से लिपट गया तो उसकी तंद्रा टूटी…
“- मां, कल तो दिवाली है ना हम बाजार कब जाएंगे सारा सामान लाने…” बेटे की बड़ी-बड़ी आंखों में
प्रश्न और त्योहार का उत्साह तैर रहा था…सभी पीड़ाओं से अनभिज्ञ था उसका छोटा सा मन…”
करुणा चित्रलिखित सी खड़ी रह गई.. क्या उत्तर दे इन बातों का… वह इसी उहापोह में थी कि तब तक पुन: पुत्र ने मचलते हुए कहा, “-माँ, पापा दिवाली पर घर तो आएंगे ना…”
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आंदोलित हृदय के झंझावातों को संयमित करने का प्रयास करते हुए करुणा ने स्वयं को कड़ा किया और फिर मुस्कुराते हुए बेटे को गोद में उठा लिया, “-हां क्यों नहीं बेटा, हम जरूर चलेंगे लेकिन इस बार पापा नहीं आएंगे.. तुम्हारे पापा भगवान जी से मिलने गए हैं ना… तो वह वहां से ऊपर से तारा बनकर हमें देखेंगे….” और बहल गया उसका नन्हा सा मन…
शाम को सखाराम की दुकान पर जाकर उसने मिठाई खरीदी। मिठाई देते हुए सखाराम ने लील जाने वाली लिजलिजी दृष्टि से उसे देखते हुए उसकी उंगलियों पर दबाव बनाते हुए मिठाई पकड़ाई! करूणा ने चौंक कर उसकी ओर देखा तो वह ढिठाई से खींसे निपोड़ने लगा।
“- इतनी सी उमर में तुम पर कितना बड़ा दुख पड़ गया है करूणा… कुछ आवश्यकता पड़े तो अवश्य बताना हम तुरंत सेवा में पहुंच जाएंगे।” उसके थुलथुल शरीर से जैसे वासना टपकी जा रही थी।
घृणा से करुणा के मुंह का स्वाद कसैला हो गया। वह कुछ कहने ही जा रही थी कि अचानक फिर से केतकी का स्वर सुनाई दे गया, “- ओफ्फोह संध्या बाती करने जा रही थी और कहां से इस करमजली का मुंह देख लिया…अभी तक तो जीभ से मिठाई का चस्का गया नहीं है… पता नहीं किस यार के दम पर दिवाली मनाने चली है…”
इतना सुनते ही करुणा का आवेग इस बार फूट पड़ा, ” हां दीदी… हूं मैं करमजली…. मिठाई का चस्का नहीं गया है मेरे घर से… और मैं दिवाली भी मनाऊंगी। अगर मेरे जीवन से सुख चला गया है तो क्या मैं अपने बच्चों के जीवन का भी सुख छीन लूं… पर ऐसा मैं कदापि नहीं होने दूंगी चाहे जिसे जो भी बोलना हो वह बोले… उसका तेज स्वर सुनकर दूसरे घरों से भी लोग बाहर निकल आए।
वितृष्णा और क्षोभ से करुणा का मुंह लाल हो गया था… वह आवेश में बोलती चली जा रही थी …
“-चलिए आपसे ही पूछती हूं मैं.. कर दूं मैं अपने बच्चों को आपके हवाले ???
और उसके बाद बैठ जाती हूं शोक मनाने.,.. अब चुप क्यों है.. बोलिए ना खिलाएंगी आप मेरे बच्चों को पाल-पोस लेंगी मेरे बच्चों को….”
अगर नहीं तो इस विषय में बोलने का आपको कोई अधिकार नहीं है.. पति की आकस्मिक और अकाल मृत्यु हो गई इसमें मेरा आया मेरे बच्चों का क्या दोष! वैसे भी जो भी इस दुनिया में आता है उसे एक न एक दिन यहां से जाना ही है। यही इस जीवन का सच है। और जीवन के इस सच को मैंने स्वीकार कर लिया है…. लेकिन जब तक जीवन है इस जीवन को संग्राम मानकर लड़ना है मुझे..
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. मेरे कंधों पर मेरे दोनों बच्चों का दायित्व है जिसे साझा करने के लिए आप में से कोई नहीं आगे आने वाला है इसलिए आप सब जो भी कहे मुझे उस रत्तीभर अंतर नहीं पड़ता…. अपने बच्चों के जीवन के रथ की सारथी हूं मैं और मैं किसी को भी उनका मार्ग अवरुद्ध करने नहीं दूंगी… यह अच्छी तरह से समझ लीजिए आप सब… और हां केतकी दीदी, मुझ पर नजर रखने और मेरी निंदा करने के बदले
आप अपने पति पर ध्यान दें तो वह श्रेयस्कर होगा, जो मिठाई देने के बहाने स्त्रियों को छूकर लार टपकाता रहता है… समझा दीजिए इसे कि मैं कोई निरीह चींटी नहीं हूं जिसे यह पल में मसल देगा… दुर्गा बनकर संहार कर दूंगी..”
करुणा की आंखों से आग बरस रहा था। उसकी बात पर चौंक कर केतकी ने सखाराम की ओर देखा तो सखाराम दृष्टि चुराने लगा। सभी को स्तब्ध, नि:शब्द और लज्जित छोड़कर सिंहनी की तरह करूणा अपने घर की ओर बढ़ गई अपने बच्चों को खुशियों का उपहार देने।
निभा राजीव निर्वी
सिंदरी धनबाद झारखंड
स्वरचित और मौलिक रचना
#यह_जीवन_का_सच_है