Moral Stories in Hindi : ठकुराइन सरस्वती देवी हवेली में प्रसव पीड़ा से कराह रही थी। ठाकुर बलदेव सिंह के इशारे पर स्त्री चिकित्सक विभा रानी को हवेली में ही बुलवा लिया गया था। विभा रानी पूरे लाव लश्कर के साथ हवेली में उपस्थित गईं।
विवाह के चौदह साल के बाद हवेली में किलकारी गूंजने वाली थी। ठाकुर बलदेव सिंह को पूरा विश्वास था कि उनके घर का चिराग उनका वारिस बेटा ही आएगा। इसके लिए उन्होंने कई तरह के पूजा पाठ हवन इत्यादि करवाया था। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। उनके घर गोल मटोल गुलाबी परी अवतरित हुई। ठकुराइन तो इतनी प्यारी बिटिया देख खिल उठी और तभी सोच भी लिया कि इसे पिंकी कहेंगे लेकिन ठाकुर साहब के माथे पर बल पड़ गए।
हँसते खेलते दिन गुजरने लगे.. पिंकी बड़ी होने लगी। लेकिन ठाकुर साहब बस अपनी जिम्मेदारियों तक ही सीमित रहे। उनकी बेटे की चाह ने कभी बेटी को प्यार नहीं करने दिया। अब उनका एक ही ध्येय था कि बेटे के हाथों मुक्ति ना सही.. बेटी का कन्यादान कर मुक्ति के भागी बनेंगे।
पिंकी के बीस साल के होते ना होते ठाकुर साहब ने अपने ही रसूख वाला परिवार ढूँढ़ा। ठाकुर वीरभानु सिंह के इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे सुपुत्र प्रताप सिंह को अपनी पिंकी के लिए पसंद कर विवाह की तारीख दे आए। सरस्वती देवी बिटिया को पढ़ाना चाहती थी.. लेकिन उनकी एक ना चली। उन्होंने इसी बात पर संतोष कर लिया कि परिवार पढ़ा लिखा है… आगे बेटी की किस्मत। सारे रस्मों के साथ शुभ बेला भी आ गई.. बारात द्वार पर आ लगी।
मंत्रोच्चारण के साथ वैवाहिक रस्मों की अदायगी होने लगी। “कन्यादान के लिए वधु के माता पिता आएं”.. पंडित जी ने कहा। जैसे ही पंडित जी ने ठाकुर के हाथ में उनकी बिटिया का हाथ दिया। ठाकुर बलदेव सिंह के हाथ के नीचे एक और हाथ आ लगा। वो हाथ किसी और का नहीं उनके समधी ठाकुर वीरभानु सिंह का था। ठाकुर बलदेव सिंह ने आश्चर्य से अपने समधी को देखा।
ठाकुर तुम्हारा ये अहसान है कि कन्यादान के नाम पर तुम अपने घर की लक्ष्मी हमें सौप रहे हो। हमारा फर्ज बनता है कि हम झोली फैला कर अपनी बिटिया तुमसे माँग लें। इसीलिए तुम्हारे हाथ के नीचे मेरा हाथ है। अब ये कन्यादान नहीं.. हमारी बिटिया को दोनों पिता का वचन है कि कभी उसके साथ कोई अन्याय नहीं होने देंगे और अपने बेटे सा ही उसका मान सम्मान करेंगे साथ ही आत्मनिर्भर बनने में उसके सहायक होंगे। कन्यादान तो एक रस्म है बिटिया के माध्यम से दो खानदान के एक हो जाने का, इसके माध्यम से ही कई रिश्ते जग में आते हैं और लहलहा उठते हैं। ठाकुर बलदेव सिंह को समधी के विचार सुनकर खुद पर शर्मिंदा हो उठे। कहने को तो वो भी खानदानी चरित्र के थे लेकिन लकीर के फकीर बने खानदान को उन्नत करने हेतु ना तो अपनी सोच में समय के साथ बदलाव ला सके और ना ही उसने अपनी बिटिया को एक सन्तान की तरह ही मान दे सके थे। लेकिन ठाकुर वीरभानु सिंह अपने समधी ठाकुर बलदेव सिंह के हाथ के नीचे अपना हाथ लगा खानदान को एक नई परिभाषा से परिभाषित करने की मुहिम छेड़ चुके थे और दो खानदानों को एक सूत्र में बांध कर उन्नति की ओर बढ़ चले थे।
आरती झा”आद्या”
दिल्ली