हां, मैं अपनी बेटी के साथ रहती हूं – अर्चना खंडेलवाल 

मैं और मेरी दुनिया, हम तीन लोग थे। जीवन से सारी खुशियां हमने चुरा ली थी| साथ में रहते हंसते-हंसते, बस जीवन जी रहे थे| ऐसा लगता था पूरे जीवन भर हमें साथ रहना है, पर ऐसा नहीं होता है, एक-एक करके हम मिलते हैं तो बिछड़ते भी है।

आशु मेरे पति, जिंदादिली से जीते, ज्यादा कमाते नहीं थे, पर इतना कमा लेते थे कि हमारी जरूरतें पूरी कर देते थे, इच्छाओं को मैं मार लेती थी, पर इन सबके बावजूद मैं खुश थी।

मेरी बेटी खुशी जब से आई थी, हम और भी खुश हो गये थे, हमारे घर की चहल-पहल खुशी धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी, लोगों ने कहा दूसरा बच्चा कर लो, पर दूसरे बच्चे को लाते तो हम खुशी को खुश नहीं रख पाते| इतनी ज्यादा कमाई थी नहीं कि हम दो बच्चों को पढ़ा-लिखा सकें, परवरिश कर सकें।

लोगों ने, रिश्तेदारों ने यही कहा कि, एक बच्चा और कर लो, बेटा होगा तो बुढ़ापे का सहारा मिल जायेगा, खुशी तो लड़की है, चली जायेगी अपने घर, वो तुम लोगों के लिए कुछ नहीं कर पायेगी।

मैंने मन ही मन ठान लिया था, मैं खुशी को खूब पढ़ाऊंगी और वो नौकरी करेगी वो ही हमारे बुढ़ापे का सहारा बनेगी।जिस तरह लोग बेटे को देखकर खुश होते थे, मैं खुशी की प्रगति देखकर खुश रहती थी, खुशी हमारे लिए हमारी संतान थी, हमने कभी नहीं सोचा वो लड़की है तो चली जायेगी।  एक दिन ऐसा भी आया कि हम तीन से फिर दो हो गये।

खुशी अच्छी कंपनी में नौकरी करने लगी और उसके बाद उसकी शादी हो गई, शादी पास के शहर में हुई थी, खुशी ने आशु और मुझे बहुत संभाला, हम खुश थे, हमारी बेटी आते-जाते संभाल लेती थी, ऑनलाइन सामान, दवाई भी मंगवा देती थी, मैं पैसे देने की कोशिश करती तो यही कहती थी कि, मां आपने  पढ़ाया तभी तो मैं आज कमाने के लायक हुई हूं, आप पैसे देकर मुझे पराया मत करो, मैं अंतिम सांस तक आपकी, पापा की  सेवा करूंगी।

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मैं खुशी से बिछड़कर चुपके-चुपके बहुत रोती थी, बहुत दिनों बाद मैं संभली थी, जीवन की गाड़ी चल रही थी, एक दिन आशु रात को सोये तो सुबह उठे ही नहीं।

मेरा रो-रोकर बुरा हाल था, पहले खुशी चली गई फिर आशु चले गए, अब मैं अकेली रह गई।

मेरे आंसू थम नहीं रहे थे, ऐसे में खुशी ने मुझे संभाला, मां अब आप मेरे साथ रहोगे, ये सुनते ही मैं डर गई।

नहीं, खुशी लोग क्या कहेंगे?समाज बातें बनायेगा, बेटी के घर रहना मुश्किल है। मैंने घबराते हुए कहा, तू पहले की तरह ही मुझसे मिलने आती-जाती रहा कर।

नहीं, “मां अब मैं आपके बुढ़ापे का सहारा हूं, , और अब आप मेरी जिम्मेदारी हो, पापा के बिना आप अकेले कैसे रहोगे?इस समाज, दुनिया की परवाह मत करो, ये बस बातें बनाता है, सहारा नहीं देता है।

तेरे ससुराल वाले क्या कहेंगे ?



कुछ नहीं कहेंगे, वो तो वैसे भी वो गांव में रहते हैं, भैया- भाभी के साथ में, अगर यहां भी रहते तो भी मैं आपको अकेले नहीं छोड़ती, यहां नितिन और मैं ही रहते हैं, दूसरे शहर से बार-बार आना संभव नहीं है, पापा थे तो मैं चिंतामुक्त थी, पर अब मैं आपके अकेले नहीं छोड़ सकती हूं।

 मैंने नितिन से बात कर ली है, वो भी तैयार हैं, वैसे भी मैं सशक्त हूं, आत्मनिर्भर हूं, मैं आपका ख़र्च उठा सकती हूं, मैं अपनी मां को अपने साथ रख सकती हूं, मां, आपने तो जीवन भर किया, अब मेरी बारी है।

बेटी के आग्रह के आगे मैं निरूतर हो गई और चिंता मुक्त भी।

खुशी की सोसायटी में मैं रहने आ गई, वहां महिला मंडल में शामिल हो गई, भजन -कीर्तन करती, किटी भी करती, सब कहते थे कि आप बेटी के घर रहते हो?

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मैं बिना शर्म, झिझक के कहने लगी कि हां, मुझे गर्व है कि मैं अपनी बेटी के साथ रहती हूं, और मैं बहुत खुश हूं।



मेरे बुढ़ापे का सहारा ना बेटा है, ना ही बहू।

मेरे बुढ़ापे का सहारा तो मेरी बेटी बनी है और मुझे खुशी है कि मेरा विश्वास टूटा नहीं, खुशी मुझे सच में संभाल रही है।

पाठकों, जिनके सिर्फ बेटी ही है तो वो ही उनके बुढ़ापे का सहारा होगी, अपनी बेटी के साथ रहना कोई शर्म या पाप नहीं है, जिससे हम आत्मग्लानि से भर जायें, हमें गर्व से बताना चाहिए ताकि समाज की सोच बदलें।  साथ ही हमें अपनी बेटियो को आत्मनिर्भर भी बनाना चाहिए ताकि वो किसी पर निर्भर ना रह सकें, अगर वो आर्थिक रूप से मजबूत होगी तो  खुद फैसले ले पायेगी।

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