मेरी आँखों के सामने से दूर हो जा सुरभि! ससुराल से शिकायत और ऐसी कि मेरी परवरिश पर ही उँगली उठ गई , क्या यही संस्कार दिए थे मैंने कि कल को कोई ये कहें कि आपकी बेटी में तो इंसानियत ही नहीं है , पर तेरा भी क्या क़सूर है… हमारे दिए संस्कारों में कोई कमी रह गई होगी जो इतना बड़ा उलाहना आया ।
मम्मी! कितनी बार कहूँ कि बाबा के ब्रेनहैमरेज का कारण मैं नहीं हूँ । वे दो साल से चारपाई पर हैं । क्या कभी मम्मी- पापा या घर के किसी भी सदस्य ने ये कहा कि बाबा की सारी ज़िम्मेदारी सुरभि के ऊपर है और आज बाबा कोमा में चले गए तो सबने मुझे ज़िम्मेदार ठहरा दिया, बिना यह जाने कि उनके साथ क्या हुआ, कैसे हुआ?
चुप रह । अगर दो साल से तू बाबा का ख़्याल रख रही है तो कोई अनोखा काम नहीं किया और बच्चे किस लिए होते हैं? अगर तू अपनी ज़िम्मेदारी निभा रही है तो क्या इश्तहार छपवा देने चाहिए ?
ठीक है, आपको अपनी बेटी पर भरोसा ही नहीं तो क्या करुँ?
पर ….
सुरभि कुछ कहना चाहती थी पर पति सुमित को अपनी तरफ़ आता देख चुप हो गई । वह मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि किसी तरह बाबा को होश आ जाए … नहीं तो उम्र भर ससुराल वाले तो क्या, उसके माता-पिता भी उसे ही बाबा की मौत का ज़िम्मेदार ठहराएँगे । पति सुमित ने सास को देखकर कहा —-
आप कब आई हास्पिटल मम्मी ? सुरभि! अब यहाँ बैठकर क्या होगा, मुन्नु भी सुबह से रोए चला जा रहा है और घर में बाबा का पता लेने वालों की भीड़ है , अकेली मम्मी क्या-क्या देखेंगी । मैं तुम्हें छोड़कर बाद में आ जाऊँगा, पापा हैं अभी यहाँ ।
सुमित ठीक कह रहा है । जाओ सुरभि, घर को सँभालो । कविता जी की उम्र नहीं है इतना भागदौड़ करने की….और देखो , अगर इस समय कोई कुछ कहे तो ज़ुबान को नियंत्रण में रखना , ज़्यादा सफ़ाई देने की कोशिश मत करना , मैं और तेरे पापा भी निकलते हैं ।
सुरभि चुपचाप सुमित के साथ चली आई । घर में पैर रखते ही पड़ोस की भीड़ को देखकर उसका मन घबरा गया ।
अरी बहू , क्या हो गया था बाबाजी को ? तुम्हें अकेला नहीं छोड़ना चाहिए था उन्हें ।
हाँ…. जाना था तो अपनी सास को बुला लेती , फिर जाती ।
क्या पता बेचारे बाबा को कितनी परेशानी हुई होगी ? ये आजकल के बच्चे ना समझते कुछ भी……
वो तो अभी लड़कियाँ ना आई , पूछेगी भाभी से कि बहू के ऊपर ज़िम्मेदारी क्यों छोड़ी थी? बताओ , बेचारी कविता क्या जवाब देगी ?
आराम से बैठी हुई औरतों की बातें सुनकर सुरभि का मन किया कि ज़ोर-ज़ोर से चीखकर कहे सबको कि दूसरे के घर में नमक- मिर्च लगाकर क्या दिखाना चाहती है? पर वह चुप रही । उसने मुन्नु को गोद में लिया और रसोई में बर्तन साफ़ करती पुष्पा के पास जाकर धीरे से कहा——
पुष्पा, प्लीज़ एक कप चाय बनाकर कमरे में पकड़ा दे , सिर फटा जा रहा है । और सुन , चाय स्टील के गिलास में डालकर लाना ।
उसे पता था कि अगर किसी ने कमरे में जाता कप देख लिया तो और आग में घी पड़ जाएगा । सुरभि मुन्नु को दूध पिलाने लगी ।
आज बाबा को हास्पिटल में गए चौथा दिन था और घर में आने- जाने वालों का जमावड़ा लगा रहता था । सुरभि पूरा दिन एक टाँग पर खड़ी रहती थी । घर के रोज़मर्रा के काम , आने-जाने वालों के चाय- खाने का बंदोबस्त, मुन्नु को सँभालना और कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष रूप से लोगों की बातें ।
आज जब रात ग्यारह बजे सुमित हास्पिटल से घर लौटा तो उसे देखकर सुरभि की आँखों में पानी भर आया —-
सुमित, डॉक्टर क्या कह रहे हैं? इस तरह तो तुम बीमार पड़ जाओगे । सुबह सात बजे पहुँच जाते हो , वहाँ पूरा दिन भागदौड़ और देर रात तक आना । कल से सुबह का नाश्ता लेकर मैं चली जाया करूँगी । सुबह तो सात से नौ बजे के क़रीब तक मुन्नु सोता है, तब तक पुष्पा आ जाती है, उसे सँभाल लेगी तुम आराम से नहा- धोकर आ ज़ाया करना ।
तुम कौन सा यहाँ ख़ाली रहती हो …
बस इतना सुनना था कि सुरभि की हिचकी बँध गई । इतने दिनों का उफान बाहर निकल गया ।
रोओ मत सुरभि, कोई कहे ना कहे पर मैं जानता हूँ, तुम किस तरह बाबा का ख़्याल रखती थी । हम तो चार दिन में ही उफ़ करने लगे पर तुम पूरे दो साल से बाबा की माँ बनकर एक बच्चे की तरह देखभाल कर रही थी ।
आप दिल से कह रहे हो?
हाँ सुरभि! भले ही कोई ना कहे पर सबका दिल जानता है कि बाबा की सही अर्थों में सेवा तुम ही करती हो पर अब किसी को जवाब देने का समय नहीं है, ईश्वर जानता है वो अपने बंदों के साथ कभी नाइंसाफ़ी नहीं होने देता ।
आज सुरभि के दिल को तसल्ली मिली । आख़िर पति ने तो उसे क़सूरवार नहीं ठहराया । सुरभि की आँखों से नींद कोसों दूर थी । वह लगातार भगवान से प्रार्थना किए जा रही थी—
बस एक बार बाबा को ठीक कर दो भगवान जी ! नहीं तो वह हमेशा अपराध बोध से ग्रस्त रहेगी । उसे याद आया कि दो साल पहले बाबा का पीठ का निचला हिस्सा लकवे के कारण बेकार हो गया था । दवाइयों और एक्सरसाइज़ के बाद वे वॉकर के सहारे घूमने लगे थे । रात में उठाने- बिठाने के लिए दो सेवकों का इंतज़ाम कर रखा था क्योंकि बेटा खुद डायबिटीज़ का रोगी था और सुमित के लिए भी रात की ड्यूटी असंभव थी इसलिए दो सेवक रख लिए जो रात नौ- दस बजे आते और सुबह पाँच बजे चले जाते थे ।
उस दिन भी हरिराम और सोमेश्वर बाबा को शौच आदि से निवृत्त कराके उनके कमरे से बाहर चले गए और वह चाय लेकर उनके कमरे में गई तभी पापाजी भी आए , उन्होंने बाबा का हाल-चाल पूछा, वहीं पास बैठकर चाय पी और जाते- जाते कहा —
सुरभि बेटा ! मैं खेतों की तरफ़ चक्कर लगा आता हूँ । सुमित को भी उठा देना । आज बाग के फलों का ठेका भी देना है ।
सुरभि ने बिस्तर पर लेटे बाबा के चेहरे को गुनगुने पानी में डुबाए रुमाल से पोंछा और कहा—-
बाबा , आज नाश्ते में क्या खाओगे?
दलिया बना लेना , अख़बार आ गया क्या ? खबरें तो सुना दे बेटा ।
बाबा ! पहले भजन लगाती हूँ और आपके पैरों पर मालिश कर देती हूँ फिर खबरें सुनाऊँगी । बाद में मुन्नु उठ जाता है ।
रहने दे मालिश , अब इन बूढ़े पैरों को ताक़त की ज़रूरत नहीं है ।बाद में सुमित या महेंद्र कर देंगे ।
बाबा ! मैं अच्छी मालिश नहीं करती क्या ? आपकी सेवा करके मुझे बड़ा सुकून मिलता है । आप इस परिवार की ताक़त हो बाबा ! आपने कल भी मालिश नहीं करवाई थी पर आज मैं आपका कहा नहीं मानूँगी ।
मास्टरनी है तू , चल कर दे , नहीं तो पूरा दिन मुँह फुलाए घूमेगी ।
फिर नाश्ता करवाया , उसने और सुमित ने बाबा को नहलाया , वह पूरा दिन बाबा के आसपास ही रहती ताकि उन्हें कोई परेशानी ना हो । मुन्नु को ज़्यादातर पुष्पा खिलाती थी क्योंकि बाबा के पैरों की एक्सरसाइज़, मालिश, दवाइयों, कभी जूस कभी खाना , दिन भर कब गुजर जाता पता नहीं चलता था । सब बहुत बढ़िया था बस एक बात की कभी-कभी कमी खलती कि सास- ससुर या सुमित के मुँह से एक बार भी नहीं निकलता था कि सुरभि! तुमने बाबा की सारी ज़िम्मेदारी लेकर हमें कितना निश्चित कर रखा है क्योंकि मानव स्वभाव है कि प्रशंसा हर कोई चाहता है ।
बस वह मनहूस पल जब उसने बाबा को बाथरूम ले जाने के लिए वॉकर के सहारे खड़ा किया, अंदर शीट पर बैठा दिया तभी मुन्नु के रोने की तेज आवाज़ से वह यह कहते हुए भागी—-
बाबा ! वहीं बैठे रहना… निकलना मत …. मैं आई ….
कमरे में आकर देखा तो मुन्नु बिस्तर से गिर पड़ा था क्योंकि पुष्पा उसे सोता देख मम्मी जी के साथ रसोई में काम करवा रही थी । शुक्र था कि होंठ पर चोट लगी थी, सिर बच गया था । अभी मुन्नु को चुप करवा ही रही थी कि धड़ाम की आवाज़ आई । कोई अनहोनी जान बाबा ने वॉकर लेकर अकेले ही खड़े होने की कोशिश की …. बस इसी कोशिश में शायद संतुलन बिगड़ गया और उनका सिर दीवार से जा टकराया . जब तक सुरभि उनकी तरफ़ दौड़ी , वॉकर पलट चुका था और वे औंधे मुँह ज़मीन पर पड़े थे ।
तूने मुझे आवाज़ क्यों नहीं लगाई , जाने से पहले ?
मम्मी जी, इतना समय कहाँ मिला ? मुन्नु की आवाज़ से मैं घबरा गई और मैंने बाबा से कहा भी था कि बैठे रहना । आप पापाजी और सुमित को फ़ोन करने से पहले बाबा को गाड़ी में लिटवाइए , मैं जल्दी से हास्पिटल ले जाती हूँ।
दोनों सास- बहू और घर के दूसरे नौकर ने बड़ी मुश्किल से बाबा को गाड़ी में लिटाया । और वे बाबा को हास्पिटल लेकर पहुँची ।
सास ने दस मिनट के अंदर उसके मायके में फ़ोन कर दिया —-
सुरभि ने बड़ी लापरवाही की , बाबा को बाथरूम में बैठाकर अपने कमरे में चली गई । अरे , मुन्नु को देखने के लिए तो पुष्पा है । हम तो नौकर लगा रहे थे बाबा के लिए पर इसने खुद ही कहा था कि नौकर सेवा थोड़े ही करेंगे वे तो सर्विस करेंगे । बताओ , ये कहाँ की इंसानियत हुई कि एक अपाहिज आदमी को अकेला बैठाकर छोड़ आई ।
और उसकी अपनी मम्मी ने भी पूरी बात कहने- सुनने का मौक़ा दिए बग़ैर उसे दोषी ठहरा दिया । जिस बात से सुरभि डर रही थी सुबह वही मनहूस खबर हास्पिटल से आ गई—-
बाबा नहीं रहे ।
पूरे घर में ही नहीं, मोहल्ले में शोक छा गया । घर में हर किसी को सांत्वना मिल रही थी सिवाय सुरभि के….. दबे स्वर में सुरभि को ही बाबा की मृत्यु का दोषी करार दे दिया गया । बाबा की अर्थी उठने के लिए तैयार थी पर सुरभि की हिम्मत नहीं हो रही थी कि लोगों की घूरती नज़रों का सामना करके , वह कैसे अपने बाबा को चादर उढाए, कैसे उनका अंतिम आशीर्वाद ले ….. क्या उसकी सास को भी याद नहीं रहा ?
अरे , कोई मुन्नु को तो लेकर आओ , पडपोते से बाबा के चरण स्पर्श करवाओ ।
तभी सहसा सुरभि के कानों में अपने ससुर की आवाज़ पड़ी—-
सुरभि…. बेटा , अपने बाबा को चादर उढा कर उनका आशीर्वाद लो …. जाना तो एक दिन सबको है । तुमने अपना फ़र्ज़ बहुत बढ़िया निभाया । बाबूजी की आत्मा संतुष्ट होकर जा रही है ।
हाँ बेटा सुरभि, भगवान तो ले जाने के बहाने बनाता है । चल , खुद भी आशीर्वाद ले और मुन्नु को भी दिलवा दे ।
सास की बात सुनकर सुरभि ऐसी दहाड़ मारकर रोई जैसे किसी गाय के बछड़े को उससे दूर किया जा रहा हो ।
जब बाबा की तेरहवीं के बाद मम्मी ने सुरभि से कहा — बेटा , मुझे माफ़ कर दे । पता नहीं क्यों मैंने अपनी परवरिश और अपने दिए संस्कारों पर शंका जताई तो आज सुरभि को सुमित की कहीं वो बात याद आ गई जब उसने कहा था कि ईश्वर अपने बंदों के साथ कभी बेइंसाफ़ी नहीं होने देता ।
लेखिका : करुणा मलिक