कलावा – डॉ. ओंकार त्रिपाठी : Moral Stories in Hindi

मां! मैं मेरा नाश्ता सुबह 8:00 बजे तैयार कर देना मुझे बहुत जरूरी काम से बाहर जाना है, कहते हुए स्पर्श अपने कमरे में चली गई। 

कल तो छुट्टी है बेटी। कल  इतनी जल्दी कहां जाना है ? मां ने पूछा पर स्पर्श ने कोई जवाब नहीं दिया। शायद उसने सुना ही नहीं था और अपनी किताबों में खो गई थी।  सुबह की चिंता रात को ठीक से सोने नहीं देती।

स्पर्श पूजा अर्चना करके  सुबह 8 बजे नाश्ते की मेज पर थी और मां उसके लिए गरम-गरम पराठे सेंक रही थी। मैं यमुना विहार जा रही हूं। आज वहां सैनिकों के लिए ब्लड डोनेशन कैंप लग रहा है। मेरी बहुत सी सहेलियां वहां रक्त दान करने जा रही हैं। यह कहते हुए स्पर्श घर से निकल गई। 

स्पर्श खुले विचारों की लड़की थी। सर्वधर्म समभाव उसके मन मानस के मूल में था। हर कोई उसका मित्र था। सपना, आरिफ, शगुफ्ता, जानेफर जैसे कई दोस्त थे। वह 12वीं कक्षा की छात्रा थी, पीसीएम उसका प्रिय विषय था। दिल का डॉक्टर बनकर सबका जीवन बचाना उसका लक्ष्य था। दिल की बीमारी के कारण ही वह अपने बड़े पापा को दो वर्ष पहले खो चुकी थी।

एक बार ब्लड डोनेशन कैंप में रक्त दान करते समय उसकी मुलाकात सलिल से हुई। परिचय घनिष्ठा में बदलकर दोस्ती के रास्ते पर बढ़ने लगा। स्पर्श के विचारों से सलिल के विचारों की ऐसी समानता थी मानो वह स्पर्श के बारे में पहले से सबकुछ जानता हो या फिर सलिल ने स्पर्श के मन मस्तिष्क दोनों को पढ़ लिया हो। स्पर्श के पापा रामगोपाल रेलवे में कर्मचारी थे और मां गृहिणी थी। एक दिन

स्पर्श स्कूल जा रही थी कि  शाहदरा मेट्रो के पास सलिल ने उसे देख लिया था। उसने स्पर्श से पूछ लिया कि तुम कहां पढ़ती हो?

शक्तिनगर में, 

लेकिन इतनी सुबह तुम कहां जा रहे हो? स्पर्श ने भी पूछ लिया।

 मैं कॉलेज जा रहा हूं।  

इतनी सुबह-सुबह?

 हां, कॉलेज में क्रिकेट का टूर्नामेंट है तो सुबह-सुबह  प्रैक्टिस के लिए जाता हूं।

 अच्छा तो क्रिकेटर हो ? 

सलिल ने स्पर्श की बात को बीच में काटते हुए पूछा।

स्कूल अकेले जा रही हो, कोई सहेली साथ नहीं है क्या।

 मैं रोज अकेली ही जाती हूं ?

कैसे ?

मेट्रो से।

 चलो मैं तुम्हें स्कूल ड्रॉप कर देता हूं। तुम्हारा स्कूल तो मेरे कॉलेज के रास्ते में ही पड़ता है। एक दो बार ना नुक्कड़ करने के बाद स्पर्श ने सलिल से लिफ्ट ले ही ली। फिर तो यह आए दिन का ही काम हो गया। समय के साथ-साथ परिचय घनिष्ठता में बदलता रहा। दोस्ती धीरे-धीरे परवान चढ़ने लगी और सलिल को घर तक ले आई। सलिल का अब आए दिन स्पर्श के घर आना जाना शुरू हो गया। 

घनिष्ठता का घनत्व बढ़ाने लगा और स्पर्श के माता पिता अब सलिल के भी माता पिता बनने लगे थे। 

रविवार का दिन था, सलिल स्पर्श के घर पर बैठा बातें कर रहा था। स्पर्श की मां ममता रसोई में स्पर्श और सलिल के लिए पाव भाजी बना रही थी। दोनों को पांव भाजी बहुत पसंद थी।

स्पर्श की मम्मी ने स्पर्श को छत पर रखी हुई गेहूं की बोरी को नीचे लाने के लिए कहा। अपने मोबाइल को चार्जिंग पर लगाकर सलिल भी स्पर्श के साथ ही छत पर चला गया। मोबाइल की घंटी बजी।

अपने फोन की घंटी बजी समझकर ममता ने राम गोपाल से कहा कि देखो किसका फोन है। कमरे से निकलकर स्पर्श के पापा ने झट से फोन हाथ में उठा लिया। फोन की स्क्रीन पर किसी अब्दुल का नाम आ रहा था। 

किसी अब्दुल का फोन है।

कौन अब्दुल? ममता ने अपने पति से पूछा। 

देखता हूं, कहकर जैसे ही राम गोपाल ने फोन उठाया ही था कि सामने से आवाज आई ‘साहिल भाई! मैं अब्दुल बोल रहा हूं। अब्बू की तबीयत बहुत खराब है रहीम चाचा और खाला अब्बू को लेकर डॉक्टर के पास गए हैं।

तू जल्दी से घर आ जा।’ इतना कहते ही अब्दुल ने फोन काट दिया। राम गोपाल को जैसे सांप सूंघ गया था। वे थर-थर कांप रहे थे। इसी बीच स्पर्श और सलिल छत से नीचे आ गए। गेहूं की बोरी कंधे से उतारते हुए

सलिल ने कहा ‘लो मां! आप की गेहूं की बोरी आ गई’। स्पर्श के पिता बहुत ध्यान से साहिल को देख रहे थे। उसके हाथ में बंधा कलावा उसके पहचान की गवाही दे रहा था। स्पर्श के पापा संयम सहेजते हुए बोले –

 ‘साहिल बेटा, तुम्हारे अब्बू की तबीयत बहुत खराब है और अब्दुल ने फौरन तुम्हे घर बुलाया है।’ अचानक अपना असली नाम सुनकर साहिल चौंक गया, राम गोपाल की तरफ देख और झटके से अपना मोबाइल लेकर चुपचाप घर से बाहर निकल गया। स्पर्श और उसकी मां ममता किंकर्तव्यविमूढ़ होकर रामगोपाल की तरफ देख रहे थे। चारों तरफ मौन पसर गया था।

डॉ. ओंकार त्रिपाठी 

शाहदरा दिल्ली,

मैं प्रमाणित करता हूं कि यह मेरी मौलिक लघु कथा है।

डॉ. ओंकार त्रिपाठी

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