कलंक – निभा राजीव “निर्वी” : Moral Stories in Hindi

रात के 9:15 हो रहे थे। आंगन के दरवाजे में खटका होते ही रजनी ने आंगन की तरफ वाली खिड़की खोल कर देखी। विधवा जेठानी वैशाली अंदर घुसी थी और आंगन का दरवाजा बंद कर दिया और अपने कमरे की तरफ बढ़ गई। वितृष्णा से रजनी की भवें टेढ़ी हो गईं..’आ गई महारानी जी गुलछर्रे उड़ा कर…

लाज शर्म को तो बेच खाया है। बच्चे बड़े हो रहे हैं उसका भी कोई लिहाज नहीं है। पता नहीं सुबह सवेरे सज धज कर कहां चली जाती है और रात को भी कहां मुंह काला करके घर लौटती है…थू है!! ‘ .. उसने भड़ाक से खिड़की बंद कर दी।

               कम आयु में ही माता-पिता को एक दुर्घटना में खो देने के बाद अरुण ने ही वरुण को संभाला और पढ़ाई पूरी करते ही उसका विवाह भी कर दिया। इसके कुछ ही समय बाद अरुण और वरुण इसी मकान के दो हिस्सों में बँट गए ताकि कभी किसी भी प्रकार का कोई क्लेश उत्पन्न न हो और अपनी अपनी गृहस्थी में रम गए। लेकिन फिर भी उनके बीच का प्रेम बना रहा।

पर्व त्यौहार या कोई भी अवसर आने पर सभी इकट्ठे होकर आनंद उठाते थे। बड़े भाई अरुण के दो बच्चे थे, 6 साल का चिंटू और 4 साल की पिंकी। और वरुण का अभी डेढ़ साल का एक बच्चा था विनय। वरुण अपने भाई भाभी के साथ बहुत जुड़ा हुआ था और भाभी वैशाली भी उसे पर बहुत स्नेह लुटाती थी। लेकिन उन लोगों का यह लगाव रजनी को कभी फूटी आंख नहीं सुहाता था। 

परंतु 2 वर्ष पूर्व हृदयाघात से अरुण की मृत्यु के पश्चात घर के उस हिस्से में वैशाली अपने दो बच्चों के साथ अकेली रह गई थी। भाई की मृत्यु पर जो राशि मिली वह वरुण ने वैशाली के नाम से बैंक में और फिक्स्ड डिपॉजिट में जमा करा दिया। और उसी के ब्याज से जो थोड़ी बहुत राशि आती थी, उससे वैशाली का गुजारा चलने लगा। 

                 एक बार जाड़ों का समय था। आंगन में रजनी के हिस्से में सुबह अच्छी धूप आ रही थी। वैशाली के बच्चों ने अपनी खाट उधर डाल ली और वहां बैठकर पढ़ाई करने लगे। रजनी घर से निकली तो आग बबूला हो गई, “- ऐसा करो तुम लोग की धीरे-धीरे यह पूरा घर ही हथिया लो…मैं सब समझ रही हूं कि क्या चल रहा है..”

उसके इतनी जोर चिल्लाने पर वैशाली भी चौके से निकल कर बाहर आ गई।

रजनी ने चिढ़कर कहा, ” वाह जीजी.. बच्चों को अच्छी शिक्षा दे रही हो! मैं समझ रही हूं कि तुम्हारे मन में क्या चल रहा है। तुम यह पूरा घर हथियाना चाहती हो ताकि तुम और तुम्हारे बच्चे ऐश का जीवन गुजार सकें। लेकिन कान खोल कर सुन लो.. मैं भी इतनी बेवकूफ नहीं हूं, तुम्हारे मनसूबे कभी सफल नहीं होने दूंगी।”

वैशाली ने आहत होकर कहा, “- कैसी बातें करती हो रजनी! मैं तो कभी ऐसा सोच भी नहीं सकती! तुम और देवर जी तो मेरे बच्चे की तरह हो! मैं भला ऐसा क्यों चाहूंगी.. वह तो इधर अच्छी धूप आ रही थी इसीलिए बच्चों ने इधर खाट लगा ली।”

 रजनी ने होंठ टेढ़े करके कहा, “-बच्चे की तरह और बच्चे होने में फर्क है। जैसी तुम्हारी मंशा दिखाई दे रही है ना.. उसमें तो शीघ्र ही तुम हम लोगों को सड़क पर ले जाकर पटक दोगी… मेरा बच्चा विनय दर-दर की भीख मांगने लगेगा।”

वैशाली की आंखों में आंसू भर गए। उसने दोनों हाथ जोड़ दिए, “- हाथ जोड़ती हूं रजनी.. ऐसी बातें मत करो। मैं किसी का क्या लूंगी.. मेरा तो वैसे ही सब कुछ लुट चुका है..!” 

रजनी ने हाथ नचाकर कहा, “- लुट चुका है इसीलिए तो सब कुछ लूटने के प्रयास में हो।”

वैशाली ने बिना कुछ कहे खाट को खींचकर अपने हिस्से की तरफ किया दोनों बच्चों के हाथ पकड़ कर अंदर चली गई। उसके बाद से वैशाली और उसके बच्चे कभी मकान के इस हिस्से में नहीं आए। 

                   उस दिन रक्षाबंधन था। रजनी का मायका इसी शहर में था तो तड़के ही मायके के लिए निकल गई थी,वरुण से दो-तीन घंटे में आने का बोलकर। विनय अभी सो ही रहा था तो उसने वरुण की देखरेख में विनय को वहीं छोड़ दिया। 

       जब वह मायके से वापस घर पहुंची तो घर पहुंचते ही जो दृश्य उसकी आंखों के समक्ष था उसे देखकर उसका कलेजा धक से रह गया और त्यौरियां चढ़ गईं। वैशाली उसके कमरे से बाहर निकल रही थी। उसके कपड़े भी मुड़े तुड़े हुए थे। रजनी ने आव देखा ना ताव और झपटकर वैशाली के बाल पकड़ लिए…

“- जीजी.. डायन भी सात घर छोड़कर वार करती है! तुम हर रोज बाहर जाकर कहां मुंह काला करती हो, इससे मुझे कोई मतलब नहीं…पर आज तो तुमने मेरा घर भी नहीं छोड़ा! तुमने अपने देवर पर भी डोरे डालने प्रारंभ कर दिए और यहां भी रंगरलियों का सिलसिला प्रारंभ कर दिया!….अरे कुलटा! कुलक्षणी!! ऐसी कौन सी आग लगी हुई है, जो घाट-घाट का पानी पी रही हो।”

 बाल खींचने से वैशाली ने जोर की सिसकारी भरी और तड़प कर कहा, “- ईश्वर के लिए रजनी.. ऐसी बातें मुंह से मत निकालो.. वरुण मेरे पुत्र के समान है.. मुझे इतनी गंदी गाली मत दो.. इतना बड़ा कलंक मत दो!” वैशाली फूट फूट कर रो पड़ी। 

रजनी का स्वर सुनकर वरुण कमरे से बाहर आ गया और वहां का दृश्य देखकर भौंचक्का रह गया।उसने रजनी के हाथ खींचते हुए वैशाली के बाल उसकी पकड़ से छुड़ाए और रजनी पर गरज उठा, “-कुछ होश भी है तुम्हें कि क्या बके जा रही हो… भाभी कुछ नहीं बोल रही है तो उन पर तुम लांछन पर लांछन लगाए जा रही हो और आज तो तुमने हम दोनों को भी नहीं छोड़ा। सच ही सुनना है तो आज तुम भी कान खोल कर सुन ही लो। तुम्हें तो मालूम ही है कि भाई साहब एक निजी कंपनी में काम करते थे

इसलिए उनकी मृत्यु के पश्चात भाभी को अधिक राशि भी नहीं मिल पाई और ना ही कोई काम मिल पाया। और भाभी कम पढ़ी लिखी हैं। उनके पास बड़ी-बड़ी शैक्षणिक डिग्रियां भी नहीं है। और समय के साथ-साथ खर्च भी बढ़ रहे हैं। चिंटू और पिंकी के पढ़ाई के खर्च भी बढ़ते जा रहे हैं। और तुमने तो स्वार्थ में अंधे होकर कभी मुझे एक धेले की सहायता भी नहीं करने दी। जिस भाई ने मुझे सीने से लगा कर पाला, उसके परिवार की ऐसी दुर्दशा देख कर मेरा कलेजा मुंह को आ जाता था।

वह तो क्लेश के डर से भाभी ने अपनी कसम देकर मुझसे कहा कि मैं उन्हें अपने हाल पर छोड़ दूं और तुम इनकी मदद करना तो दूर इनको कभी जली कटी सुनने से पीछे नहीं हटी। जब इनकी तंगी बढ़ने लगी तो इन्होंने कई जगहों पर खाना पकाने का कार्य प्रारंभ कर दिया, जिससे चार पैसे मिल सकें और इसी के क्रम में वह प्रतिदिन बाहर जाती थी और शाम ढले वापस आती थी। लेकिन तुम्हारी आंखों पर तो घृणा की पट्टी बंधी हुई थी… तुम्हें कैसे कुछ दिखाई देता….

लेकिन इतना समझ लो कि अगर आज भाभी नहीं होती तो पता नहीं हमारे विनय को क्या हो जाता। मैं नहाने चला गया था और विनय यहीं आंगन में खेल रहा था कि अचानक उसका पैर फिसला और वह बड़ी जोर से गिरा। गिरने के साथ ही कोने में रखे गमले में उसका सिर लग गया और खून का फव्वारा फूट पड़ा। वह तो भाभी काम पर निकलने लगी तो उन्होंने सब कुछ देख लिया।उन्होंने सब कुछ भूल कर विनय को गोद में उठाया और प्राथमिक उपचार भी दिया। तब तक मैं नहा कर आ चुका था।

फिर हम दोनों इसे लेकर डॉक्टर के पास गए और मरहम पट्टी करवाई। मैं तो बहुत घबरा गया था और तुम्हें शीघ्र आने के लिए फोन करने लगा था किंतु भाभी ने सब कुछ सूझबूझ के साथ संभाल लिया। और समय रहते परिस्थिति नियंत्रण में आ गई।तब से विनय ने कुछ खाया पिया नहीं था तो भाभी ने उसके लिए गरम-गरम खिचड़ी बनाई थी, वह लेकर उसे देने आई थी और वह निकल ही रही थी कि तुमने उनके ऊपर अपनी घिनौनी मानसिकता की वर्षा कर दी।

अरे इतना बड़ा कलंक लगाने से पहले थोड़ा आगे पीछा तो सोच लेती। आश्चर्य होता है मुझे तुम्हारी मानसिकता पर कि एक स्त्री होकर एक स्त्री का दर्द समझ पाने में कैसे इतनी असमर्थ और हृदयहीन हो तुम। घिन आती है तुम्हारी सोच पर..” रजनी ने दृष्टि घुमा कर कमरे के अंदर की तरफ देखा तो विनय के सिर पर पट्टी बंधी हुई थी और विनय सो रहा था। 

                 आत्मग्लानि से रजनी की आंखों से अविरल अश्रु प्रवाह होने लगा। वह स्तब्ध खड़ी वैशाली के चरणों पर गिर गई,..”_ मुझे माफ कर दो जीजी… मैंने तुम्हें कितना गलत समझा! कितने लांछन लगाए और कितने कलंक दिए! आग लगे मेरी जिव्हा को!

आज तुम ना होती तो न जाने मेरे विनय को क्या हो जाता। वैसे तो मैंने ऐसा अपराध किया है जो क्षमा  के योग्य भी नहीं है लेकिन तुम तो बड़ी हो… छोटी बहन समझ कर क्षमा कर दो जीजी! चाहे तो मुझे जूते मार लो लेकिन मुझे क्षमा कर दो…”

वैशाली ने उसे उठाते हुए अवरुद्ध कंठ से कहा, “-रजनी, हर बार जो दिखाई देता है वही सच नहीं होता है… हर कहानी के पीछे एक और कहानी होती है…पूरी सत्यता को जाने बगैर किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना समझदारी नहीं होती है। लेकिन मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है।

तुमने जो भी किया अज्ञानता वश किया।चलो अब आंसू पोंछ कर विनय का ध्यान रखो। मुझे काम पर जाने के लिए वैसे ही बहुत देर हो चुकी है। मैं निकलती हूं। “… वैशाली अपने घर की तरफ मुड़ गई।

   तभी रजनी ने भरे गले से कहा, “- रुको जीजी, पहले विनय पिंकी से राखी बंधवा ले, तब जाना और जाकर उनसे कह देना कि अब तुम कल से काम पर नहीं आओगी। मुझे और वरुण को अगर तुमने क्षमा कर दिया है तो अपनी सेवा का अवसर दे दो जीजी!”

             वैशाली ने भावविह्वल होकर खींचकर रजनी को गले से लगा लिया। अश्रु के साथ कटुता और मलिनता के बहते ही प्रेम के अंकुर पनप गए।

निभा राजीव “निर्वी”

सिंदरी धनबाद झारखंड 

स्वरचित और मौलिक रचना

VM

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