हम दोनों – मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

कॉलेज पास करने के बाद जो सबसे बड़ी चुनौती थी वो ये नहीं थी की जिससे बचकाना प्रेम किया उससे शादी होगी या नहीं?(हो जाता है न कॉलेज में, वो फ़िल्मी वाला प्यार, हिरो और हिरोईन प्यार किए, फिर घरवालों ने शादी करा दी… कहानी ख़त्म)

बल्कि चुनौती थी तो बस ये की छोटे शहर से पढ़ाई करने के बाद बड़े शहर में कैसे कोई मुक़ाम हासिल कर पाऊँगा।

वहाँ तो सब नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा नम्बर लाते हैं, हमारे यहाँ का शिक्षा पद्धति तो ऐसा है की अगर आपको पचास प्रतिशत भी लाना हो तो दिन के आठ घंटे पढ़ने पड़ते हैं। परीक्षा में आप कितना भी अच्छा लिख कर आओ, अगर कोई सवाल पाँच नम्बर का है तो कॉपी चेक करने वाला बमुश्किल आपको ढाई या तीन नम्बर देगा। पता नहीं कौन सा अहम आड़े आ जाता है उस इंसान के।

उनके इस बदमिज़ाजी के कारण छोटे शहरों में न जाने कितने विद्यार्थी आत्महत्या तक कर लेते हैं।

मज़ेदार बात यह होती है की वो कॉपी चेक करने वाला खुद दो-तीन बैच को ट्यूशन पढ़ाता है, एक बैच में कम से कम बीस विद्यार्थी होते हैं, एक विद्यार्थी का फ़ीस कम से कम पाँच सौ लेता है। मेरे हिसाब से तो वो लोग धब्बा है शिक्षा पद्धति पर।

ख़ैर, जी तोड़ मेहनत करने के बाद भी साठ प्रतिशत ही ला पाया। बड़े शहर गया तो नौकरी पाने में तक़रीबन चार महीने लग गए।

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जब ऑफिस जाना शुरू किया तो बड़ा शर्मसार महसूस करने लगा, मेरे अग़ल-बग़ल वाले सारे नब्बे प्रतिशत वाले थे। ट्रेनिंग शुरू हुई तो सब का सच सामने आने लगा। सब लोग ट्रेनिंग के दौरान टुपुर-टुपुर बोलते और मैं बेवक़ूफ़ों जैसा सबको बोलते हुए चोरी-छिपे देखता रहता, जब काम करने की बारी आई तो सबसे कठिन काम मुझे मिला। मैं चुपचाप काम में लगा रहता और नब्बे प्रतिशत वाले हर आधे घंटे में आ कर बोलते “योगेश थोड़ा देख न, मुझसे नहीं हो पा रहा”, अगर बता देता तो सारा नाम कमा लेते, नहीं बताता तो मैनेजर से शिकायत कर देते।

एक दिन मजबूरन मुझे मैनेजर को बोलना पड़ा “सर, वो लोग तो नब्बे प्रतिशत वाले हैं, तनख़्वाह भी मेरे से ज़्यादा है, फिर मेरे पिछे क्यों पड़े रहते हैं?”

“देख भाई योगेश तू ठहरा छोटे शहर से, मैं भी छोटे शहर से”, “मैं जानता हूँ तुमने ज़्यादा मेहनत कर के कम नम्बर लाए हैं, इन्होंने कम मेहनत कर के ज़्यादा नम्बर लाए हैं”, “न दोष तुम्हारा है न दोष इनका है”, “तुम्हारे राज्य की शिक्षा पद्धति ख़राब है नम्बर देने में और इनका शिक्षा पद्धति ख़राब है ज़्यादा नम्बर देने में”

फ़िलहाल तुम मैनेज करो, मैं गारंटी से बोल सकता हूँ, इन सब में से तुम ही आगे जाओगे, ये यहिं रह जाएँगे।

महादेव की कृपा थी या मेहनत, कहना मुश्किल है लेकिन सच में मैं ही आगे निकला बाक़ी सब मेरे अंदर ही काम करते रहे।

मैं इतने बड़े और भीड़-भाड वाले शहर में भी अकेला ही था। सुबह तैयार हो कर ऑफिस जाता तो रात में ही वापस आ पाता। बाहर से बनी-बनाई रोटी लेता फिर किराने की दुकान से दुध और अंडे।

दुध गर्म करता और अंडे की ऑमलेट बनाता।

अंडे के छिलके को प्लास्टिक में रख देता। एक दिन सुबह जब मैं कूड़ा फेंकने जा रहा था तो देखा एक छिपकली का बच्चा प्लास्टिक के अंदर है। बहुत कोशिश करने के बाद भी न भगा पाया तो वैसा ही छोड़ कर ऑफिस निकल गया।

ऑफिस से वापस आया तो देखा छिपकली का बच्चा दीवार पर चिपका पड़ा है, भगाने से भी नहीं भाग रहा है। एक पेपर पर ऑमलेट का टुकड़ा रख मैं खाना खाने चला गया। दूसरी सुबह उठा तो देखा ऑमलेट का टुकड़ा ग़ायब है और छिपकली का बच्चा दीवार के इस कोने से उस कोने तक दौड़ रहा है। ऑफिस जाते वक्त भी ब्रेड का टुकड़ा पेपर पर रख दिया।

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ये सिलसिला सप्ताह भर चलता रहा, अब तो छिपकली का बच्चा भी बड़ा दिखने लगा था।

एक रात जब ऑफिस से आया और किचन गया तो छिपकली ने आवाज़ निकालना शुरू कर दिया:

टीक-टीक-टीक।

अब तुझे क्या हुआ भई?

टीक-टीक-टीक।

क्या करता यार? देर हो गई थी कल।

टीक-टीक-टीक।

गलती हो गई यार, थका होने के वजह से कुछ खाने का मन नहीं किया, इसलिए न अंडे लाया और न ही ब्रेड।

टीक-टीक-टीक।

हाँ भई, आज लाया हूँ। ये ले तेरा हिस्सा पेपर पर रख रहा हूँ। मुँह मत फुलाना, खा लेना, हम दोनों की माँ नहीं है यहाँ जो हमें मना कर खिलाएगी।

मुझे वो छिपकली का बच्चा जनवरी महीने में मिला था इसलिए उसका नाम भी जनवरी ही रख दिया।

जब मैं ऑफिस जाते हुए ताला लगाता तो जनवरी खिड़की के फाँकों से बाहर निकल आता, निकलने ही वाला होता की वो ताले के उपर सिटकनी पर आ कर बैठ जाता।

टीक-टीक-टीक।

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ऐसा लगता मानो बोल रहा हो “तुम निश्चिंत हो कर जाओ योगेश रखवाली के लिए मैं हूँ”

जनवरी जैसे-जैसे बड़ा हो रहा है वैसे-वैसे बदमाश होता जा रहा है। छ: बजे का अलार्म लगाता हूँ लेकिन कभी उठने का मन नहीं करता। अलार्म बंद कर फिर सो जाता हूँ। लेकिन जनवरी सुबह-सुबह ही उठ जाता है, अलार्म बंद करने के बाद मुश्किल से पाँच मिनट इंतज़ार करता है, फिर वही:

टीक-टीक-टीक

टीक-टीक-टीक

टीक-टीक-टीक

अरे बस कर जनवरी, उठ गया न अब तो। अब पिछे-पिछे बाथरूम मत आ जाना, थोड़ा शर्म करो, बड़ा हूँ तुमसे।

टीक-टीक-टीक।

शनिवार रात देर तक फ़िल्म देखो तो वो भी मेरी तरफ़ ही देखता रहता है, पता नहीं उसे कैसे मालूम चल जाता है बारह बजने वाले हैं, रात बारह बजने के थोड़ी देर बाद ही ग़ुस्सा करने लगता है। न चाहते हुए भी सब बंद कर मुझे भी सोना पड़ता है।

अगले दिन मुझे दस-पन्द्रह दिन के लिए घर जाना है। जनवरी के लिए ब्रेड का बड़ा पैकेट ला कर रख दिया है।

ब्रेड से प्लास्टिक हटा कर पेपर पर रख दिया है।

घर जाते समय वो बाहर निकल कर कुछ दूर दीवार पर चलता रहा, मानो बोल रहा हो “योगेश अपना ध्यान रखना सफ़र में”।

पन्द्रह दिन बाद जब वापस आया तो देखा मेरे कमरे के उपर वाले कमरे में पती-पत्नी रहने आए हैं, सिढी चढ़ते समय दोनों मिल गए।

दरवाज़ा खोल कर जनवरी को आवाज़ लगाया, वो आया ही नहीं।

साला ये भी जवान हो गया लगता है, गया होगा किसी छिपकलनी के घर ताक-झाँक करने, शाम को वापस आऊँगा तो क्लास लगाऊँगा उसकी।

देखो तो, छिपकलनी के चक्कर में साला ब्रेड भी छोड़ गया है। मुश्किल से दो ब्रेड ही ख़त्म किया है।

रात तक़रीबन दस बारह बार आवाज़ देने के बाद भी नहीं आया तो ग़ुस्से में उसका ऑमलेट रख कर मैं भी खा पी कर सो गया।

सुबह ऑफिस गया तब भी नहीं आया “लगता है उस पगलेठ को छिपकलनी से सच्चा वाला प्यार हो गया, कोई बात नहीं, दिल टूटेगा तो मेरे पास ही आएगा तब उसकी क्लास लगाऊँगा”

देर शाम जब वापस आया तो मकान मालकिन निचे मिल गई।

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अरे योगेश, कमरे की साफ़ साफ़ सफ़ाई नहीं करते?

करता हूँ अंटी, क्या हुआ?

वो दोनों उपर रहने आए हैं न उन्होंने तुम्हारे दरवाज़े की सिटकनी पर बड़ा सा छिपकली देखा। वो बेचारी तो डर से निचे ही नहीं आ रही थी।

तुम्हारे अंकल को डंडे से मारना पड़ा उसे। खा-खा कर मोटी चमड़ी का हो गया था, सिटकनी से भाग ही नहीं पा रहा था।

अंटी ये अंकल ने क्या कर दिया?

क्या हुआ?

नहीं, कुछ नहीं, उसे भगा देना चाहिए था, वो खिड़की में घुस जाता। बेकार ही मार दिया उसको।

बड़े बोझिल मन से उपर आया, सिटकनी को गौर से देखने लगा।

अरे जनवरी, तुझे क्या जरुरत थी कमरे की रखवाली करने की? भाग जाता अंदर।

उस रात मुझे कुछ भी खाने का मन नहीं किया।

सुबह अलार्म बंद करने के बाद भी लगता रहा अब वो ग़ुस्से में टीक-टीक-टीक करेगा।

लेकिन उसकी आवाज़ नहीं आई, वो जा चुका था, दूर, बहुत दूर।

मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

 

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