आज जब दुनिया के रंगीनियों से अलग थलग होकर एक घर में कैद हुई हूं, तो दोस्त बड़े याद आते हैं… बचपन के गली मोहल्ले वाले दोस्त… स्कूल के दोस्त…. कॉलेज के दोस्त… ऑफिस के दोस्त।
दरअसल दोस्तों की भी कैटेगरी होती है ना!
स्कूल गए, गली मुहल्ले की दोस्ती छूटी!
कॉलेज गए, स्कूल की दोस्ती छुट्टी!
नौकरी करने लगें या प्रैक्टिकल लाइफ में कदम रखा, तो कॉलेज की भी दोस्ती है छूट जाती है!
नए दोस्त बनते जाते हैं, पुराने दोस्त यादों से बोझिल होते जाते हैं, पर कभी नहीं भूलते तो वो बचपन के गली मोहल्ले वाले दोस्त…
कभी धूप तो कभी छांव वाली दोस्ती होती है ना उनसे,
शाम में रूठे फिर सुबह एक हो गए, सुबह झड़प हुई कट्टी हुई, दोपहर तक एक दोस्त बिचवलिया दोनों की बातें एक दूसरे तक पहुंचाता रहा और शाम तक सुलह की सिफ़ारिश भी पहुंच गई और फिर शाम में साथ गलियों में लुक्का छिपी शुरू…
आज मैं भी उन दोस्तों को भी याद कर रही हूं!
अब आप सोच रहे होंगे कि मैं कोई बड़ी उम्र की महिला हूँ… जो अब सारी चिंताओं से मुक्त होकर सिर्फ पुराने पलों को याद कर रही हूं, हालांकि ऐसा नहीं है मैं अभी उम्र के तीसरे दशक के आखिरी पड़ाव में हूँ,,, पर हालात कुछ ऐसे बने कि मुझे नौकरी छोड़ कर घर बैठना पड़ा और अब कभी-कभी खाली समय में बैठकर दोस्तों को याद करती हूं!
इससे पहले मैं भी अपनी जिंदगी में व्यस्त थी, नौकरी, शादी, बच्चे!
अब कभी ऑफिस के कॉलीग के पास कॉल करती हूँ तो, किसी के पास समय नहीं होता मेरी फालतू की बकवास सुनने के लिए!
कॉलेज के दोस्तों का तो कोई अता पता ही नहीं स्कूल के दोस्त भी मुश्किल से एक आध मिल पाए!
लेकिन वह बचपन की गली मोहल्ले वाले दोस्त जो देर रात तक गलियों में लुक्का छुपी खेला करते थे, उनके नाम नंबर मैं आसानी से ढूंढ पाई… फिर मैंने व्हाट्सएप पर एक ग्रुप बनाया… और डायरेक्ट वीडियो कॉल किया कुछ ही समय में सारे दोस्त, मतलब सारी सहेलियां स्क्रीन पर थे!
उस समय बहुत ही सुखद अनुभव हुआ मुझे लगा यही वह दोस्त हैं जो जीवन भर याद रहते हैं, और समय पड़ने पर भावात्मक रूप से साथ भी देते हैं, इन दोस्तों में ना कोई दिखावा, ना ही एक दूसरे से आगे निकल जाने की होड़, कुछ भी तो नहीं होता होता है तो सिर्फ खरी दोस्ती, सच्ची मुहब्बत!
हमने वीडियो कॉल पर बहुत देर तक बातें की बचपन की बहुत सारी यादों को दोहरा कर यादों का उत्सव मनाया सबके चेहरे पर खुशी थी…!
बचपन में वो गुड़िया की शादी मानना…!
वो नन्हें नन्हें हाथों से मिट्टी के छोटे छोटे चूल्हे पर खाना बनाना, और फिर जब लाल मुँह लेकर घर जाते तो माँ से मार खाना…!
शाम होते ही गालियों में लुका छुप्पी खेलने निकल जाना….!
कभी रूठना, तो कभी अपने आप मान जाना..!
वो बगीचे में झूले डाल कर एक दूसरे को गिन गिन कर धक्के लगाना…!
कितनी ही खुशियाँ सिर्फ एक कॉल पर हमने खरीद ली,
उनमे से किसी ने कहा- यह वाली दोस्त तो अपने जिंदगी में सबसे आगे निकल गई।
उसके इतना कहने पर उनमें से एक दोस्त जो शायद मुश्किल से पांचवी तक पढ़ी थी उसने कहा- सब अपनी जगह पर सही हैं उसकी यह बात मुझे बहुत ही मुझ बहुत अच्छी लगी।
लगभग आधे घंटे के बाद के बाद हमने फोन रखा इस वादे के साथ ही अब बातें करते रहेंगे, इतनी खुशी मैंने अपने मौजूदा लाइफ में पहली बार महसूस की थी।
हम अपने अपने जीवन में कितने भी आगे निकल जाएं, लेकिन हमारी जड़ें, जहां हमारा बचपन बीता हमेशा याद आते हैं, और इन लोगों को हमें कभी भूलना नहीं चाहिए… कभी-कभी, भूले भटके सही, बचपन के उन गली मोहल्ले में जरूर जाना चाहिए…!
आप भी कभी अभी अपने बचपन के गलियों में जाकर देखें बहुत अच्छा लगता है… वहां स्वागत भी बड़े खुले दिल के साथ किया जाता है… वहां कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होती… वहां सिर्फ बचपन को जिया जाता है, एक बार फिर से….!
बच्चा बन जाया जाता है, एक बार फिर से…!
जिम्मेदारियों को कुछ देर के लिए भूल कर, खुली हवा में साँस लिया जाता है, एक बार फिर से…!
#कभी धूप तो कभी छांव
मौलिक एवं स्वरचित
सुल्ताना खातून
दोस्तों मेरी रचना कैसी लगी जरूर बताएं, धन्यवाद