दरवाजे की घंटी बजी. प्रातः काल के दैनिक कार्यों में व्यस्त सौम्या ने अपने बेतरतीबी से बिखरे बालों को रबरबैंड में बंधा और दरवाजा खोल दिया. एक अत्यंत साधारण कुरता पायजामा पहने हुए ग्रामीण सा व्यक्ति दरवाजे पर खड़ा था. सौम्या ने प्रश्नसूचक निगाहों से उसकी तरफ देखा.
अजनबी ने कहा “तुम… आप सौम्या हैं.”
“हाँ … तो … क्या चाहिए. देखिये बिजी टाइम है और हम चंदा वगैहरा नहीं देते. जल्दी बताइये”
“मैं कीरतपुर से आया हूँ”
सौम्या एकदम स्तब्ध. बुत बनी कई क्षण उस अजनबी को देखती रही. फिर कुछ कदम पीछे हटकर आगंतुक के लिए सोफे की तरफ इशारा किया. वो लगातार आगंतुक की तरफ आश्चर्य से देख रही थी. फिर अपने पति को बुलाने भीतर चली गई.
कीरतपुर वो गांव था जहाँ सौम्या ने जन्म लिया था. बस उसने नाम भर सुना था उस गाँव का बार बार.
नाना जी दो साल की उम्र में उसे कीरतपुर से अपने साथ ननिहाल ले आये थे. सौम्या ने बड़े होते होते अपने गाँव और अपने पिता के सम्बन्ध में जो कुछ सुना था उसके बाद उसके मन में अपने गांव के प्रति एक दहशत सी, एक नफ़रत सी और वितृष्णा उत्पन्न हो गई थी. उसने तो अपने पिता की कभी शक्ल भी नहीं देखी थी.
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उसकी कल्पनाओं में पिता एक क्रूर हत्यारा था. पिता के रूप में एक दानव की काल्पनिक शक्ल बचपन से ही उसके मष्तिष्क में स्थापित कर दी गई थी. वो तुम्हारी अबला और ममतामई माँ का हत्यारा है. वो शराब पीता है. अनेक औरतों से रिश्ते हैं उसके. वो तुम्हारी माँ से नफ़रत करता था और तुम से भी. अगर हम तुम्हें बचा न लाते तो क्या पता तुम्हें भी मार डालता.
सौम्य ने तो अपने गांव का नाम भी आज बरसों के बाद सुना था. किन्तु न जाने क्यों अचानक अपने पैतृक गांव का नाम सुनकर उसके हृदय की धड़कने बढ़ गई थीं. एक उत्सुकता और जिज्ञासा ने वैचारिक द्वन्द उत्पन्न कर दिया था. कैसे निर्मोही होंगे उसके जन्मदाता. क्या उन्हें अपनी प्रथम संतान की कभी याद नहीं आई होगी.
क्या वास्तव में वे मेरी माँ की तरह मुझसे भी नफ़रत करते होंगे. नाना कहते थे कि तू वहां होती तो वो नीच तुझे भी मार डालता. बचपन से अपनी औलादों को दुलारते पिताओं को देखकर एक खालीपन का सदैव अनुभव किया था उसने किन्तु उसका पिता तो इंसान ही नहीं दानव था. माँ का हत्यारा.
तभी सौम्या ने अपने पति के साथ ड्रॉइंगरूम में प्रवेश किया. आगंतुक के सामने एक ग्लास पानी रखकर सामने सोफे पर बैठते हुए उसके पति ने शहरों के बढ़ते अपराधों को देखते हुए शक की निगाह डालकर प्रश्न किया “जी बताइये. क्या शुभ नाम है आप का और किस लिए आना हुआ है”.
“जी मेरा नाम चंदर है और मैं …. मैं और इनके पिता सुकेश बचपन से बहुत अच्छे दोस्त रहे थे. आखिरी समय …” उसने ठिठक कर एक लंबी सांस ली जैसे शब्द उसके गले में रुंध से गए हों. एक घूँट पानी पिया और सहज होकर फिर बोलना शुरू किया . “आखिरी समय मैं उसके साथ था. उसने रोते हुए अपनी अंतिम इच्छा मुझे बताई.
उसने कहा कि मेरी एक ही इच्छा है कि तू मेरी बेटी को खोजकर लाएगा. जैसे भी हो. और मेरा तर्पण उसी के हाथों होगा. वादा कर मुझसे. करेगा न तू”.
“क्या … क्या उनका देहांत हो गया.क्या उनकी गृहस्थी नहीं है. कौन कौन हैं घर में”.
“गृहस्थी. कैसी गृहस्थी. मैंने इस दुनिया में उसके जितना अकेला आदमी नहीं देखा. उसका इस दुनिया में एक मुझ जैसे दोस्त के आलावा कोई नहीं था. जब भावुक हो जाता तो जार जार रोने लगता और कहता “मैं रेणुका का हत्यारा हूँ मेरे दोस्त. मुझे इस दुनिया में जीने का कोई अधिकार नहीं है. मैं उसके सिवा अपने जीवन में किसी अन्य औरत की कल्पना भी नहीं कर सकता”.
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फिर आगंतुक ने एक विराम के बाद सौम्या से मुखातिब होकर कहा “तुम मेरे दोस्त की आखिरी इच्छा पूरी करोगी नी बेटी”. आगंतुक ने कातर निगाहें ये याचनात्मक स्वर में कहा. उसकी आँखें नम थीं.
कई पल सन्नाटा छाया रहा. सौम्या ने पति की और देखा. भावुक से हो गए पति ने पलके झपकाकर मौन स्वीकृति दी.
“मैं … मैं पूरा प्रयास करूंगी चंदन सौरी … चाचा जी. आप बैठिये. मैं आप के लिए चाय नाश्ता …”
“नहीं बेटा. हमारे यहाँ बेटी के घर का कुछ खाने की परंपरा नहीं है. मेरी ट्रेन है. मुझे जाना होगा”. और वे उठकर चले गए.
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वो एक लखौरी ईंटों का बना हुआ पुराना घर था. एक छोटे से आंगन के तीन तरफ कमरे बने हुए थे और एक कोने में खुली सी रसोई में लकड़ी का चूल्हा आज भी अधजली लकड़ियों और राख से भरा हुआ था. आंगन की दीवारें धुंए की चीकट से काली हो गई थीं. कमरों में ताले लगे हुए थे. आंगन के बीच में हवन कुंड बनाकर हवन और तर्पण की व्यवस्था की गई थी. गांव की औरतें जिज्ञासा और स्नेह से सौम्या की आवभगत कर रही थीं.
दो घंटे में यज्ञ समाप्त हुआ और पिता के मित्र चंदर और उसकी पत्नी घर की चाबियाँ सौम्या को सौंपकर चले गए. देर तक सौम्या के मन में एक अंतरद्वन्द रहा कि मकान को बिना खोले ही लौट जाए. इस घर से, इस गाँव से उसका क्या भावनात्मक लगाव है. किन्तु एक जिज्ञासा सी भी थी. आखिर इस घर में उसकी माँ की यादें बसी हुई थीं. माँ की कोई निशानी, उनकी महक न जाने किस कौने में छुपी हुई हो। आखिर उसने भी इसी घर में जन्म लिया था.
बचपन की बात और थी. तब लगता था कि किताब में बने दानव के फोटो जैसा कोई खून से सने नुकीले दांतों वाला होगा उसका पिता. किन्तु अब बचपन नहीं है. इंसान अच्छा या बुरा हो सकता है मगर दानव …
एक कमरे को छोड़कर सभी कमरे लगभग खाली थे या खेती का सामान व अनाज इत्यादि भरा हुआ था. सामने के कमरे में व्यवस्थित रूप से एक दीवान पड़ा था जिसपर एक साफ चादर बिछी हुई थी. उसके एक तरफ एक लोहे की अलमारी और दूसरी तरफ लकड़ी का बड़ा सा संदूक रखा हुआ था. संदूक पर ताला लगा हुआ था. सौम्या ने चाबी के गुच्छे में से एक चाबी लगाकर उत्सुकता वश संदूक खोला. सबसे ऊपर एक मैली फटी पुरानी सी डायरी राखी हुई थी. एक कौने में एक धातु का डिब्बा था. उसे खोलकर देखा तो
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उसमे एक पीतल की खूबसूरत सिन्दूर की डिब्बी, मंगल सूत्र, सोने के हाथ कंगन, कीमती तगड़ी और कई अन्य गहने भरे हुए थे. एक पुराने जमाने की पैसे रखने की थैली थी जिसमें कई लाख रुपये बेतरतीबी से ठूसे हुए थे. बाकी बक्सा नारी वस्त्रों से लबरेज था. साड़ियां, लहंगा, कमीज और… और ये क्या. लगभग तीन साल की बच्ची की फ्रॉक. और… और एक और फ्रॉक. उस से कुछ बड़ी. फिर किसी बालिका के पहनने के अनेक वस्त्र निरंतर बड़े होते. भिन्न भिन्न अकार और उम्र के कपडे. शलवार कुर्ते और खूबसूरत दुपट्टा.
आखिर ये सब क्या रहस्य है मेरे मात्र हन्ता बाबुल के गृह लोक में. उनकी आखिरी इच्छा पूरी करने के लिए यहाँ चली आई थी तो क्या उनके प्रति मेरी नफ़रत ख़त्म हो गई. आखिर आप के कारण मैंने अपना पूरा जीवन मातृविहीन – पितृविहीन व्यतीत किया है.
आंगन के एक कौने में धूप का एक टुकड़ा सर्दी के इस मौसम में जीवनदायनी ऊष्मा का संचार कर रहा था. वहीं कोने में पड़ा मूढ़ा डालकर बैठ गई और डायरी के पन्ने पलटने लगी.
मेरी प्यारी ‘सोनपरी’. आज तुम्हारा तीसरा जन्म दिन है. देखो मैं तुम्हारे लिए कितनी सुन्दर फ्राक लाया हूँ. मेरी बुलबुल जब तुम देखोगी तो खुशी से चहक उठोगी. मैंने तुम से तुम्हारे माता पिता दोनों छीन लिए हैं न मेरी बच्ची. तुम अभी बहुत छोटी हो. तुम्हे समझ नहीं आएगा कि तुम्हारा ये अभागा बाप तुम से कितना प्यार करता है”.
दूसरा पन्ना – “मैं तुम्हारे जितना हिम्मती नहीं हूँ रेणुका. कायर और डरपोक इंसान हूँ. मरने से डर लगता है मगर तुम्हारे बिना इस जीवन का कोई मतलब भी नहीं है. अनेक बार नहर में कूदकर या जहर खाकर मरने के बारे में सोचा मगर जीव मात्र का जीवन के प्रति नैसर्गिक आकर्षण मेरे हौसले पस्त कर देता है. शायद नियति ने इसी जन्म में तुम्हारे प्रति मेरे अत्याचार के पाप का दंड भोगने का आदेश दिया है कि मैं तिल तिलकर रोज मारता रहूँ. ताकि अगले जन्म में निर्मल स्वच्छ हृदय से मेरा तुम्हारा मिलन हो सके. मिलोगी न मुझसे, मेरे गुनाह की कलुष अपने हृदय से पोंछ कर.
तीसरा पन्ना – तुम तो कहती थीं कि भगवान ने तुम्हे मेरे लिए और मुझे तुम्हारे लिए ही बनाया है. तुमने तो मेरे रंगहीन शुष्क जीवन को मधुर सप्तरंगों से आच्छादित कर दिया था. तुम तो भगवान से दुआ करती थीं कि हर जनम में हमारा साथ रहे. फिर… फिर क्यों… क्यों इतनी छोटी सी बात पर…. ” . पृष्ठ के नीले स्याही से लिखे शब्द आंसुओं से धूल से गए थे.
अगला पन्ना – “प्रिय रेणुका. तुम्हारे घर वालों ने मुझे जेल में डलवा दिया था. न जाने क्या क्या आरोप लगाकर. अच्छा ही तो हुआ. मुझे मेरे अपराध की सज़ा मिलनी ही चाहिए थी मगर इतनी कि वो हमारी प्यार की निशानी हमारी ‘सोनपरी’ को भी मुझसे छीनकर ले गए. अपनी गुड़िया को सीने से लगाकर इतना रोना चाहता हूँ कि मन पर छाई सारी मैल धुलकर हृदय उज्वल हो जाय. अपना सर्वस्व उसके सामने न्योछावर करके प्रायश्चित वश दुनिया त्याग दूँ.”
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अगला पृष्ठ – “आज हमारी सोनपरी का जन्मदिन है. मैं उसके लिए बाजार से सुन्दर कपडे लाया हूँ. खिलौने लाया हूँ. और सुनो मैंने खीर बनाई है अपने हाथों से. तुम्हे बहुत पसंद थी न. मगर मैं तो खाऊंगा नहीं. तुम्हारे जाने के बाद जीवन में कोई उत्सव नहीं मनाऊंगा, ये निश्चय किया है. मेरे जीवन का उत्सव तो तुम थीं रेणू”.
अगला पन्ना – सुनो रेणुका. आज तुमसे झगड़ा करना है. कैसा सुगन्धित, सौंदर्य, प्रेम, अभिसार और उल्लास से भरा हुआ जीवन था हमारा. घर आंगन और खेत खलियान सब खुशियों से भरे रहते. तुम्हे पता है, मेरे सारे दोस्त मेरे सुखमय जीवन से रश्क करते थे. फिर… फिर आखिर क्यों एक छोटी सी बात पर तुमने इतना बड़ा निर्णय ले डाला कि… तुमने तो हमारी छोटी सी बगिया ही जला डाली. जहाँ प्यार का अतिरेक होता है वहीं तो एक शंका भी होती है. एक डर भी होता है कि कोई हमारे उपवन में सेंध तो नहीं लगा देगा.
आज तुम्हारे सामने अपना मन खोलकर रख देना चाहता हूँ. काश ये तुम्हारे रहते कर पाता. मेरे जीवन में तुम्हारे अवतरण के बाद अनेक बार मुझे लगता कि ये कोई स्वप्न तो नहीं. तुम्हारे जैसी अनिंद्य सुंदरी, मुझ से ज्यादा शिक्षित और बड़े घर से आई मृदुभाषी अनेक कला अलंकारों से अलंकृत लड़की का भला मेरे जीवन में क्या काम. आखिर क्यों तुम जैसे सुन्दर सुगन्धित पुष्प को नियति ने मेरे आंगन में रोप दिया था. और शायद यहीं से मेरे मन में एक विषवृक्ष ने जन्म लिया होगा.
कहीं से एक शंका और एक शक का अंकुर उत्पन्न हुआ होगा कि,कोई कर्कश स्वर मेरा सतरंगी सपना तोड़ तो नहीं देगा. कोई झंझावात मेरे उपवन को उजाड़ तो नहीं देगा. तब क्या पता था कि मेरे ही भीतर से निकली एक चिंगारी हमारी दुनिया में आग लगा देगी.
रात भर जाग जागकर सोचता हूँ कि तुम जितनी कोमलांगी थीं उतना ही संवेदनशील हृदय भी था तुम्हारा. ये मैं क्यों पहचान नहीं पाया. उस दिन जब खेत से लौटा तो गांव की सबसे बदनाम महिला के साथ एक पुरुष को घर से निकलते देखा. ये दृश्य एक पाषाण की तरह मेरे हृदय में पनप रहे विषवृक्ष को जाग्रत कर गया और वो एक सर्प की तरह विषैला फ़न फ़ैलाकर मौत का तांडव करने लगा. क्रोध में इंसान अँधा हो जाता है. मैं बाहर से ही एक शूल सा ह्रदय मे लेकर खेत की और लौट गया. घंटों तुम्हारी चरित्रहीनता की नीच कल्पना करता क्रोध की अग्नि में जलता रहा और खाट पर करवटें बदलता रहा. अँधेरा हो चला था. तुम मुझे ढूंढती हुई खेत पर आईं तो
मैं आंख बंद किये गुस्से में घुल रहा था. अचानक तुम्हारी उपस्थिति ने आग में घी का काम किया और बेतहाशा मेरे मुँह से निकल गया “कुलटा दूर हो जा मेरी नज़रों के सामने से. मैं तेरी शक्ल भी नहीं देखना चाहता”. बस यही तो गुनाह था मेरा और तुम ने घर आकर आनन फानन में अपनी जिन्दा चिता सजा ली थी.
आज सोचता हूँ कि मेरे इन विषैले शब्दों से एक पवित्र हृदया नारी को कितना आघात लगा होगा जो उसने जीवन समाप्ति का निर्णय लिया. लेकिन …….. लेकिन तुम ने हमारी दुधमुही बच्ची के बारे में भी नहीं सोचा. एक पल में मेरी दुनिया उजाड़ दी तुमने. एक बार तो कह दिया होता कि वो तो घर में हमारी गुड़िया को देखने डॉक्टर आया था”.
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अगला पन्ना – प्रिय रेणुका, पूरी दुनिया की निगाहों में, तुम्हारे घर वालों के लिए और अपनी छोटी सी सोनपरी के लिए ही नहीं, मैं अपनी दृष्टि से भी खुद को ही अपराधी मनाता हूँ. जो व्यक्ति एक नारी के अतुल्य प्रेम को, उसकी भावनाओं की संवेदनशीलता और उसकी पवित्रता को न पहचान पाए, उस से बड़ा गुनहगार कौन होगा भला. इसी लिए अपनी लाड़ली से नजरें मिलाने का ताब नहीं ला पाता. पता नहीं क्या सोचती होगी अपने पिता के बारे में कि मेरी माँ का हत्यारा दानव है. वो एक सजायाफ्ता मुजरिम है. एक बार जीवन में उसे देखने भर का मन है किन्तु संभवतः मेरे भाग्य में नहीं है. उसकी आँखों में अपने प्रति गृणा देखने से पहले ही आँख मूँद लेना चाहूँगा.
अगला पन्ना – मेरी प्यारी सोनपरी, मुझे तो तुम्हारा नाम भी पता नहीं. ये तुम्हारा अभागा बाप तुम्हारी दुनिया उजाड़ने का अपराधी है. मैं तो तुम्हे आशीर्वाद देने से भी डरता हूँ कि कहीं मेरे दुर्भाग्य की काली परछाईं तुम्हारी जीवन के उजालों के लिए अभिशाप न बन जाए. हो सके तो अपने अभागे पिता को क्षमा कर देना. बस मेरी एक ही प्रार्थना है मेरी सोनपारी, कि इस घर की संपत्ति और जमीन को मत ठुकराना. उसपर तुम्हारे सिवा किसी का अधिकार नहीं है. अन्यथा… अन्यथा मेरी आत्मा को कभी मुक्ति नहीं मिलेगी.
सौम्या ने खुली डायरी से अपना चेहरा ढक लिया और फुट फूटकर रोने लगी. फिर उठकर उस बिस्तर पर लेट गई जिसपर उसके पिता सोते थे. उसे ऐसा लगा जैसे पिता की गोद से विमुक्त रही जिंदगी आज तृप्त हो उठी है. उसका जनक उसे दुलार रहा है.
रवीद्र कान्त त्यागी