जीवन का एक सफहा – अंजू निगम

आज भी जब ऊँची-नीची सड़कों को नापती हूँ और दूर, ऊबड़-खाबड़ हो गये ठीकरों में बने पुराने बरैक्स देखती हूँ तो जिदंगी के कई पन्नें खुद-ब- खुद खुलते जाते है, अपना अतीत दोहराने। मुझे कभी ये दोहराव बुरा नहीं लगा।

कभी कभी मन बेलौस सा मचल उठता , उसी किशोर वय में पहुँच, हिरनी सी कुलाँचे भरते ,उन खंडहर हो गये बरैक्स में कुछ पुराना ढुँढ लेने को।

कभी लगता, समय  कितना खुदगर्ज होता है, कितना कुछ छीन कर, निस्तेज भाव लिये खड़ा रहता है।

इधर कई दिनों से मन बहुत खारा हो रहा था। सुबह उठती तो वही खारापन आँखों के कोरों पर चिपका मिलता।

आज भी उठते अनायास हाथों की उगलियाँ आँखों के कोरों को छुकर सिसक रही थी। लगा कि आज जम कर रो लूँ। मन कुछ हल्का हो जायेगा। तभी लगातार बजती फोन की घंटी ने मेरा ध्यान मोड़ दिया। जाने क्यों आज भी लैडंलाइन को ही बिस्तर के सिरहाने टाँगे रहती हूँ।

“कैसी है लाडो?” सुबह सुबह शेफाली की चहकती आवाज ने मेरा दिन बना दिया।

“तु है! मैंने सोचा कौन ऊदबिलाव इतनी सुबह अपने खोल से निकल आया।” शेफाली की आवाज ने मन की सारी गिरह खोलनी शुरु कर दी ।

“बस कर। फटाफट अपना सामान लगा और यहाँ दौड़ आ।” शेफाली ने बड़ी अदा से कहा।

“वाह ! मेरे ताया बैठे है रेलवे में ,जो तूने मुँह हिलाया और टिकट हाजिर। अप्रैल का आखिर चल रहा है। सब सुटकेस तैयार किये बैठे होगे।” मैं बेसब्र सी बोल उठी।

शेफाली यानि जबलपुर। जहाँ की यादों ने कसकर जकड़ रखा था मुझे।

“सब हो जायेगा। रिजर्वेशन करवा कर मुझे पी.एन.आर नबंर भेज देना। मेरे ताया करवा देगे कन्फर्म।” वही खनकती, शोख हंसी।



जबलपुर के स्टेशन पर उतरते ही यादों के अनगिनत पखं मन में चिपक, मुझे जाने कहाँ कहाँ उड़ा लेने को आतूर हो उठे। मैं हकबकायी सी हर क्षण को अपने में समेट लेना चाहती थी। दिल से चाहती थी जैसा छोड़ गयी थी, सब वैसा ही मिले। मेरी यादों की दीवार में वक्त ने एक भी दरार न डाली हो।

“देखो, हम सब तुम्हें लेने आये है।”हुड़दंगी दोस्तों के बड़े हुजूम ने मुझे घेर लिया।

“ओह माँ! तुम सब!” शब्दों को तलाशती मैं बस यही कह पायी।

” तो क्या,अपने सरदार को ऐसे छोड़ देते।” मीनल की बात पर वही बेबाक ठहाकें जो रोज हमारी कैंटीन में गूंजा करते थे।

“यस, गब्बर इज बैक ।”अपनी आवाज़ में आया ये अल्हड़पन मुझे अच्छा लगा। ठहाकों का फिर वही जयघोष।

कारों के काफिले तक आते आते हम, सबके कौतहूल का कारण बन गये, ठीक दो साल पहले की तरह। फर्क एक था तब विदाई थी, आज पूर्नमिलन।

कार की बैक सीट पर शेफाली के साथ बैठते मैं उत्साह से भर गयी थी। पिछले हफ्ते की ऊबन हवा में घुल रही थी।

“और बता, सबके क्या हाल है?” मैंने बस यूँ ही पुछने के लिए पुछ लिया पर जानती मैं भी थी कि इस एक सवाल में कितने और सवाल गूंथे थे।

शेफाली की खोजी नजरें मेरे चेहरे पर गढ़ गयी।

“सबमें कोई खास? हमारी सारी चंडाल चौकड़ी तो पीछे आ रही है।” शेफाली कुछ कहलवाना चाहती थी।

“यार, तेरी हर बात की खाल निकालने की आदत गई नहीं।” मैं कह तो गई थी पर चाहती थी बस, शेफाली सब समझ जाये। ऐसे बातों को खोल कर समझाना मुझे अक्सर असहज कर जाते थे।

“बड़ा चित्रकार हो गया है।उसकी एक पेंटिगं लाखों के मोल बिकती है। उस दिन अचानक उसके स्टूडियो में, मैं अचानक धमक गयी थी , वह जो छुपाना चाह रहा था,मेरी आँखों के सामने साकार था।” बात को वहीं छोड़ शेफाली मेरी ओर देखने लगी। मैंने अपना चेहरा खिड़की की ओर घुमा लिया।

“वह पेंटिग बेची नहीं”? मेरी आँखों के कोरों में वही खारापन चिपक रहा था।

“अधूरी थी।”शेफाली ने भी फिर बस इतना ही कहा।

“आज अकंल-आंटी से मिल आऊँगी।” मैंने भी बस इतना ही जोड़ा।

“और किसी से नहीं न। तो चलो, आज शेखर को हम घुमा लायेगे। चौसठ योगिनी मदिंर या भेड़ाघाट या…। तुम चलोगी या पहले ही आंटी- अंकल से मिल लोगी।” शेफाली की आवाज में फिर वही खनक, शरारत ।

“मेरे साथ “कोई” जाना चाहेगा?” मैंने भरसक कोशिश की कि मेरी आँखों की नमी, आवाज में न उतरे।

“यार, तुम दोनों बहुत रोते हो। मुझे देखो, चटपट सब तय कर लिया।” शेफाली खीज गई।

“मतलब! तुम ऐंगेज हो?” फिर उसके ओर से जवाब का इतंजार किये बिना धीरे से पूछ ही बैठी,” बाई द वे, शेखर मेरे लिए कुछ पूछ रहा था क्या?”

“जी मैडम, पूछ रहा था बल्कि मैंने ही उगलवा लिया । वैसे तुम दोनों की प्रोब्लम मालुम क्या है? पहल कौन करे! अरे यार, प्यार है तो मानो न इस बात को। दो साल गँवा दिये “पहले तुम ,पहले तुम ” में। अब



किसी को तो बीच में पड़ना पड़ेगा न। सो, इटस मी।” शेफाली कंधें उचकाती शरारत से हंस दी।

शेफाली के घर से फ्रेश होकर जब मैं निकली तो मुझे देख शेफाली ने माथे पर हाथ मारा।

” दोस्तों की गेट-टु-गेदर में साड़ी-वाड़ी नहीं चलेगी भाई। जा, कोई केजएूल पहन कर आ।”

” वो, मैं सोच रही थी, पहले आंटी- अंकल से मिल आती।” मैंने थोड़ा अटकते हुये कहा

ओहहो, ये बात है। शाम को चलेगें। अभी शेखर से तो मिल ले पहले।” शेफाली की वही अदा।

कार का काफिला जब मेरे पुराने स्कूल की ओर मुड़ा तो मुझे अचरज भी हुआ और खुशी भी। मेरा पुराना स्कूल।

किस कदर यहाँ का पोर पोर मुझमें बसा था। अपनी क्लास के आगे बने लंबे कॉरीडोर में मैं चलती चली गई।

दोस्त वहीं पीछे खड़े रह गये। कॉरीडोर के आखिर में था मेरी जिदंगी का एक सफहा। शेखर को मालुम था क्या कि इस कॉरीडोर के आखिर तक मैं आऊँगी? मैं तो उसे इतना नहीं पढ़ पायी कभी। उसका चेहरा बचपन का कच्चापन छोड़ व्यस्क हो गया था, हल्की गंभीरता लिये।

“कैसी हो? मैं याद हूँ क्या तुम्हें?” शेखर की आवाज में उम्र की ठसक भर गयी थी।

“अच्छी हूँ।” बस इतना ही बोल पायी मैं। कहना चाहती थी कि तुम कभी भुले ही नहीं मुझसे। शायद हर पल।

” आज भी बात कह देने के लिये दो साल और लेने है क्या? कभी बात को कह देना चाहिए। जिदंगी दूसरा मौका नहीं देती।” शेखर मेरे चेहरे.पर नजरें गढ़ाये शरारत से बोल उठे।

“नहीं, दो साल और नहीं।” मैं कह ही गई।

शेखर ने आगे बढ़ कर मेरी उंगली में हमारे प्यार की मोहर पहना दी।

“देखा, इत्ती सी बात के लिए दो साल ले लिये। जिज्जा जी आप तो बड़े छुपे रुस्तम निकले। सारी तैयारी करके आये थे। वो तो भला कहिये मेरा, कि आपकी होनेवाली बीवी को यहाँ घसीट लाये। वरना ये तो आंटी -अंकल से आगे ही नहीं बढ़ रही थी।” शेफाली चहकती बोल उठी।

मेरी आँखों में फिर नमी थी पर उसमें खारापन नहीं उतरा था इस बार।

अंजू निगम

नई दिल्ली

 

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