“जब तक चाय आती है, अपने बारे में बताओ रोहित। दोस्त के बारे में कुछ तो मालूम होना ही चाहिए।” रोहित के फिर से बैठते ही आरुणि कहती है।
“करेक्ट.. फिर हम सब भी चाय के साथ अपना अपना परिचय देंगी।” तृप्ति आरुणि के कथन पर स्वीकृति की मुहर लगाती हुई कहती है।
रोहित सबको बारी बारी से देखते हुए कहता है, “मेरे पास फिलहाल बताने के लिए कुछ नहीं है। मैं मुंबई से हूँ और विश्वास करना चाहो तो भरोसे के लायक हूँ। अभी यही परिचय है मेरा। तुम लोग बताना चाहो तो कुछ बताओ।”
“हम सब बच्चों और लड़कियों की देखभाल करती हैं।” आरुणि रोहित की बात समाप्त होने पर छोटा सा उत्तर देती है।
“मतलब”… रोहित पूछता है।
“मतलब कि हम सब शिक्षिका हैं।” आरुणि इतना कहकर बात खत्म कर देती है।
“ये ट्रिप हम लोगों ने साथ साथ इत्तेफाकन कर लिया। अगला ट्रिप प्लानिंग के साथ करेंगे। कहाँ ले चलोगी तुमलोग।” रोहित सभी सहेलियों को सम्बोधित करता हुआ पूछता है।
“रजत जलप्रपात… मेरी पसंदीदा जगह। पिकनिक भी हो जाएगी हम सब की।” राधा एकदम से खुश होकर बोल कर सबकी ओर देखती है।
“हाँ.. बिल्कुल चल सकते हैं, तो रोहित जनाब आपका क्या विचार है।” आरुणि राधा को समर्थन देती हुई रोहित से पूछती है।
हम तो आप सब की शरण में हैं। जहाँ ले चलें आपलोग… बंदा तैयार है।” रोहित बैठे बैठे ही एक हाथ पेट तक लाकर थोड़ा झुक क़र कहता है।
“सोच लो फिर से.. प्रपात के गेट के पास से जल प्रपात तक पहुँचने के लिए एक डेढ़ किलोमीटर तक अपने पैरों का उपयोग करना होता है। थक तो नहीं जाओगे।” आरुणि दूरी का ब्यौरा देती हुई कहती है।
रोहित चिढ़ कर कहता है, “बच्चा हूँ मैं क्या.. जो नहीं चल सकूँगा।”
हर बात पर बच्चों की तरह ही तो चिढ़ते हो इसीलिए शक हुआ… पता नहीं.. देखने में लंबे हो गए हो और उम्र कहीं दस बारह साल ही ना हो।” आरुणि के कथन पट आरुणि की सारी सहेलियाँ हसँने लगती हैं। रोहित सबको घूर कर देखता है।
“इस तरह घूरने से कुछ नहीं होगा। आदत सुधारनी होगी। दोस्तों में क्या चिढ़, किसी से भी क्या चिढ़ना। छोटी सी तो जिन्दगी होती है.. कल कौन कहाँ.. किसे पता।” योगिता ढाबे के चूल्हे की आग को देखती हुई कहती है।
रोहित लाजवाब होता हुआ कहता है, “वाह.. दार्शनिक महोदया… दर्शन शास्त्र पढ़ा है क्या तुमने।”
“जीवन से बड़ा कोई दर्शनशास्त्र होता है क्या? वही इतना पढ़ा देती है कि खुदबखुद दार्शनिक बन जाते हैं लोग।” योगिता अभी भी जलती आग की ओर ही देख़ रही थी मानो उस आग में अपने जीवन की जलती अग्नि को झोंक देना चाहती हो, मानो उसके दिल की आग, उसके जीवन की जड़ों तक पहुँच चुकी थी। उसकी आँख में आग की परछाई देख़ कर प्रतीत हो रहा था मानो वह अपने जीवन की अंतरात्मा के साथ जूझ रही थी। उसकी आत्मा में झलकती हुई आग, उसके अंतर की दरारों को प्रकट कर रही थी, जो उसके दिल को भी जला रही थी। उसकी आँखों में जल रही आग ने रोहित को उसके अंतर में छुपी भावनाओं को महसूस करने के लिए मजबूर किया।
“मतलब”… रोहित योगिता के चेहरे के भाव को पढ़ता हुआ उसकी ओर देखता हुआ उसकी बात का मतलब समझने की कोशिश करता हुआ पूछता है।
“मतलब.. बतलब कुछ नहीं। अच्छा भला प्रकृति संग चाय के मजे ले रहे हैं हम लोग। तुम लोग कहाँ दर्शन में घुस गए।” तृप्ति योगिता की बाँह पर चीकोटी काटती हुई कहती है, जिसे रोहित देखकर अनदेखा करता हुआ कहता है, “फिर पिकनिक के लिए कब चलना है।”
आरुणि पूछती है, “तुम कब तक हो यहाँ?”
“पता नहीं.. अभी तो यही हूँ।” रोहित कहता है।
आरुणि गहरी नजर से रोहित को देखती है, “किसी रविवार को चलते हैं।”
रोहित पूछट्स है, “किस रविवार!”
“जिस रविवार हम फ्री होंगे, तुम्हें बता देंगे हमलोग।” योगिता सभी की ओर देखती हुई कह रही थी, “अपना नंबर दे दो… क्यूँ ठीक है ना आरुणि।”
“हाँ बिल्कुल”.. आरुणि रोहित की ओर देख़ क़र कहती है।
रोहित सिर झुका क़र अपनी उँगलियाँ चटकाते हुए कहता है, “नंबर तो बंद कर रखा है मैंने”…
“क्यूँ…फिर घर वालों से कैसे बात करते हो”..आरुणि आश्चर्य के भाव के साथ पूछती है।
रोहित बात को टालते हुए कहता है, “मैं ही किसी दिन उस कैफे मेंआ जाऊँगा। तब प्रोग्राम बना लेंगे। एक मिनट.. तुम लोगों ने कहा कि तुम लोग शिक्षिका हो और आरुणि तुम उस दिन कह रही थी कि जब भी मिलना हो, यही आ जाना। शिक्षिका हो तो फिर तुम उस कैफे में हमेशा कैसे होती हो।”
“बरखुरदार, हम वो हैं, जो सब कुछ मैनेज कर लेते हैं। मिलते मिलाते एक दूसरे के बारे में सब पता चल जाएगा। अब चला जाए, पैर गाड़ी से ही चला जाए। तुम कहाँ ठहरे हो।” कलाई में बाँधी हुई घड़ी देखती हुई आरुणि कहती है।
रोहित बताता है, “ज्यादा दूर नहीं है। यहाँ से होटल डेढ़ दो किलोमीटर है और तुम लोग..
हमारा भी… किधर से चलोगे। सड़क के दोनों ओर देखते हुए आरुणि पूछती है।
रोहित रास्ते की ओर इशारा कर बताने पर राधा कहती है, “ओह.. हम लोग तो बिल्कुल अलग अलग दिशा में जाएंगे।”
“कोई बात नहीं… चला जाए अब.. फिर मिलते हैं।” रोहित कहता है।
“हाँ.. बिल्कुल.. फिर मिलते हैं”… आरुणि मुस्कुरा क़र कहती है और रोहित को विदा कर अपने अपने रास्ते सब चल पड़ी।
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आरुणि और उसकी सहेलियाँ रोहित के बारे में ही बातें करती हुई घर की ओर कदम बढ़ा रही थी।
“कुछ समझ नहीं आया इस बन्दे का। फोन भी ऑफ रखता है, अपने बारे में भी बताना नहीं चाहता।” राधा चलते चलते राह में पड़े छोटे छोटे पत्थरों को बगल करती हुई चल रही थी।
“कुछ तो ऐसा है, जिससे रोहित परेशान है। पर क्या.. ये पता करना है। देखती हूँ..उसकी कितनी मदद कर पाती हूँ।
“तुम ही तो थी जो बिना जान पहचान के, बिना कुछ पूछे हमारी सहायता करती गई तो तुम उसके मन की बातों को भी निकलवा ही लोगी। इन पत्थरों की तरह उसके मन की उलझन भी बाजू में क़र ही दोगी।” एक पत्थर जो योगिता के पैरों तले आया था, उसे हटाती हुई योगिता कहती है। योगिता के कथन से अहसास हो रहा था कि उसने अपने जीवन में उन पत्थरों की तरह आ रही मुश्किलों का सामना किया, जिन्हें हटाने के लिए आरुणि ने उसे उसकी संग्रहित क्षमता और साहस से मुलाक़ात करवाया।
औऱ अब तो हम सब तुम्हारे इस काम में बिना डरे तुम्हारे साथ हैं।” तृप्ति कहती है।
जिंदगी ने इतना डरा दिया कि अब किसी से डर लागता ही नहीं है। अब तो बस द्वन्द्व में उलझे लोगों क़ी सुलझन से मुलाक़ात करा दें, इतनी ही चाहत रहती है।”राधा की आँखों में अनगिनत कष्ट और दुख की लहरें उमड़ रही थीं, लेकिन उसके होंठों पर एक मुस्कान तिर रही थी, उसकी मुस्कान में विश्वास का सागर और अटल संकल्प छिपा हुआ था जैसे वह कह रही हो कि वह हर समस्या और चुनौती का सामना करने के लिए तैयार है।
बातें करते करते चारों घर पहुँच गईं। घर क्या दो माले की पूरी हवेली ही थी आरुणि की और हवेली का नाम रखा गया था “जीवन का सवेरा”। नीचे वाले माले पर एक ओर आरुणि अनाथालय चलाती है, जिसमें बेसहारा बच्चे और लड़कियाँ रहती हैं और एक ओर आरुणि और उसकी सहेलियाँ कमरे साझा करती हुई रहती हैं। दूसरे माले पर बच्चों के पढ़ने और भोजन का प्रबंध है। लड़कियों के लिए कुटीर उद्योग से संबंधित चीज़ें सीखने सिखाने की व्यवस्था भी है, जिससे वो सब अपने पैरों पर खड़ी हो सके और खुद की जिम्मेदारी ले सके। इनमें से जो हवेली में रहकर आरुणि के साथ जिम्मेदारी बाँटना चाहती हैं, वो रह सकती हैं या बाहर से भी आना जाना क़र सकती हैं, अपनी जिंदगी अपने अनुसार जी सकती हैं, ये सब आरुणि ने उनकी अपनी इच्छा पर छोड़ रखा है। इसी में राधा, योगिता और तृप्ति हैं, जो हवेली में रह कर आरुणि और आरुणि के कार्य के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं। तीनों अलग अलग कार्यो में लगी हुई हैं। योगिता एक अच्छे विद्यालय में शिक्षिका के रूप में कार्यरत है। तृप्ति एक पुस्तकालय में पुस्तकालयाध्यक्ष है, साथ ही प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी भी कर रही है। पुस्तकालय में काम करने के कारण किताबों को खरीदने का खर्च बचा कर “जीवन का सवेरा” में योगदान देती है। राधा ने यहीं से सिलाई बुनाई सीख कर खुद के खर्चे और आरुणि की मदद के लिए बुटीक चलाती है। इन सब का फिलहाल एक ही ध्येय है.. सब मिलकर “जीवन का सवेरा” के लिए हर तरह की जिम्मेदारी उठा सकें और अधिक से अधिक बेसहारा स्त्रियों और बच्चों की सहायता क़र सके।
बच्चों की पढ़ाई सुचारू रूप से हो सके, इसका ध्यान रखने की जिम्मेदारी तृप्ति और योगिता को दी गई है। खाने और अन्य व्यवस्था राधा और आरुणि मिलकर देखती हैं। कुटीर उद्योग सब की निगरानी में चलता है…
जैसे ही चारों हवेली पहुँचती हैं, बच्चे दीदी दीदी का शोर मचाते उन्हें घेर लेते हैं। बच्चों की खिलखिलाहट और चाहत ने हवेली को एक नया जीवन दिया था। उनकी मस्ती और खुशी से हवेली की दीवारों में गूँज उठी थी। बच्चे दीदी दीदी की शोर में डूबे हुए, उनसे खेलने की जिद्द करते हुए वहाँ घेरा बना लेते हैं। सभी बच्चों का मन रखने के लिए उनके साथ थोड़ी देर खेलती हैं और फिर सहायिकाओं को बच्चों का ध्यान रखने का निर्देश देकर हवेली के अंदर चली जाती हैं।
थोड़ी देर आरुणि और राधा के साझा कमरे में बैठ कर चारों बच्चों के भविष्य को लेकर बातें करती हैं, फिर योगिता और तृप्ति अपने कमरे में आराम करने चली गईं। रात में खाने के टेबल पर चारों दीदी को देखकर बच्चे खुशी में नाचने लगते हैं क्यूँकि चारों सहेलियाँ बच्चों से बहुत प्यार करती हैं और बच्चे भी अपनी चारों दीदी से बहुत प्यार करते हैं। कैफे होने के कारण आरुणि का अक्सर देर से घर आना होता है, इस कारण बच्चों के साथ रात का खाना बहुत कम ले पाती है और सुबह बच्चों की स्कूल के लिए भागादौड़ी होती है। रात के खाने के बाद बच्चों को सुला कर चारों अपने कमरे में सोने चली गईं।
सभी अपने अपने कामों में इतने व्यस्त थी कि वे रजत जल प्रपात को भूल ही गए थे। एक महीने बीत गया, और रोहित की भी कहीं खबर नहीं थी। सभी लोगों ने सोचा कि वह जहाँ से आया था, वहीं लौट गया होगा। इस बीच, “जीवन का सवेरा” में दो-तीन सदस्यों की संख्या बढ़ गई थी और साथ ही चारों की जिम्मेदारी भी बढ़ गई थी।
***
आरुणि कैफे में बैठी थी, खुद के विचारों में खोई हुई। वह कॉफी कप में चमच को घुमा रही थी, लेकिन उसका ध्यान अन्यत्र था। रोहित अवतरित हुआ और आकर आरुणि के टेबल के पास खड़ा हो गया। रोहित के आने की उसे कोई खबर नहीं थी। जब रोहित कुर्सी खींचकर बैठता है, तो उसकी आवाज़ से ही आरुणि की नजरें उठी। उसे देखते ही वह चिहुँक क़र कहती है, “रोहित तुम?” मानो उसने रोहित को नहीं, बल्कि अपने सपने में भूत को देख लिया हो। “कहाँ थे अब तक.. मुंबई लौट गए थे क्या?” आरुणि ने आश्चर्य से पूछा।
रोहित उसके आश्चर्य को समझता हुआ कहता है, “तुम तो ऐसे चौंक गई, जैसे कोई भूत देख लिया हो। यहीं था मैं.. होटल के रूम से निकलने की इच्छा नहीं होती थी।” रोहित के आँखों में दुख और अवसाद की झलक दिखाई दे रही थी। उसके चेहरे पर एक व्यथित अभिव्यक्ति थी, जैसे कि वह किसी दुखद गहरे अनुभव से गुजरा हो। रोहित की बात से उसके अंदर का दर्द और उदासी साफ़ जाहिर हो रही थी, जैसे कि वह जीवन में किसी त्रासदी का सामना कर रहा हो।
“जनाब को रूम इतना ज्यादा पसंद आ गया क्या! फिर आज कैसे निकल आए। रूम ने कहा नहीं.. ना जाओ सैयां.. छुड़ा कर बहियाँ…कसम तुम्हारी.. हम रो पड़ेंगे। अब तो रूम को भी तो प्रतिपल तुम्हें देखने की आदत हो गई होगी ना।” आरुणि हँस क़र कहती है।
अहा क्या सेंस ऑफ़ ह्यूमर है। माशाल्लाह.. कहाँ से क्या जोड़ दिया तुमने।” रोहित अपनी हँसी रोकने की कोशिश करता हुआ कहता है।
आरुणि जो रोहित के कथन पर उसकी मनसिक स्थिति समझना चाहती है, आज हल्की फुल्की बातों से किसी भी बात को हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी। इसलिए वह फटाफट दो कॉफी दो सैंडविच का ऑर्डर कर रोहित से मुखातिब होती है, “तो रोहित आज हमारी याद कैसे आ गई।”
और रोहित अब तक ख़्यालों की किन्हीं गलियों में गुम हो चुका था।
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जीवन का सवेरा (भाग – 5) – आरती झा आद्या : Moral stories in hindi
आरती झा आद्या
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