” भाभी…मेरे स्कूल का टाइम हो रहा है..टिफ़िन तैयार कर दीजिये।” श्रुति ने बिस्तर पर लेटी अपनी भाभी से कहा।
” अभी देती हूँ…।” कहते हुए नंदिता उठने की कोशिश करने लगी तभी तनुजा आ गई और बोली,” दीदी..आप आराम कीजिये..श्रुति अपना टिफ़िन खुद तैयार कर लेगी।”
” लेकिन छोटी भाभी…मुझे पराँठे बनाने नहीं आते..और फिर हमेशा से तो भाभी ही मेरा टिफ़िन…।” श्रुति के शिकायत भरे स्वर सुनकर तनुजा चीख पड़ी,” तो क्या दीदी पैदा होते ही पराँठे बनाने लगी थी..।” सुनकर नंदिता और श्रुति सकते में आ गईं।उसके सास-ससुर में ‘क्या हुआ..’ कहते हुए नंदिता के कमरे में आ गये।
संयुक्त परिवार में जन्मी तनुजा ने अपनी माँ को हमेशा घर के कामों में उलझे ही देखा था।कभी उसके चाचा कहते, भाभी..मेरा लंच.. तो कभी उसके पापा कहते, सुनो…मेरा शर्ट नहीं मिल रहा है।उसकी माँ पति को शर्ट देने जातीं तब तक में उसकी दादी आवाज़ लगा देतीं, ” बहू..ज़रा..मालिश वाली तेल की शीशी तो दे देना..।”
एक दिन उसने अपनी दादी से पूछ लिया कि माँ इतना काम क्यों करती है तो दादी उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोली,” बिटिया..तेरी माँ घर की बड़ी है ना तो उसकी #ज़िम्मेदारियाँ कभी खत्म नहीं होंगी।अभी तेरे चाचा- बुआ का कर रही है..फिर तेरी..फिर तेरे..।” वो सुन रही थी लेकिन उसे समझ कुछ नहीं आ रहा था।बड़े होने पर वो माँ को कहती कि चाचा-बुआ को अपना काम खुद करने को कहो।जवाब में उसकी माँ हँस देती तो उसे बहुत गुस्सा आता और वही उसका स्वभाव बन गया।किसी के साथ कुछ भी गलत होता देखती तो वो तुरंत विरोध करती और इसीलिये उसकी सहेलियाँ उसे झांसी की रानी कहकर बुलाने लगे थे।
बीए करने के बाद तनुजा एमए करना चाहती थी लेकिन तभी उसके पिता के मित्र ने बताया कि मेरी बहन का छोटा बेटा आनंद मुंबई के एक साॅफ़्टवेयर कंपनी में नौकरी करता है।आपलोग एक बार उससे मिल ले..तनुजा भी देख ले, शायद..।आनंद की पर्सनैलिटी और बात-विचार से तनुजा बहुत प्रभावित हुई।उसकी माँ ने कहा कि जेठ- ननद वाले घर में मेरी बेटी का मेरे जैसा ही हाल..।
तब उसके पिता बोले,” हमारी तनु को कौन-सा वहाँ रहना है..उसे तो आनंद के साथ मुंबई रहना है..एकाध दिन के लिये में कुछ फ़र्क नहीं पड़ता है।इस तरह से तनुजा आनंद की पत्नी बनकर मुंबई चली गई।जब कभी वह ससुराल आती और किचन में अपनी जेठानी का हाथ बँटाना चाहती तब वो एक हाथ से अपना पसीना पोंछते हुए कहतीं,” तुम आराम करो तनुजा..मैं सब कर लूँगी..मुझे तो इसकी आदत है…।”
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एक दिन नंदिता अपने छह वर्षीय बेटे शानू को नहला रही थी, तभी उसके पति ने आवाज़ लगाई,” नंदिता..ज़रा मेरा वाॅलेट तो दे देना।” शानू को बाथरूम में ही छोड़कर नंदिता ‘अभी लाई’ कहकर दौड़ पड़ी।तनुजा को बहुत गुस्सा आया।वह नंदिता से बोली,” दीदी..वाॅलेट तो भईया खुद भी ले सकते थें..आप क्यों? शानू को ठंड लग जाती तो..।”
नंदिता हँसते हुए बोली,” कुछ नहीं होता है तनुजा..उनको काम करने की आदत नहीं है ना..।” इसके बाद भी तनुजा ने नंदिता को कई बार समझाया कि दीदी.. आप सभी की ज़िम्मेदारी क्यों उठाती हैं..भईया और श्रुति को स्वयं करने दीजिये।लेकिन नंदिता मुस्कुराकर रह जाती।
इस बार जब तनुजा ससुराल आई तो अगली सुबह नंदिता ने उससे कहा कि कल रात से ही मेरे सिर में बहुत दर्द है।तनुजा बोली,” तो फिर दीदी..आप आज आराम कीजिये..शानू को मैं संभाल लूँगी।” उसी समय श्रुति ने नंदिता को टिफ़िन बनाने को कहा तो वह फट पड़ी।
तनुजा की सास ने पूछा,” क्या हुआ..इतना हल्ला क्यों…और बड़ी बहू अभी तक सो क्यों रही है?” तब तनुजा बोली,” क्यों..एक दिन आराम करने का उनका हक नहीं है..।”
” तनु..चुप रहो…।” आनंद ने उसे रोकने की कोशिश की लेकिन वो बोलती रही,” जब से मैं आई हूँ…दीदी को एक पैर पर सबकी सेवा करते ही देखा है।कोई उनसे नाश्ते की फ़रमाईश करता है तो कोई उन्हें कपड़े इस्त्री करने को कहता है।”
” हाँ तो क्या हुआ..वो घर की सबसे बड़ी बहू है…उसे तो करना ही है…#उसकी ज़िम्मेदारियाँ कभी खत्म नहीं होंगी…।” सास ने अपने अधिकार का उपयोग किया।
” खत्म नहीं होंगी लेकिन सभी मिलजुल करे तो कम तो हो सकती हैं।” तनुजा बोली तो सब एक स्वर में बोल पड़े,” क्या मतलब…।”
तब वह ननद के कंधे पर हाथ रखकर बोली,” श्रुति..तुम तो अब सयानी हो चुकी हो.. सहेलियों के साथ पार्टी कर सकती हो तो अपनी भाभी के कामों में भी थोड़ा हाथ बँटा सकती हो।दीदी ने भी सीखा ही है तो तुम भी पराँठे बनाना..कपड़े इस्त्री करना सीख जाओगी।” सुनकर श्रुति ने ‘हाँ भाभी’ कहते हुए अपने नज़रें झुका ली।
फिर तनुजा अपनी सास को बोली,” माँजी..आपके घुटने में दर्द रहता है तो बैठे-बैठे ही सब्ज़ियाँ तो काट ही सकतीं हैं। दीदी भी ऊपर-नीचे करते-करते थक जातीं हैं।आप कभी-कभी श्रुति से ही मालिश करवा लिया कीजिये..आखिर उसे भी तो एक दिन ससुराल जाना ही है..वहाँ सब उसे ताना मारेंगे कि माँ ने कुछ नहीं सिखाया
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तो क्या यह आपको अच्छा लगेगा..।बड़े भईया अपने छोटे-छोटे काम खुद कर लें…कभी- कभी शानू को पढ़ा दें…पापाजी शानू को स्कूल छोड़ आये तो सोचिये कि नंदिता दीदी की ज़िम्मेदारियों का बोझ कितना कम हो जायेगा।वो आप सबका लिहाज़ करके बोलती नहीं हैं लेकिन मन तो उनका भी करता होगा कि उनके हाथ में भी कोई चाय का कप दे।कल रात से ही उनके सिर में दर्द है लेकिन किसी ने भी…।थकान और कमज़ोरी के कारण अगर उन्हें कुछ हो गया तो…।” कहते-कहते उसका गला भर आया।
” अरे-अरे…झांसी की रानी की आँखों में आँसू अच्छे नहीं लगते..।” आनंद बोला तो शानू भोलेपन-से बोला,” लेकिन चाची के हाथ में तो तलवार नहीं है।” फिर तो सभी ठहाका मारकर हँसने लगे और घर का वातावरण हल्का हो गया।
उस दिन नंदिता को किसी ने भी बिस्तर से उठने नहीं दिया।तनुजा के जेठ नंदिता को दवा देकर शानू को स्कूल छोड़ते हुए ऑफ़िस चले गये।पापाजी पोते को स्कूल से ले लाये।श्रुति ने तनुजा से पराँठे बनाने के साथ-साथ दूसरे व्यंजन बनाना भी सीख गई।सास तो अब पालक साफ़ करते और मटर छीलते हुए गीत भी गाने लगीं थीं।
यह सच है कि जब तक साँस है, हमारा काम कभी खत्म नहीं होगा लेकिन परिवार के सभी सदस्य एक-दूसरे का हाथ बँटाये तो फिर कोई भी ज़िम्मेदारी बोझ नहीं लगती..।
विभा गुप्ता
स्वरचित, बैंगलुरु
# ज़िम्मेदारियाँ कभी खत्म नहीं होंगी