Moral stories in hindi : ” आप यहाँ बैठिये भाईसाहब…मैं अभी पानी लेकर आती हूँ।” सोफ़े की ओर इशारा करते हुए सुनंदा जी अपने समधी प्रशांत बाबू को कहकर रसोई में चली गईं।तभी दिवाकर बाबू भी प्रशांत बाबू का सामान लेकर आ गये और बोले,” अब आप यहाँ आराम से रहिये।”
” मैं यहाँ… कैसे…, ये तो.. मेरी बहू का घर…।” प्रशांत बाबू हिचकते हुए बोले।
” तो क्या हुआ…ये घर आपका भी है।” हँसते हुए दिवाकर बाबू बोले तो प्रशांत बाबू सकुचा गये, लोग क्या…।
दिवाकर बाबू एक सरकारी दफ़्तर के मुलाज़िम थें।उनकी पत्नी सुनंदा सरल स्वभाव की एक कार्यकुशल महिला थीं।दंपत्ति के दो बेटियाँ थीं।पति-पत्नी ने अपनी दोनों बेटियों को उच्च शिक्षा और अच्छे संस्कार देने में ज़रा भी कमी नहीं की थी।बड़ी बेटी कुसुम का हाथ तो उनके ऑफ़िस के पिछले बाॅस श्री मुरलीधर साहब ने अपने बेटे आकाश के लिये स्वयं आगे बढ़कर माँग लिया था।छोटी बेटी सुमन भी अब बड़ी हो रही थी।बीए करके वह राजनीति शास्त्र में एमए कर रही थी।
सुमन देखने में जितनी सुन्दर थी, स्वभाव में उतनी ही मिलनसार थी।सुनंदा जी अक्सर ही अपने पति से कहती,” कुसुम के लिये तो खुद रिश्ता चलकर आया था लेकिन सुमन के लिये तो आपको घर से निकलना ही पड़ेगा।” तब हँसते हुए दिवाकर बाबू कहते, ” भगवान पर भरोसा रखो भाग्यवान.., सुमन के लिये भी….।”
” आपसे तो बात करना ही बेकार है।” पैर पटकती हुई सुनंदा जी फिर अपने काम में लग जाती।
एक दिन दिवाकर बाबू के बहनोई ने प्रशांत जी के बारे में बताया कि मेरे सहकर्मी है।स्वभाव से सरल और मिलनसार।एक बेटा विवाहित है और दूसरा सुशांत है जो दिल्ली के एक प्राइवेट कंपनी में का काम करता है।उसी के लिये वधू तलाश कर रहें हैं, आप कहें तो मैं बात करूँ।दिवाकर बाबू बोले, ” वैसे तो सब ठीक है लेकिन हम ठहरे मध्यमवर्गीय… दहेज़ की रकम कहाँ से…।”
” नहीं-नहीं भाईसाहब….दहेज़ लेने-देने वाली तो कोई बात ही नहीं।उनका परिवार हमारे-आपके जैसा ही है।आप एक बार मिल लीजिये…तो फिर अपनी राय दीजिए।”
बहनोई के कहने पर एक रविवार दिवाकर बाबू प्रशांत जी के घर चले गये।थोड़ी बातचीत के बाद प्रशांत जी बोले कि कुछ दिनों में सुशांत आ रहा है।तब हम लोग आते हैं।बच्चे आपस में मिल ले तो अच्छा रहेगा।
” जी…यह तो बहुत ही अच्छा रहेगा।” दिवाकर बाबू तो प्रशांत जी के व्यवहार से बहुत खुश थे।
कुछ दिनों के बाद प्रशांत जी सपरिवार दिवाकर बाबू से मिलने गये।बातचीत हुई और बच्चों ने भी आपस में मिलकर अपनी रज़ामंदी दे दी तो उसी समय सगाई की रस्म अदायगी हो गई और सुमन के इम्तिहान खत्म होते ही एक शुभ मुहूर्त में में दोनों का विवाह हो गया।दो दिन बाद सुशांत दिल्ली चला गया और सुमन अपने सास-ससुर के पास रह गई।
एक दिन दिवाकर बाबू बेटी से मिलने उसके ससुराल गये।वे दरवाज़े पर ही थे कि उन्हें समधिन की आवाज सुनाई दिया,” इसमें पूछना क्या है बेटी…ये घर तुम्हारा भी है।जिस भी रंग के पर्दे लगाना चाहती हो, लगा लो।” सुनकर उनका हृदय प्रफुल्लित हो उठा था।
कुछ दिनों के बाद सुशांत आया तो सुमन उसके साथ चली गई।साल भर जब सुमन एक बेटे की माँ बनी तो दोनों परिवारों ने मिलकर खुशियाँ मनाई।
प्रशांत जी रिटायर हो गये, छह महीने बाद दिवाकर बाबू।अब दोनों परिवार मिलकर कहीं घूमने चले जाते तो कभी बैठकर घंटों अपने-अपने बच्चों की बातें करतें तीज-त्योहारों पर उनके बच्चे आ जाते तो कभी वे उनके पास चले जाते।
एक दिन सुशांत का फ़ोन आया।पिता से कहने लगा,” पापा…कनाडा जाने का अवसर मिल रहा है, क्या करुँ…चला गया तो आप अकेले…।”
पिता अपने बेटे की तरक्की में कैसे बाधक बन सकता था।प्रशांत जी तुरंत बोले,” अकेले कहाँ बेटे…तुम्हारी माँ है।फिर तुम्हारा भाई निशांत भी तो है।बेफ़िक्र होकर जाओ।”
सुशांत सपरिवार कनाडा शिफ़्ट हो गया।फ़ोन से अपनों की खैर- खबर लेता रहता था।कुछ दिनों से प्रशांत जी की पत्नी अस्वस्थ रहने लगी थी।इलाज़ के बाद भी उनके स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ और एक दिन प्रशांत जी को अकेला छोड़कर उन्होंने हमेशा के लिये अपनी आँखें बंद कर ली।उस समय प्रशांत जी के दोनों बेटों ने कहा कि पापा…आप हमारे साथ चलिये।दिवाकर बाबू ने भी यही सलाह दी कि बच्चों के साथ रहेंगे तो दिल बहला रहेगा।लेकिन उन्होंने कहा,” अपना देश और अपने वतन की मिट्टी को मैं कैसे छोड़ दूँ।”
बेटों ने उनके पास जीवन नाम का एक लड़का रख दिया और वापस चले गएँ।दिवाकर बाबू का अब अधिकांश समय प्रशांत जी के साथ ही बीतने लगा था।कुसुम भी आकर अपने माता- पिता से मिल लेती थी।
एक दिन दिवाकर बाबू रात का खाना खाकर पत्नी के साथ पार्क में टहल रहे थें कि अचानक जेब में रखा मोबाइल फ़ोन बज उठा।जीवन की आवाज़ घबराई हुई थी,” चाचा जी….बाबूजी की साँस फूल रही है।भईया जी को फोन लगाने नहीं दे रहे,…आपको भी उनसे
छिपाकर ही फोन कर रहे हैं।”
फिर तो दिवाकर बाबू ने तनिक भी देरी नहीं की और पत्नी संग प्रशांत जी के घर दौड़ पड़े।एंबुलेंस बुलाकर उनको अस्पताल ले गये और भर्ती कराया।उनका बीपी-शुगर लेवल अचानक बढ़ गया था।तीन दिनों के बाद जब उन्हें डिस्चार्ज किया गया तो दिवाकर बाबू उन्हें अपने संग घर ले आये और बोले कि अब आप हमारे संग रहेंगे।इसी पर प्रशांत जी ने आपत्ति व्यक्त की,” लोग क्या कहेंगे…बेटे के ससुराल में….।”
” बेटे के ससुराल में संकोच कैसा…अच्छा-अच्छा…,अब समझा। हम दो हैं और आप सिंगल! कोई बात नहीं…हम आपका भी विवाह….।” दिवाकर बाबू की मज़ाकिया बात सुनकर उतनी कमज़ोरी में भी प्रशांत जी को हँसी आ गई।बोले,” आप जीते और मैं हारा…लेकिन कुछ दिनों के बाद…।”
” ठीक है-ठीक है…।” दिवाकर बाबू बोले तभी उनके मोबाइल पर निशांत का फ़ोन आया,” अंकल….पापा फ़ोन नहीं उठा रहें…वो ठीक तो हैं…मैं आऊँ….।”
” नहीं बेटा….प्रशांत जी तो हमारे साथ ही बैठे हैं.. खूब ठहाके लगा रहें हैं।तान्या बिटिया की परीक्षाएँ हो जाये तब आ जाना।”
प्रशांत जी ने भी निशांत से यही कहा।बेटा घबरा न जाये, इसलिये अपने बीमार होने की बात वे छिपा गये।पिता तो ऐसे ही होते हैं…अपना दुख छुपाकर बच्चों को खुशियाँ देते हैं।
यह सच है कि ऐसे जीवंत रिश्ते समाज में हमें देखने को कम मिलते हैं लेकिन जो हैं वो समाज के लिये एक उदाहरण है।
विभा गुप्ता
# ये घर तुम्हारा भी है स्वरचित