जय माता रानी की – सीमा वर्मा

   ‘ लंगड़ी , हाँ यही उसका नाम है ‘

मुहल्ले के लोग उसे इसी नाम से पुकारते हैं।

‘ जब भी मेरी यह भक्त कन्या अपने एक छोटे पाँव पर हिलक-हिलक कर अकेली ही आती है। मेरा ध्यान अपने समस्त भक्तों से हट कर उस पर ही केंद्रित हो जाता है,

‘ अपनी हँसी उड़ाए जाने के डर से मुझे वह हमेशा एकाकी लगती है  ‘

मुझे पुजारी के चेहरे पर उसके लिए सदैव ही साफ भर्त्सना दिखती है।

— सदा की भांति आज भी उसने अनायास ही उस बिचारी को चिड़चिड़ा कर कहा है ,

‘ परे हट, कहाँ घुसी चली आ रही है सबके बीच में ‘कलूटी-लंगड़ी देख नहीं रही सभी भक्तजन आ जा रहे हैं’

‘ वह सांवली सी कन्या जिसकी उम्र करीब पन्द्रह- सोलह साल की है। वह मुहल्ले की ही ठेलेवाले रामखेलावन की बेटी है’

वह शायद अपने आप से खफा है या फिर दुखी ? ‘

उसके जन्म के साथ ही उसकी मां चल बसी थी। लिहाजा जन्म से ही ‘माँ को खा लेने वाली ‘ जैसे कटु वचनों को सुन कर बड़ी हुई कन्या को पिता ने बहुत मुश्किलों से संभाला है।

बाकी घर में तो सबने हाथ उठा दिए थे,

‘ हुंह … अब न जाने किस पर गाज़ गिराएगी ?

वह कन्या इतनी धीमी आवाज़ में बोल  रही है जिसे सिर्फ मैं ही सुन पा रही हूं।

‘ मां ! दया करो ‘

जब सबने किनारा कस लिया था तब बाबू ने रूई के फाहे से बकरी के दूध को मृत-संजीवनी मान बूंद-बूंद मुँह में टपका कर मुझे जिला तो दिया




पर अब … उस राक्षस के वहशीपन से कैसे लाज बचेगी मां ?

वह मन ही मन बुदबुदाती हुई शायद मुझसे ही मुखातिब हो रही है,

‘ हे माँ, तू तो अंतरयामी है मेरी व्यथा समझती है ना ? ‘

फिर तुरंत ही बाज़ू में खड़ी भक्तिन को देख सकपका कर किनारे हो गई।

‘ मेरी सब समस्याओं का समाधान तो नहीं हो सकता पर तू तो सबकी पालनहार है ना ‘ माँ’ 

‘ अब तो बाबू भी बूढ़ा हो चला है।

कितने दिन अकेले ठेला खींच पाएगा ?

मैं भी किसी काम के काबिल नहीं हूं ‘

वह लगातार अपने को कोस रही है।

‘ उसे यूं चुपचाप अकेली कोने में खड़ी देख मेरी कृपा उस पर बरसना ही चाहती थी कि ,

अचानक पुजारी की ,

‘ निकलो… चलो निकलो… चलो सभी खाली करो संध्या आरती का वक्त हो चला है ‘

सामने से मुहल्ले के बाहुबली को आते देख उस लंगड़ी कन्या ने भय से आंखें मूंद ली हैं,

‘ इसी राक्षस ने कल खोली की सांकल तोड़ अनाधिकार घुसने का प्रयास किया था।

उस समय तो मैं अंधेरे का फायदा उठा पीछे से इसके कंधे पर चाकू से वार कर के बच गई थी।

लेकिन अब तो मेरी खैर नहीं है ‘

उस गुंडे को देख कर सब आजू-बाजू हट गये हैं।




पर मैं लंगड़ी कहां जाऊं इसके डर से जल्दी से भाग भी नहीं सकती हूं ? 

नहीं मैं भागूंगी भी नहीं।

अभी माता रानी के मंदिर में खड़ी हूं। सामने खड़े इस नराधम का सामना करना ही होगा ‘

‘हे मां! मुझे शक्ति और इसे सद्बुद्धि दे मां’

बुदबुदाती हुई लंगड़ी कन्या निशंक हो कर तेज से भरी आंखें खोल कर‌ गुर्राई है ,

‘ अगली बार अगर खोली में घुसने की कोशिश की तो पीछे से नहीं आगे से वार करूंगी ‘

उसकी ओज भरी वाणी सुनकर वह गुंडा भी थर्रा गया।

उसकी हिम्मत देख कर ,

‘ मैं ‘जगतजननी अम्बे’

उसे भर-भर कर आत्मविश्वास, और उसकी कठिन जिंदगी को तसल्ली से जीने की इच्छा से… उसके मन के उदास क्षितिज को सतरंगी रंगों से भरने का आशीर्वाद दे दिया है ‘

शाम का धुंधलका अब स्याह हो चला है।  मैं देख पा रही हूं,

वह संतुष्ट भाव से भरी हुई नीडर हो कर वापस लौट गई है।

घर के दरवाजे पर ही बाबू को अपनी बाट जोहते देख कह उठी,

‘ क्या बात है बाबू ? यह वक्त तो तेरे ठेले लेकर निकलने का होता है ‘

‘ कैसे निकलूँ ?

तुझ जैसी सयानी बिटिया को अकेली छोड़ कैसे निश्चिंत… रहूं?

अचानक लंगड़ी मजबूत आवाज में बोल पड़ी ,

‘ क्यों ?

डरने की कोई बात नहीं है ‘

चल बाबू, अब तू भी कहाँ ठेला अकेला खींच पाता है ? ‘

आज से मैं बिकवाली में तुम्हारे साथ ही रहा करूंगी हम दोनों मिल कर व्यापार बढ़ाएंगे बाबा ‘

सीमा वर्मा / नोएडा

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