जीवन साथी बिन ना ढलती साँझ – रश्मि प्रकाश  : Moral Stories in Hindi

“ सही है तुम भी मुझे छोड़ कर चली गई…. कहाँ हम सोचा करते थे… जब साँझ ढलेगा इधर बरामदे में झूले पर बैठ कर बाहर का नजारा निहारा करेंगे और साथ में तुम्हारी पसंद का लिप्टन ग्रीनलेबल चाय का आनंद लिया करेंगे पर देखो ढलती साँझ तो है पर मै यहाँ अकेला रह गया….

क्यों साथ छोड़ गई चंचला इस ढलती उम्र में तुम्हारे बिना गुज़ारा कितना मुश्किल होगा पता तो था ना तुम्हें… तुम तो हमेशा कहती थी देखो जी ये ढलती साँझ का मंजर अपने साथ कितने रूप लेकर आता है… काली रात के बाद फिर से एक नई सुबह… और हर सुबह आपको देख कर मैं जी उठती हूँ….

पर मैं कैसे जी सकता हूँ तुम्हारे बिना इसकी बात तो तुमसे कभी की ही नहीं…।” राघवेंद्र जी ना जाने कब से यूँ ही बरामदे में बैठ कर अपनी पत्नी को याद कर रहे थे तभी उनके पोते मनन ने आकर कहा ,”दादू आप यहाँ बैठ कर क्या कर रहे हैं मम्मी कब से आपको आवाज़ दे रही है चलिए सब खाने पर आपका इंतज़ार कर रहे हैं ।” 

“ कुछ नहीं बेटा बस देख रहा हूँ इस ढलती साँझ की तरह कल को मैं भी ढल जाऊँगा फिर शायद किसी सुबह को मेरा इंतज़ार नहीं होगा और मैं तेरी दादी के पास चला जाऊँगा ….. पता है बेटा जीवनसाथी के बिना ना ढलती उम्र कटती ना ढलती साँझ ।” राघवेंद्र जी बोले 

“ ये कैसी बातें कर रहे है दादू … अभी तो आपको मेरे बच्चे भी खेलाने है याद है ना दादी ने क्या कहा था?” मनन ने कहा 

“अजी मैं तो चंद दिनों की मेहमान हूँ पर इस दिल की बड़ी ख्वाहिश थी जब मनन के बच्चे हो उनको अपनी गोद में खिला सकूँ पर कोई बात नहीं तुम हो ना मेरे हिस्से का भी प्यार दुलार आपको ही देना होगा।” चंचला जी के कहे बोल राघवेंद्र जी के कानों में गूंज उठे

“ हाँ सब याद है मैं भी कहाँ इन बातों को लेकर बैठ गया मुझे तो तेरी दादी के हिस्से का प्यार दुलार भी तेरे बच्चे को देना है।” कहते हुए राघवेंद्र जी कुर्सी पर से उठ खड़े हुए 

खाने की मेज पर पूरा परिवार इकट्ठा हो गया था…

“ पापा माँ को गए पूरा एक साल हो गया है आज उसकी पुण्य तिथि पर सब काम सही से तो हो गया ना?” बड़े बेटे सोमेश ने पूछा 

“ हाँ बेटा तुम दोनों बच्चों ने सब कुछ बहुत अच्छे से सँभाल लिया … बस मेरी चंचला को नहीं बचा पाए।”दर्द भरे लहजे में कह कर राघवेंद्र जी खाने की थाली को प्रणाम कर उठने लगे 

“ पापा ये आप क्या कह रहे हैं सुबह से पूजा की भाग दौड़ में कुछ खाया भी नहीं और अब ऐसे खाना छोड़ कर उठ रहे हैं …. याद है ना माँ हमेशा कहती थी इससे अन्न का अपमान होता है ।” छोटे बेटे बृजेश ने कहा 

“ बेटा आज तेरी माँ की बहुत याद आ रही है बस अब उसके पास जाने का इंतज़ार है….उसकी दर्द भरी चीख़ों से मेरा दिल आज भी आहत होता है वक़्त पर उसका इलाज शुरू कर देते तो शायद आज वो हमारे बीच होती अब इस उम्र में उसके बिना जीना मुश्किल हो रहा है।” कहते हुए राघवेंद्र जी उठकर अपने कमरे में चले गए 

ये वही कमरा था जिसे दोनों ने मिलकर सँवारा था कई चीजें चंचला जी ने खुद बना कर सजाया था… दोनों बेटों का ब्याह कर दिया… दोनों बच्चों के बच्चे भी हो गए उनके लिए भी अपने हाथों से कपड़े सिलती और बुनाई करती  

बड़े बेटे के दो बच्चे हुए एक बेटा और एक बेटी छोटे बेटे का एक बेटा… संयुक्त व्यवसाय  में सब मिल जुलकर अच्छे से अपना काम भी कर रहे थे और परिवार भी संभाल रहे थे पर एक दिन अचानक कमला जी ने पेट दर्द की शिकायत की घरेलू उपचार और कुछ दवाओं के साथ उन्हें आराम मिलता रहा पर एक दिन दर्द असहनीय हो गया…अस्पताल ले जाया गया तो पता चला उन्हें कैंसर हो गया है… 

ये सुनते ही राघवेंद्र जी टूट गए बच्चों की तरह फूट फूटकर रोये और बेटों से याचना करते हुए बोले किसी तरह माँ को बचा लो… कहीं ले जाओ पर मुझे अपना ये जीवन चंचला के साथ ही जीना है नहीं तो मैं नहीं रह पाऊँगा ।

बच्चों ने भरसक कोशिश की अपनी माँ को बचाने की पर अंत बता कर नहीं आता और राघवेंद्र जी इस ढलती उम्र में अकेले रह गए… और ये अकेलापन अब उन्हें डस रहा था … वो पहले से कहीं ज़्यादा कमजोर हो गए थे… बेटे बहू पोते पोती और पोते की बहू सब उनका पूरा ध्यान रखते थे… राघवेंद्र जी को इस उम्र में बस कमी महसूस होती थी तो वो चंचला की।

पोते की बहू गर्भवती थी और सब इंतजार कर रहे थे नए मेहमान के आगमन का ….संजोग से जिस दिन बहू को अस्पताल ले जाया गया उसी दिन राघवेंद्र जी का दिल बेहद बैचेन हो रहा था…. उस दिन उनकी चंचला का जन्मदिन भी था।

साँझ ढलते ढलते पता चला कन्या का जन्म हुआ है… सबको यही लग रहा था चंचला जी फिर से इस घर में वापस लौट आई है।

अस्पताल से आने के बाद राघवेंद्र जी जब बच्ची को देखे तो ऐसा लगा मानो उनकी ढलती साँझ को एक बार फिर सहारा मिल गया है… वो ज़्यादातर समय बच्ची के साथ गुज़ारने  की कोशिश करते…

उसे खेलाते हुए अक्सर कहते ,”देख चंचला तेरे हिस्से का भी प्यार दुलार दे रहा हूँ… पर तेरी कमी का क्या करूँ… तू मेरे बिना कैसे रह रही है… तेरा जी नहीं करता मुझे भी अपने पास बुला ले…इस बच्ची की मुस्कान देख मैं फिर से जी उठता हूँ… सच कह रहा हूँ तेरे हिस्से का ही प्यार इसे दे रहा हूँ मेरा हिस्सा तो तू थी ना।” कहते हुए कई बार वो रो जाते 

समय किसी तरह गुजर रहा था…और फिर चंचला जी की दूसरी पुण्यतिथि आने वाली थी… सबने मिलकर तय किया कि इस बार मंदिर में पूजा अर्चना करके ग़रीबों को खाना भी खिलाया जाएगा ।

हर दिन की भांति ढलती साँझ की बेला में राघवेंद्र जी अपनी चंचला से बातें करने बरामदे में बैठे हुए थे… उन्हें आज एहसास हो रहा था चंचला यही कहीं आसपास है वो उनसे कह रही है… बहुत रह लिए जी अकेले… यूँ अकेले में मेरे बिना रोते ना देखा जा रहा मुझसे ।

राघवेंद्र जी बंद आँखों से बस चंचला को महसूस कर रहे थे ठंडी हवा के झोंके ने जब बदन सिहरा दिया तो वो उठकर कमरे में आ गए… शुरू से ही वो सात बजे तक डिनर कर लेते थे ।

खा कर जब वो अपने कमरे में आ गए…आज कमरा कुछ ज़्यादा अधूरा लग रहा था वो कमरे को बहुत अच्छी तरह निहार रहे थे… ज़िन्दगी को कई साल इस कमरे में गुज़ारें हैं … शादी से पहले… शादी के बाद पत्नी और बच्चों के साथ और अब अकेले… बस अब और अकेले नहीं रहना बहुत रह लिया.. सोचते सोचते वो नींद की आग़ोश में चले गए ।

सुबह सब मंदिर जाने के लिए तैयार होकर राघवेंद्र जी का इंतज़ार करने लगे..

“ मनन जाकर देख बेटा दादा जी तैयार हुए कि नहीं ।” सोमेश जी ने कहा 

मनन जब कमरे में गया तो जोर से चीख पड़ा।

राघवेंद्र जी के सीने पर एक डायरी पड़ी थी और वो चिरनिद्रा में लीन थे ।

मनन की चीख सुनकर सब कमरे की ओर भागे..

नब्ज टटोली गई पर जाने वाला तो जा चुका था अपनी चंचला के पास ।

बृजेश ने डायरी का वो पन्ना खोला जिसमें पेन लगा हुआ था…,”बहुत मुश्किल है ढलती उम्र में जीवनसाथी के बिना जीना…मैं तो तेरे साथ जाना चाहता था चंचला पर तेरी बात पूरी भी तो करनी थी ना मुझे… घर परिवार बच्चे सब अपनी ज़िंदगी में खुश है… मनन की बेटी को भी  तेरे हिस्से का प्यार दुलार दे दिया अब तो अपने पास बुला ले… हमारी शादी की सालगिरह एक दिन है तो फिर हमदोनों  का जाना भी एक दिन कर दे… आकर ले जा मुझे

जीवनसाथी के बिना ना ढलती उम्र कटती ना ढलती साँझ गुजरती…. जाने क्यों लंबी और ज़्यादा लंबी होती जाती है…

।”

सारा परिवार ये सुनते ही बिलख पड़ा ।

“पापा माँ के बिना जीवन जी तो रहे थे पर ज़िन्दा नहीं थे… हमारे बीच रहकर भी कितने अकेले हो गए थे..  जबकि हमने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी ।” सोमेश ने कहा 

“ पापा दादा जी तो हमेशा से दादी को याद करके रोते रहते थे वो मुझसे कहते थे तेरी दादी के पास जाना चाहता हूँ अब तो ढलती उम्र में जीवन साथी के बिना जीवन व्यर्थ है ।” अपने दादा जी के चेहरे को निहारते हुए मनन बोला जिसपर आज उसे दादी के जाने के बाद पहली बार सुकून नजर आ रहा था ।

दोस्तों मेरी रचना पसंद आए तो लाइक और कमेंट करें… अपनी प्रतिक्रिया से मुझे प्रोत्साहित करें ।

धन्यवाद 

रश्मि प्रकाश 

# ढलती साँझ

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!