*कलंक धुल गया* – पुष्पा जोशी : Moral Stories in Hindi

  ‘यह क्या पूनम जब देखो या तो कुछ लिखती रहती हो या पढ़ती दिखती हो। पता है……तुम अच्छी लेखिका हो,कहानीकार हो पर ……भाई हम भी तुम्हारे कुछ लगते है..  कुछ हमारा भी ध्यान रखा करो।’ एक मुस्कान बिखेरते हुए अमर ने घर में प्रवेश किया, उसे पूनम को चिढ़ाने में मजा आता था,

और जब पूनम कहती कि ‘जैसे मैं तुम्हारा तो कोई काम करती ही नहीं हूँ,तुम्हारा काम तो जैसे अपने आप हो जाता है। ‘तो वह अपनी बातों से उसे मना भी लेता था, यह रोज की बात थी। आज पूनम कुछ अलग ही विचारों में थी उसकी आशा‌ के विरूद्ध वह बोली-‘ हॉं मैं कहानियाँ पढ़ती हूँ और यह कहानी तो आपको भी पढ़नी पढ़ेगी।’ अमर आश्चर्य से उसका चेहरा देख रहा था, बोला -‘ना बाबा ना यह मुझसे नहीं होगा, यह‌ कहानियों का संसार तुम्हें ही मुबारक हो। ‘

            ‌‌ ‘मत पढ़ो, नहीं पढ़ोगे तो मैं तुम्हें पढ़कर सुनाऊॅंगी।’ ‘अच्छा बाबा सुना देना, पहले अच्छी बढ़िया चाय पिला दो फिर….फिर मेरे  बालों को सहलाते हुए कहानी सुना देना।’  ‘तुम्हारा बचपना कभी जाएगा नहीं।’  एक मीठी सी मुस्कान बिखेरते हुए वह चाय बनाने के लिए चली गई।

अमर सोच रहा था कि पूनम के बिना उसका जीवन कितना नीरस हो जाता। आज दोनों बच्चे पास में नहीं है करूणा उसके ससुराल में मस्त है और नील भी महानगर में सैटल हो गया है। वह कितना खुशकिस्मत है कि उसे पूनम जैसी जीवन संगिनी मिली। पूनम चाय बनाकर ले आई। चाय पीने के बाद वह पूनम की गोद में सिर रखकर लैट गया,पूनम की उंगलियाँ उसके बालों को सहला रही थी और वह उसे सुना रही थी। 

         “उसका चरित्र, व्यक्तित्व और कृतित्व उज्जवल, धवल है। निर्मल मन वाले अमर के चरित्र पर भूल से भी कोई दाग नहीं लग सकता, यह जानती हूँ मैं, फिर भी उसे उस‌ कलंक का भार ढोना पड़ा  जो उसके दामन पर मैंने लगाया था, कलुषित भावना थी मेरी, छी…मैं किसी भी तरह उसे पाना चाहती थी।उसकी हर बात मुझ पर एक छाप छोड़ती थी, मैं उसकी ओर खिंचती जा रही थी  और वह पूरी तरह इससे अन्जान था। हायर सैकण्डरी में वह प्राविण्य सूचि में प्रथम आया था, वह एक अनाथालय में पलकर बड़ा हुआ।

आगे की पढ़ाई के लिए वह ट्यूशन पढ़ाता था। उसकी प्रशंसा सुनकर पापा ने ,उसे मुझे ट्यूशन पढ़ाने के लिए कहा। वह तैयार हो गया, पापा के कहने पर वह मुझे पढ़ाने के लिए घर पर ही आता था।उस समय मैं दसवीं कक्षा में पढ़ती थी, पढ़ने में कोई विशेष रूचि नहीं थी। पर  मुझे पढ़ाने के लिए उसका घर आना, मुझे अच्छा लगता था। उसका रंग- रूप, चाल- ढाल, रहन- सहन,  उसका पढ़ाने का ढंग, चेहरे की गम्भीरता, सौम्यता सब कुछ ऐसा था, कि मैं उसकी ओर आकर्षित होती चली गई। 

रोज अच्छी तरह तैयार होती, उसका इन्तजार करती। मेरा मन कहता, कि वो कभी तो मेरे चेहरे को ध्यान से देखे, मगर उसने कभी नजरे उठाकर मेरी तरफ नहीं देखा। खीज होती थी मुझे, समझ ही नहीं पाती थी, कि मैं क्या करूँ। उम्र कच्ची थी और मन पर मेरा बस नहीं चल रहा था। मैंने दसवीं की परीक्षा पास की फिर ग्यारहवीं की पढ़ाई कर रही थी। अमर रोज मुझे पढ़ाने आता । एक दिन बारिश हो रही थी, वह घर आया, मम्मी पापा घर पर नहीं थे और मेरा मन मेरे बस में नहीं था।

मैंने उसके गले में बाहें डाल दी, वह अचकचा गया।मैंने कहा परेशान मत हो मम्मी- पापा घर पर नहीं है, कभी तो मेरी तरफ देख लिया करो। मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती। हर पल बस तुम्हारा ही खयाल रहता है। यह क्या पागल पन है मोना, यह उम्र है तुम्हारी यह सब सोचने की। पहली बार उसने नजरें उठाकर मेरी तरफ देखा था, उसकी ऑंखें जैसे क्रोध से जल रही है। उसका वह रूप भी पवित्र ही था। पर मुझ पर जैसे पागलपन सवार था, मुझे लग रहा था

कि वह मेरा अपमान कर रहा है, मैं उसे रोकने की कोशिश कर रही थी और वह दरवाजे से बाहर निकलने ही वाला था, कि मेरे मम्मी -पापा आ गए। मैं घबरा गई मन की स्थिति ऐसी थी कि कुछ  समझ ही नहीं आया। मम्मी पापा  को सामने देख मुझे रोना आ गया,उनकी सहानुभूति मेरे साथ देख मैंने एक झूठ गड़ दिया, जिसे सच समझ उन्होंने अमर को बहुत भला बुरा कहा, उसके चरित्र पर लांछन लगा दिया। मम्मी पापा इतने गुस्से में थे कि उन्होंने अमर को बोलने का मौका ही नहीं दिया।

घर से निकाल दिया। वह घर तो क्या शहर छोड़ कर ही चला गया।उसके श्वेत दामन पर मैंने कलंक के छीटे डाल दिए थे। मेरी इस हरकत ने मेरी मुस्कान छीन ली, सारी खुशी छीन ली। एक घाव मेरे दिल पर लग गया था जो नासूर होकर  बहने लगा। न मैं मम्मी पापा को कुछ कह सकती थी, और न कुछ कर सकती थी। उसे पाने की चाहत थी, वह तो सम्भव ही नहीं था उल्टे उसके हृदय में मैंने मेरे प्रति नफरत के बीज बो दिए थे, मैं जानती हूँ वह उजला है

और यह कलंक जो मैंने नादानी में लगाया है जल्दी ही मिट जाएगा ।  पर मेरे दिल पर जो घाव लगा है, मृत्यु पर्यन्त  मेरे साथ रहेगा। यह कलंक मेरे मन पर लगा है और यही कारण है मैंने शादी भी नहीं की। माँ पापा मेरी शादी की इच्छा मन मे लिए संसार से कूच कर गए। उम्र के इस पड़ाव पर असाध्य बिमारी ने भी घेर लिया  है। पता नहीं कब ऊपर वाले का बुलावा आ जाए,मन में बस एक ही ख्वाहिश है अमर से क्षमा मांग लूं, हालाकि न इसकी हिम्मत है, न कोई शब्द है मेरे पास। अमर कहाँ है मैं नहीं जानती,बस इतना पता है वह सोने सा उजला है, और मैं  कोयले सी कलुषित

मोना

         सुनकर अमर सन्न रह गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था। पूनम ने उसके हाथों को थाम लिया तो वह बोला ‘पूनम मैंने तो तुम्हें पहले ही सब बता दिया था। पर क्या तुम…..।’  ‘पर क्या मैं जानती हूँ चॉंद में दाग है,मगर मेरे चॉंद पर तो कोई दाग नहीं है। अमर! कल हम मोना के घर चलेंगे।’ 

‘क्या करेंगे वहाँ जाकर? आज ३५ साल हो गए, उस शहर को छोड़े, उस शहर जाने की इच्छा ही नहीं होती।’

‘मैं तुम्हारी मनोदशा को अच्छी तरह जानती हूँ अमर, तुम्हारी अर्धांगिनी हूँ। मगर साथ ही एक लेखिका भी हूँ, इस आलेख के शब्दों में छुपे भावों को, उसमें छिपी  व्यथा को मैं अनुभव कर रही हूँ। उसने तुम्हारे साथ जो किया गलत था, उसे एक बचपना भी कहा जा सकता है। पर आज उसके शब्दों में जो पछतावा है वह उसके दिल की सच्ची अभिव्यक्ति है। ऐसा न हो कि हम वहाँ न जाए और बाद में हमें पछताना पड़े।’

        दूसरे दिन अमर और पूनम उस शहर में गए,अमर का मन कुछ विचलित हो रहा था। वे उस अनाथ आश्रम भी गए जहाँ उसका बचपन बीता। वहाँ सबकुछ बदला- बदला सा लग रहा था, कुछ पुराने लोगों से मुलाकात हुई। फिर वह मोना के घर गए , मार्ग तो वही था मगर उसके आसपास का परिदृश्य पूरी तरह बदल गया था, ऊँची -ऊँची ईमारते और बड़े बड़े माॅल बन गए थे, इस मुख्य मार्ग को पार करने के बाद एक गली में  मोना का घर था। उस घर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था,

वह छोटा सा गेट उसे पार करने पर एक छोटी सी फुलवारी जो रख-रखाव के अभाव में मुरझा रही थी। दीवारों का रौगन उतरा हुआ था। सब कुछ  वीरान सुनसान लग रहा था। पूनम ने आगे बड़कर डोरबेल बजाई। एक बूड़ी महिला ने दरवाजा खोला, अमर उन्हें पहचान गया था वे मेहरा आण्टी थी जो मोना के घर के पास रहती थी। अमर और मौना ने हाथ जोड़कर अभिवादन किया। उन्होंने आशीर्वाद दिया वे पहचानने की कोशिश कर रही थी, तभी एक दुर्बल सी आवाज सुनाई दी,

कौन है आण्टी। पूनम ने कहा- ‘क्या यह मोना दीदी की आवाज है?’  ‘हाँ बेटा क्षमा करना बेटा मैं पहचान नहीं पा रही हूँ, आप लोग अन्दर आ जाओ।’ वे अन्दर आ गए तो देखा चारों तरफ उदासी पसरी हुई थी,पलंग पर मोना लेटी हुई थी, बहुत ही दुर्बल हो गई थी। ऑंखों के नीचे काली झाइयां हो गई थी।  पास में एक टैबल पर दवाइयाँ और एक जग में पानी रखा था। उसकी हालत देखकर अमर को बहुत दु:ख हुआ। वह कुछ कह नहीं पा रहा था। मैहरा आण्टी चाय बनाने के लिए चली गई थी।

मोना ने धीमी आवाज में कहा ‘कौन अमर… ?  और साथ में शायद आपकी जीवन साथी है।’  ‘हाँ मोना और तुमने अपनी यह‌ क्या हालत बना ली है।’   ‘सब मेरे कर्मों का दण्ड है। मैं अपनी करनी का परिणाम भुगत रही हूँ। तुम सदा से उजले थे और मैं…..।

‘ वह हांफने लगी थी। पूनम ने उसकी पीठ को सहलाया और कहा ‘आपको कुछ कहने की जरूरत नहीं है, कल आपका लिखा हुआ लेख पढ़ा, हमें सब ज्ञात हो गया है। वह पढ़कर ही हम आपके पास आए हैं। मोना की ऑंखों में हल्की सी चमक आ  गई थी।

उसने उठने का प्रयास किया उठते नहीं बन रहा था। तब तक मेहरा आण्टी चाय बनाकर ले आई थी। मोना के हाथ कांप रहै थे, पूनम ने उसकी प्याली हाथ में पकड़ी और उसे चाय पिलाने का प्रयास किया, मगर एक खॉंसी  का ठसका लगा और वह उसमें उलझ गई,

उसका पूरा शरीर कॉंप रहा था। फिर पता नहीं उसे क्या हुआ, वह एक झटके में उठी और अमर के पैरों में गिर पड़ी उसके  मुंह से बस यही शब्द निकले, ‘हो सके तो मुझे माफ कर देना।’ ये उसके मुंह से निकले अन्तिम शब्द थे। पंछी उड़ गया था। अमर की ऑंखों से अश्रु गिर रहै थे

और वह कलंक जो मोना अपने मन मे छिपाए हुए थी धुलता जा रहा था। मेहरा आण्टी के कहने के अनुसार, अमर और पूनम ने उसके अन्तिम संस्कार की सारी रस्मों में उनकी मदद की । रिश्तेदारो को खबर करना। तैरह दिन के सारे कार्यक्रम विधि विधान से करवाए। मोना की मम्मी मरते समय मोना का हाथ मेहरा आण्टी के हाथ में सौंप गई थी उन्होंने भी जितना सम्भव हो सकता था अपना दायित्व निभाया। 

घर लौटते समय अमर और पूनम का मन भारी हो गया था, अमर ने पूनम को धन्यवाद दिया, उसका हाथ कसकर थाम लिया, पूनम उसके भावों को महसूस कर रही थी। अब किसी पर कोई कलंक नहीं था। एक कालचक्र था जो बीत गया, कुछ रीत गया कुछ ऑंसू की बूंदों में सिमट गया।

प्रेषक

पुष्पा जोशी

स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित

#कलंक

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!