नौ साल की छोटी उम्र में हाॅस्टल चली गई।तब ट्रेन-बस में कैसे सफ़र करते हैं..टिकट कहाँ से लेते हैं..क्या नियम है..ये सब कुछ नहीं जानती थी।छुट्टियाँ होते ही घर से पिताजी या चाचा आ जाते थें और मैं उनके साथ चली जाती थी।कभी-कभी अपने कैंपस के टिकट काउंटर पर लड़कियों की लंबी लाईन देखकर ज़रूर सोचती थी कि क्या है? थोड़ी बड़ी हुई तब पता चला कि यहाँ ट्रेन की टिकट मिलती है।
मैं नौवीं कक्षा में थी, दीपावली की छुट्टियाँ होने वाली थी।तब एक दिन मैंने देखा कि मेरी रूममेट कविता एक फ़ाॅर्म भर रही है।मैंने जिज्ञासावश पूछ लिया कि ये क्या है? तब वो बोली,” ये कंसेशन फ़ाॅर्म है।इसे भरकर टिकट काउंटर पर देने से टिकट का प्राइस आधा हो जाता है।” सुनकर मेरे मुँह से निकल गया,” अरे वाह! तब तो मैं भी इस फ़ाॅर्म को भरुँगी..।” मन में हिसाब लगाने लगी कि टिकट आधा हो जाने से मेरे पिताजी की कितनी बचत हो जायेगी।
अगले ही दिन मैं भी स्कूल से एक कंसेशन फ़ाॅर्म ले आई।कविता से पूछ-पूछकर उसे भरा और टिकट काउंटर पहुँच गई।फ़ाॅर्म पढ़कर टिकट देने वाले बोले,” तुम्हें निवाई से दिल्ली तक का टिकट मिलेगा..दिल्ली से मुजफ्फरपुर के लिये नहीं।” मुझे कुछ समझ नहीं आया..टिकट लेने का मेरा पहला अनुभव था, इसलिए चुपचाप चली आई।किसी से कुछ पूछा भी नहीं वरना सहेलियाँ मज़ाक उड़ाती।
दरअसल मैं वनस्थली से दिल्ली बस से जाती थी और दिल्ली से मुजफ्फरपुर का टिकट मेरे पिता पहले ही ले लेते थे, इसीलिये मुझे स्वयं टिकट लेने और रिजर्वेशन कराने की आवश्यकता कभी नहीं पड़ी।मेरी पढ़ाई पूरी हो गई, मैंने हमेशा के लिये वनस्थली को बाॅय कह दिया और हाफ़ टिकट पर सफ़र करने का मेरा सपना भी वहीं छूट गया।मेरा विवाह हो गया और फिर मैं अपने वैवाहिक जीवन में व्यस्त हो गई।
समय के साथ बच्चे बड़े होने लगे, मेरी ज़िम्मेदारियाँ भी कम होने लगी और फिर मेरे दोनों बच्चों ने इंजीनियरिंग काॅलेज़ में दाखिला ले लिया।मैं भी पैंतालीस की हो रही थी।उन्हीं दिनों मेरे पड़ोस की मिसेज़ शर्मा की सास आईं हुईं थीं।मैं उनसे मिलने गई।बातचीत के दौरान ही उन्होंने मुझे बताया कि हमलोग तो अब सीनियर सिटीजन में आते हैं ना तो ट्रेन में आधा टिकट लगता है।सुनकर मेरे कान खड़े हो गये।उस वक्त कुछ पूछकर
खुद को मूर्ख कहलाने की गलती मैंने नहीं की लेकिन हाँ, ऑफ़िस से आने पर पतिदेव से तुरंत पूछ बैठी कि ट्रेन में हाफ़ टिकट का क्या चक्कर है? मेरा टिकट भी आधा हो सकता है…? सुनकर वो खूब हँसे, बोले,” अपनी उम्र के साठ बसंत देख लेने वाले पुरुष हो या स्त्री, दोनों वरिष्ठ नागरिक की श्रेणी में आ जाते हैं और सरकार की तरफ़ से उन्हें ही ट्रेन-टिकट में कन्सेशन मिलता है।”
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अब मैं अंगुलियों पर अपनी उम्र का हिसाब लगाने लगी तो पता चला कि मेरे साठ वर्ष होने में कोई बारह-चौदह साल ही रह गये।अरे..ये समय तो ऐसे ही बीत जायेंगे और फिर तो हाफ़-टिकट पर रेल-यात्रा करने का मेरा मृतप्राय सपना पुनर्जीवित हो उठा।मैं रोज कैलेंडर की तारीख देखती और दिन के बारह बज जाते तो मैं उसे अगला दिन मान लेती ताकि मैं जल्दी-जल्दी साठ की हो जाऊँ..।
मैंने अपना पचासवाँ जन्मदिन बड़े उत्साह से मनाया।पति से हर वक्त कहती रहती कि अब मैं पचास की हो गई हूँ…Half century मार ली है तो एक दिन ट्रेन की मेरी टिकट भी आधी हो ही जाएगी..आ.हा….
कैलेंडर की तारीखें बदलते हुए समय बीतने लगा और मैं पचपन की हो गई।अपने लक्ष्य के बहुत करीब थी कि अचानक पूरा विश्व थम गया।चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई थी।कुछ समय के पश्चात् जब जन-जीवन थोड़ा-थोड़ा सामान्य होने लगा तब टेलीविजन के स्क्रीन पर माननीय प्रधानमंत्री जी द्वारा कई घोषणाएँ की जाने लगी तो मेरे मन का एक कोना कह उठा, सीनियर सिटीजन की उम्र सीमा भी साठ की जगह अठावन हो जाये तो कितना अच्छा हो..।
खैर,कोरोना काल के दो साल निकल गये और मैं सत्तावन की हो गई।अब मैं साठ वर्षीय पुरुष-स्त्री को देखकर सोचती, मुझे भी ऐसा दिखना चाहिए।तो बस अपने बालों को काले रंग से पोतना छोड़ दिया और आम लोगों की नज़र में मैं साठ वर्ष की दिखने लगी।
एक दिन मैं बैंक गई।वहाँ के एक स्टाफ़ ने कहा,” मैडम..आप तो सीनियर सिटीजन में आती हैं। आपको इंटरेस्ट रेट ज़्यादा मिलेगा।सुनकर मैं तो खुश..सोचा कि रेलवे जब हाफ़ करेगा तब करेगा..अभी तो बैंक 58 में मुझे वरिष्ठ नागरिक घोषित कर रहा है ना..HAPPY लेकिन जब उन्होंने मेरा date of birth देखा तो बोले,” ओह नो,अभी तो…।” मेरे कलेज़े पर लगी चोट…मैं उसी समय धड़ाम से नीचे आ गई और मेरी पल भर की खुशी पर दर्जनों बाल्टी पानी फिर गया।
कहते हैं, जब स्टेशन पास आने लगता है तो दूरी अधिक महसूस होने लगती है।मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था।दिन तो तेजी-से बीत रहें थें लेकिन मेरी साठ की उम्र मुझे दिखाई ही नहीं दे रही थी।मैं जितना उसके पास जाती, उतना ही वो मुझसे दूर भागती।फिर घर में बैठे मेरे रिटायर्ड पति मेरे सबसे बड़े दुश्मन…।
एक दिन सुबह की सैर से वो लौटे तो मैंने चहकते हुए कहा,” अगले महीने तो मेरा 59 कंपलीट…।उसके बाद तो 7-8 महीने ही…।”
वो तपाक-से बोले,” अगले महीने में अभी 28 दिन बाकी हैं..एक दिन में 24 घंटे होते हैं तो…।” वो बोलते रहे और मैं कुढ़ती रही..उन्हें कोसती रही।वैसे तो उन्होंने ठीक ही कहा था..एक पल में तो दुनिया बदल जाती है..यहाँ तो पूरा एक साल बाकी है..क्या पता..मैं उतने समय तक जीवित रह पाऊँगी भी या नहीं..साठ की उम्र के लिये इतना लंबा इंतज़ार..मैं कर पाऊँगी भी या नहीं…इसी बीच यदि सरकार ने आधे टिकट की स्कीम बंद कर दी तो…।एकाएक मेरा विश्वास डगमगाने लगा… उत्साह भी ठंडा पड़ने लगा..लेकिन फिर मैंने अपने आप को संभाला…खुद का मोरल हाई किया और फिर से मेरी आँखें साठ के आने की रास्ता तकने लगी।
आप सभी से मेरा विनम्र निवेदन है कि अगर मेरी सठिया उम्र मिल जाये तो कृपया उसे मेरा पता दे दीजिएगा।बस एक बार वो आ जाये…मुझे हाफ़ टिकट की यात्रा करा दे…।
विभा गुप्ता
स्वरचित, बैंगलुरु