” पिताजी ! आप फिर आज स्कूल में धोती पहनकर क्यों आये थे? मेरे सभी दोस्त मज़ाक बनाते हैं। इससे तो अच्छा था मुझे किसी हिन्दी मीडियम स्कूल में ही पढ़ने भेजते।”
“अरे रे बबुआ! इतना गुस्सा काहे करते हो,अबकी बार शहर से एक पतलून ले आयेंगे और पूरे साहब बनकर स्कूल में आयेंगे, ठीक है न। चलो अब खाना खा लो। देखो माई ने कितनी अच्छी खिचड़ी बनाई है। घी गुड़ से खिलाएंगे तुम्हें..चलो तो।”
“आ आ करो..” कानों में गूंजती पिताजी की आवाज़ महसूस कर सच में ही मैंने अपना मुँह पूरा खोल दिया ।
” क्या करते हो बाबा! अभी तो नाश्ता करवा के दवा दी है।अब फिर कुछ खाने को मांगता क्या?
ऐसे बार-बार खाने को डॉक्टर ने मना किया न बाबा।”
मेरी देखभाल को रखी नर्स मुझे डपट रही है।
“अच्छा थोड़ी देर गाने लगा देती हूँ। सुनते हुए नींद आ
जाएगी। “
कमरे में मुकेश की आवाज़ गूंजने लगी
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‘समय की धारा में,उम्र बह जानी है
जो घड़ी जी लेंगे,वही रह जानी है..
जीवन से सांसों का रिश्ता मैं न भूलूंगा…!’
नर्स किसी से फोन पर बात कर रही है।
मुझे महसूस हुआ जैसे अचानक बेटा विशु मेरे सिरहाने आकर बैठ गया।
“कैसा लग रहा है पापा? हमारी व्यस्तता तो आप जानते ही हैं,नर्स इसीलिए रखी है।
आप इन्हें परेशान मत कीजिये। बार-बार नर्स ढूंढने में बहुत तकलीफ़ होती है।”
मेरा मन फिर भूतकाल में दौड़ रहा है,पिताजी झूठमूठ में डांट रहे हैं… ” देखो तुम फिर परेशान करने लगे। अब अगर बात नहीं मानोगे तो तुम्हें मेला दिखाने नहीं ले जाएंगे।”
पिताजी और बेटे के बीच डोलता हुआ मैं खुद को किसी पैंडुलम सा महसूस कर रहा हूँ।
दूर आसमान में पिताजी हाथ हिलाकर अपने पास बुला रहे हैं,और मेरे सिरहाने बैठा बेटा हौले से अपनी उंगलियां, मेरी पकड़ से आज़ाद करने में लगा है।
मुझे बहुत जोरों की नींद आ रही है। पिताजी की ओर देखते हुए मैंने अपने दोनों हाथ उठा दिए।
सब कुछ कितना अच्छा और हल्का-हल्का लग रहा है।
वर्षा गर्ग
(मौलिक)