ईशा रोज स्कूल से आके जब बस से उतरती तो गेट पर अपनी जितनी उम्र की लड़की को बैठे देखती । समझ नही आता कि वो इस समय रोज यहाँ अकेली क्यों बैठती है और क्यों ?
शक्ल से वो भिखारी भी नहीं लगती थी न ही उसके हाव भाव ऐसे थे कि कुछ माँगने की आशा कर रही हो किसी से ।
फिर गार्ड से पता चला कि सोसाइटी में चल रहे निर्माण कार्य में उसके माता पिता मजूरी करते हैं तो वो बोर हो कर बाहर यहाँ आकर बैठ जाती है और आने जाने वालों को देखकर दिल बहलाती है। पहले तो वह उसे देखकर वह ऐसे ही निकल जाती लेकिन धीरे धीरे उसे उससे हमदर्दी सी होने लगी तो वो निकलते समय मंद सा मुस्कुरा के चली जाती बदले मै वो भी मुस्कुरा देती ।
अब ईशा ने नोटिस किया बस से उतरते ही उस लड़की की आँखो में एक चमक आ जाती जैसे वो उसी की इंतजार कर रही हो और उससे पहले ही मुस्कुरा कर मानो उसका स्वागत करती ।अच्छा लगता ईशा को अब वो जाते समय हल्का सा हाथ भी हिला देती ।
एक दो दिन में ईशा को देख कर आश्चर्य हुआ कि वो अब उसकी बस आने पर उठकर खड़ी हो जाती जैसे कि उसका सम्मान कर रही हो । ईशा अभिभूत हो जाती । पहले जब उसकी मम्मी लंच में खाने के साथ फ्रूट ,चाकलेट या बिस्कुट का पैकेट रखती तो न खाने पर वो वापिस उसे घर ले जाती अब वो बस से उतरने से पहले ही उन्हें बैग से निकाल कर रख लेती और उसे देती तब पहले तो उसने उसकी आँखो में हलकी सी नाराजगी और शिकायत देखी जैसे कि उसके स्वाभिमान को ठेस लगी हो तब ईशा ने उसे देते हुए प्लीज़ कहा कि उसे ऐसा न लगे कि दयावश दिया जा रहा है फिर उसने लिया और बदले मै
बहुत धीरे से “थैंक्यू” भी कहा ईशा को सुनकर आश्चर्य भी हुआ और खुशी भी ।आजतक उनकी आपस में बात नहीं हुई थी लेकिन भावों के आदान प्रदान से वे एक दूसरे को सब कह समझ लेते थे । वो तो चलो खाली होती थी लेकिन ईशा को घर जाने की जल्दी होती थी और ऐसे कभी किसी से बात भी नहीं की उसने फ्रैन्डस और परिचितों के अलावा।
इस कहानी को भी पढ़ें:
विरोध बना पुष्पहार – लतिका श्रीवास्तव
अब आते जाते वो आपस में हैलो भी करते । जब कभी बिस्कुट चाकलेट देते वक्त ईशा के हाथ उसके हाथ को स्पर्श करते तो उसके स्पर्श की अनुभूति और स्पंदन से अभिभूत हो जाती वो ।
अभी वो बहुत छोटी थी लेकिन फिर सुन सकती थी थी स्पर्श की मूक भाषा से उसे थैंक्स कहना।
बहुत दिनों से जो सवाल ईशा को परेशान कर रहा था आखिर वो उसने एक दिन पूछ ही लिया कि “तुम स्कूल नहीं जाती ?”
तो उसने उत्तर दिया माँ बाबू नहीं भेजते । उसने पूछा क्यों तो जवाब मिला” पता नहीं कहते हैं जरूरत नहीं ।”
ईशा के लिए तो यह बहुत शाॅकिग था । आजकर माता पिता बच्चों के लिए संघर्ष , सामर्थ्य , पैसा और पहचान कुछ भी कैसे भी करके उन्हें उच्च से उच्च शिक्षा देने को जीवन का सर्वप्रथम कर्तव्य और लक्ष्य समझते हैं —- और इसके माँ बाप कहते हैं जरूरत नहीं ।
घर जाकर ईशा ने माँ से यह सब बताया और पूछा कि ऐसे कैसे हो सकता है कि उसके मम्मी पापा उसको नहीं पढा रहे तो मम्मी ने कहा कि” वे लोग खुद पढ़े लिखे नहीं होते तो इसलिए पढ़ाई की वैल्यू नहीं जानते इसलिए हमेशा गरीबी व अभावों में जीते हैं ।यह भी हो सकते है कि उनके पास पढ़ाने के लिए पैसे न हो या साधन या सुविधा न हो। पता नही !!! तुम चेंज करके खाना खाओ।”
लेकिन ईशा के मन में तो उथल पुथल मची हुई थी उसने फिर मम्मी को कहा कि “अगर सिर्फ पैसों की बात है तो हम हेल्प कर देंगे । प्लीज़ आप उनके पैरेन्टस से बात करो ना एक बार ।आप तो एक शिक्षिका रह चुकी हैं और आप काउन्सलिंग भी इतनी अच्छी कर लेती हैं । आपको यह एफर्ट करना ही चाहिए और करना ही पड़ेगा प्लीज़ ।”\
इस कहानी को भी पढ़ें:
विरोध से उन्मुक्त तक – अभिलाषा कक्कड़
ईशा के तर्क संगत अनुनय से अनुत्तरित हो गई राधिका जी और सही तो है एक बच्ची की जिन्दगी की प्रश्न है ,कोशिश तो करनी ही चाहिए ।
अगले दिन मम्मी ने पुन्नी के माँ बाप को बुलाया और उनसे उसको न पढ़ाने का कारण पूछा तो वो कहने लगे कि” हमें कभी कहीं कभी कहीं काम मिलता है तो हम वहाँ ही अस्थायी रूप से बसेरा कर लेते हैं । एक जगह तो रहते नहीं कैसे इसको स्कूल भेजें साथ ही पैसे भी लगते हैं पढाने लिखाने में और तीन चार साल की बात है फिर तो इसकी शादी कर देंगे अपना घर संभाले ।हमारी जिम्मेदारी खत्म । ये कौन सी कलक्टर बन जाएगी पढ़ लिख के।”
उनके ऐसे विचार से मम्मी के अंदर की भूतपूर्व अध्यापिका और समाज सेविका का सोया “फन ” सिर्फ जागा ही नहीं बल्कि फुंफकार उठा , पूर्ण आवेश की उत्तेजना में उन्होंने
बेटी बचाओ- बेटी पढ़ाओ
के सूक्ष्म से वाक्य के अंतर्निहित गहन अर्थ- सार की बेहद विस्तारित और प्रभावकारी व्याख्या कर एक दमदार असरदार लैक्चर ही दे डाला।
अपने वक्तव्यों और उदाहरणों द्वारा शिक्षा का महत्व समझाया। खासतौर पर महिलाओं के लिए और उनकी भावी संतानो के हित के लिए उनकी शिक्षण की अनिवार्यता की इतनी सारगर्भित विश्लेषणात्मक विवेचना की वे सुनकर प्रभावित भी हुए और शर्मिन्दा भी ।
ईशा की मम्मी ने उनसे कहा कि “कल ही वो उनके साथ निकटस्थ सरकारी स्कूल चलेगी वहाँ की प्रधान अध्यापिका उनकी परिचित भी थी ।उसे आसानी से एडमिशन मिल जाएगा । साथ ही यूनिफार्म ,किताबें- कापियां और दिन में आहार की भी व्यवस्था है फिर भी स्टेशनरी या आने जाने के लिए वाहन का जो भी खर्च होगा हम देंगे ।”
मम्मी के इतने लैक्चर के बाद अब तो उन्हें भी कोई आपत्ति न थी इसलिए उन्होंने यह प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया ।
इस कहानी को भी पढ़ें:
आलू टमाटर की सब्ज़ी – कल्पना मिश्रा
अगले दिन पुन्नी का एडमिशन करा दिया गया । ईशा बस से उतरते ही चहकते हुए पुन्नू ने ही यह खुशखबरी सुनाई ।
मम्मी ने उसका नाम बदलकर स्कूल में प्रेरणा लिखवाया अपने नये नाम ने भी उसकी खुशी दोगुनी कर दी थी । ईशा के घर पहुँचने के कुछ देर बाद ही पुन्नू और उसके माता पिता उसके घर आए साथ में आधा किलो लडडुओं का डिब्बा भी था । मम्मी के आगे हाथ जोड़ते हुए उन्होंने उनका अभिनन्दन किया और धन्यवाद दिया ।
इस समय सबकी आँखो में आँसू थे ।
पुन्नू के माता पिता की आँखो में कृतज्ञता के
पुन्नू की आँखो में खुशी के
मम्मी की आँखों में सफलता के
और ईशा की आँखो में जीत के
यानी जाकी रही भावना जैसी —-
पुन्नू की छुटूटी भी लगभग ईशा के समय पर ही होती थी और अगर वो पहले आ भी जाती तो सोसाइटी के गेट पर ही उसका इंतजार करती फिर उससे मिलकर ही जाती । कभी कभी वो शाम को उसके घर भी खेलने आ जाती ।अब वह साफ सुथरे कपड़े पहनती , उसके बोल-चाल , भाषा ,व्यवहार भी परिष्कृत और सलीकेदार हो गया था ।अब दोनों अभिन्न सहेलियाँ बन गई थीँ ।
शिक्षा की वजह से आज अमीरी- गरीबी, ऊँच- नीच ,उच्च- निम्न का भेदभाव मिट गया था ।
पुन्नू के माता पिता अब अपनी बेटी पर गर्वित थे और ईशा की मम्मी उस पर गौरवान्वित।
#भेदभाव
स्वरचित — पूनम अरोड़ा