उसे जो कुछ मिला था जिंदगी में उसमें वो खुशी नहीं ढूंढ सकी… क्योंकि और ज्यादा और ज्यादा का लालच उसके दिलों दिमाग पर काबिज़ था…वो तो रूकने को तैयार ना थी पर जिंदगी को तो रूकना था ना!
निशा की सबसे प्यारी दोस्त विजया की भाभी ने विजया के बारे में पूछने पर बताया,जो बाजार में मिली थी।
ये आप क्या कह रहीं हैं भाभी… मैं समझी नहीं विजया तो लालची थी ही नहीं कभी,किस लालच की बात कर रही है आप—निशा बोल पड़ी।
घर पर आओ ना निशा..आराम से बात करेंगे–बाजार की भीड़ और चिल्लपों देखकर भाभी ने कहा तो निशा को भी उनकी बात सही लगी।
पिछले पंद्रह दिनों से पति और उसके बीच तानातानी चल रही थी,पुरानी छोटी कार से उसका जी जब गया था तो वो बड़ी कार लेना चाहती थी जबकि पति अभी साल भर उसी से काम चलाना चाहते थे… दोनों के बीच बातचीत बंद थी..चौबीस घंटे नई कार ही घुम रही थी दिमाग में…।
पर आज विजया की भाभी से मिलने के बाद रात भर विजया के बारे में ही सोचती रही वो…बात विचार
और सोच में बेहद सीधी सादी तेल चुपड़े बालों दो चुटिया बना बनाकर स्कूल से काॅलेज निकाल देने वाली विजया के मन में कहां से और कैसे ऐसा लालच समाया जो भाभी ने ऐसी बात की,क्या हुआ उसके साथ जाने कहां है अभी वो…सुना था शादी भी ठीक ठाक घर में ही हुई थी…दो बच्चियां भी हो गई थी जल्दी जल्दी।अब तो उसके घर जाकर ही पता चलेगा कल।
अगले दिन निशा विजया के घर पहुंची तो विजया की मां बाहर ही कुर्सी पर बैठी मिल गई…निशा तो उन्हें झट से पहचान गई पर वो उसे नहीं पहचान पाई तभी पैर छूते ही पूछ बैठी…
कौन हो बेटी…विजया की कोई खबर लाई हो क्या??
चाचीजी मैं निशा…विजया की दोस्त..भूल गई आप..वो चित्रपति मार्केट में मेरा घर है ना…मैनेजर थे पापा..अब तो एक बेटी की मां हूं…
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अच्छा अच्छा…याद आ गया… बहुत अच्छा किया जो मिलने चली आई…देखो ना विजया को पुलिस पकड़कर ले गई है..बिना जुर्म किये ही,अब दो दो बेटियों को उसकी कौन देखेगा भला बताओ तो…।
विजया को पुलिस पकड़ कर ले गई है,भला क्यों उसने ऐसा क्या कर दिया आखिर???
अरे…आप निशा… अंदर आओ ना.. मम्मीजी निशा को लेकर अंदर आइए ना बाहर क्यों बैठा रखा है —तब तक में विजया की भाभी आ गई उसी ने कहा।
निशा जी…विजया के पति क्लर्क थे..सैलरी तो कम ही थी पर इतनी कम भी नहीं कि कुनबे का गुजारा ना हो पाए, पर ऊपरी कमाई इतनी थी कि पूछिए मत…। शुरू शुरू में तो सिद्धांत पर चलने वाली विजया ने उन पैसों से बहुत परहेज किया..पर पैसों की माया से कोई कितने दिनों तक बचकर रह सकता है….तीन चार साल में ही विजया का चेहरा मोहरा ही नहीं विचार और स्वभाव भी बदल गया,जेवर से लक थक ,पैसों में खेलने वाली सेठानी बन गई …पैसा इतना सर चढ़कर बोलने लगा कि उसने तो यहां अपने मायके आना तक छोड़ दिया था….हम उसके स्टैंडर्ड के जो नहीं रहे थे।–भाभी बोलकर थोड़ी चुप हुई फिर बोलना शुरू किया
बजाय पति को सही राह दिखाने के वो भी उनके जुर्म में बराबर की भागीदार बनती गई…ये पाप का घड़ा तो फूटना तो एक ना एक दिन तय ही था…इसी बीच जाने कहां से विजया को बेटे का भूत सवार हो गया… तीन बार गर्भपात करवाया…फिर पता नहीं कहां से भ्रुण जांच के चक्कर में पड़ी… जहां जांच करवा रही थी वहां पुलिस का छापा पड़ा और उसे पुलिस पकड़ कर ले गई…और मुसीबत कभी अकेली तो आती नहीं…इधर किसी की शिकायत पर उसके घर भी इनकम टैक्स का छापा पड़ गया..उधर पत्नी जेल में थी ही पति भी जेल पहुंच गया…. ससुराल वालों का तो आपको पता ही होगा कितनी जल्दी बदलते हैं, दोनों बेटियों को देखने वाला तक कोई नहीं रहा…
फिर ??
फिर क्या…अतुल और रेखा जाकर दोनों को ले आए हैं, दोनों बच्चियां बड़ी सहमी सहमी सी रहती है…अभी अतुल दोनों को टहलाने लेकर गया है पार्क में… पता नहीं मेरी बच्ची की हंसती खेलती गृहस्थी को किसकी नजर खा गई बेटा?–कहकर चाचीजी रोने लगीं।
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किसी की नजर नहीं मम्मीजी उनके अंदर पैदा हुए लालच ने उन्हें तबाह कर दिया…हम इंसानों को तो जल्दी संतोष करना नहीं आता ना…जो मिला जितना मिला उसे भाग्य समझकर नहीं सहेजते और पाने के लालच में जो मिलता है उसमें खुशी नहीं ढूंढ पाते… सैलरी में बचत कर और दोनों बेटियों में ही अपना बेटा तलाश कर अगर विजया खुश रहना सीख लेती तो आज एक आदर्श परिवार बना कर रहती…
तो दोनों के जेल से छूटने तक??
तीन चार साल तो लग जाएंगे…क्योंकि वकील ने बहुत कोशिश की पर सुबूत इतने पुख्ता थे कि सजा मुकर्रर होने से बचा नहीं पाए…तब तक दोनों बच्चियों को तो हम रख लेंगे..पर बाहर आने के बाद शायद जीवन इतना भी आसान ना रहे दोनों के लिए यही चिंता है, सबकुछ नए सिरे से शुरू करना तो फिर भी ठीक है,समाज में इज्जत खोई फिर भी कोई नहीं…पर अपनी दोनों बच्चियों की नजर में कैसे खुद को सही और इज्जतदार सिद्ध करेंगे दोनों…बच्चे के लिए तो मां बाप ही भगवान होते हैं…उनका तो सबसे विश्वास ही उठ गया है लगता है..
तबतक में अतुल अपने बेटे और विजया की दोनों बेटियों को पार्क से लेकर आ गया था…।
बड़ी बेटी बिल्कुल विजया की प्रतिरूप थी…वैसी ही शांत सी..शायद परिस्थितियों के कारण सहमी हुई सी…बस ऊपरवाला दिमाग मां सा नहीं दे यही प्रार्थना करेगी वो …वापस लौटती हुई निशा का दिल बहुत दुखी था।
समझ गई थी अच्छे से जिंदगी जितना हमें देती है उसमें अगर हम खुश नहीं हो पाते तो वो वापस भी ले लेती है और पीछे छोड़ जाती है अफ़सोस, तकलीफ़ें और दुख….!जो है उसमें खुश होना सीख लेना ही जिंदगी का सबसे बड़ा सबक है….जाकर कह देगी पति से नहीं चाहिए बड़ी सी कार..उसकी छोटी सी कार बहुत है… संतोष आ गया था मन में निशा के..।
स्वरचित, अप्रकाशित एवं मौलिक
#ज़िंदगी
मीनू झा
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