गुबार – अर्चना सक्सेना  : hindi stories with moral

hindi stories with moral :  दरवाजे की घंटी बजी तो सुरेंद्र ने दरवाजा खोला, सामने उनके घनिष्ठ मित्र श्यामसुंदर खड़े थे। श्यामसुंदर बहुत परेशान लग रहे थे। आँसू आँखों से निकलकर बहने को तैयार थे परंतु शायद वह उन्हें जबरन रोककर रखे थे क्योंकि समाज में धारणा है कि पुरुषों का रोना कमजोरी की निशानी है बस इसीलिये, अन्यथा सुरेंद्र अपने मित्र के जीवन की दुश्वारियों को अच्छी तरह जानते थे। वह सहारा देकर श्यामसुंदर को भीतर लाये और उन्हें सोफे पर बिठाते हुए अपनी पत्नी को पानी लाने के लिए आवाज दी।

सुनीता पानी लेकर आयीं परंतु श्यामसुंदर की हालत देखकर अभिवादन में सिर झुकाकर उन्हें पानी देकर वापस भीतर चली गयीं। वे अच्छी तरह समझ रही थीं कि श्यामसुंदर अपना दुख सिर्फ अपने मित्र के साथ ही बाँटना चाहेंगे।

“क्या हुआ श्याम बहुत परेशान लग रहे हो? इतने तनाव में यहाँ स्कूटर चलाकर क्यों आये? फोन करके मुझे बुला लिया होता।”

“मैंने विपिन और बहू को घर से निकाल दिया सुरेंद्र!”

“अच्छा किया, रोज रोज की किचकिच से छुटकारा तो मिलेगा तुम्हें।”

“लेकिन कनिका और करन…. उनके वगैर कैसे जी पाऊँगा मैं? इस बुढ़ापे में उनकी मुस्कुराहट ही मेरे जीने का इकलौता सहारा थी। अब भी तो जीते जी मर ही जाऊँगा न? इससे तो अपने गुस्से पर काबू ही रख लेता।” 

“समझौता भी उतना ही करना चाहिए जब तक आँच अपने आत्मसम्मान पर न आये। और फिर तुमने तो बताया था कि बहू बच्चों को तुम्हारे पास तक नहीं आने देती थी आजकल… फिर क्या फर्क पड़ता है? देखो फैसला ले चुके हो तो अपना जी तो कड़ा करना ही पड़ेगा। मेरे पोता पोती भी तो विदेश में रहते हैं। कभी कभार फोन पर बात हो जाती है पर वो भी मेरे प्यार को कहाँ समझ पाते होंगे या मुझसे उतना प्यार कर पाते होंगे? कभी आते भी हैं तो रिश्तेदारों से मिलने मिलाने में ही समय गुजर जाता है बच्चों का। रहते तो हम ही पति पत्नी हैं घर पर।” 

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“तुम्हारी भाभी जिंदा थी तब तक सब ठीक ही चल रहा था। कभी कभी छुटपुट झगड़े होते भी थे तो वो सँभाल लेती थी। कहती थी चार बर्तन होंगे तो बजेंगे भी, मतभेद भी होंगे पर मनभेद नहीं होना चाहिये। लेकिन उसके जाने के बाद मन तो क्या आत्मा तक बेध डाली है विपिन ने मेरी। सुरेंद्र ये अपना ही खून इतना स्वार्थी कैसे हो जाता है? क्या हमारे दिये संस्कारों में ही खोट रह जाती है या आजकल की पीढ़ी ही हद दर्जे की स्वार्थी हो चुकी है? कल की ही बात है विपिन कहता था कि सौ गज के इस छोटे से मकान में ऐसे कौन से हीरे मोती जड़े हैं जो आप इसे बेच नहीं सकते? 

मैं अच्छी सोसायटी में बड़ा सा फ्लैट लेना चाहता हूँ और पैसे कम पड़ रहे हैं। मैंने भी कह दिया जिसे तू मकान कह रहा है उसे मैंने किन मुश्किल हालात में बनवाया था तू नहीं समझेगा। और तेरी माँ ने बड़े प्यार से इस मकान को घर बनाया था जहाँ तेरा और तेरी बहन का बचपन बीता है। अपने जीते जी मैं इसे नहीं बेचूँगा। जितनी चादर है उतने ही पाँव पसारो न, थोड़ा छोटा फ्लैट लेलो लेकिन अपने दम पर लो, तो बोला ठीक है छोटा ले लेता हूँ लेकिन फिर उसमें आपके लिए कोई जगह नहीं होगी।

 यहाँ अकेले पड़े सड़ते रहना। फिर तो मुझे भी बहुत गुस्सा आ गया और मैंने बोल दिया कि ठीक है तो फिर आज से मेरे घर में भी तेरे लिए कोई जगह नहीं। आज ही निकल जा यहाँ से। मेरा गुस्सा शांत हो भी जाता लेकिन वो तो थोड़ी देर बाद ही अपने परिवार को लेकर अपनी ससुराल चला गया और जाते जाते बहू बड़बड़ा रही थी कि देखते हैं हमारे बिना कौन पूछेगा इन्हें। रोटी तक तो तरस जायेंगे बुढ़ऊ, मैंने भी नाक न रगड़वा दी तब तक साथ नहीं रखूँगी। और आज विपिन ट्रक लाकर अपना सामान भी उठा ले गया। कल तो जैसे तैसे भूखे पेट ही कट गयी, इच्छा ही नहीं थी कि कुछ बाजार से ही मँगवा लेता। लेकिन उसके जाने के बाद मुझसे घर में रुका नहीं गया और तुम्हारे पास चला आया।”

“और तुम्हारी बेटी? वो क्या चाहती है? कुछ दिन उसे बुला लो या उसके घर जाकर रह आओ मन बदल जायेगा।”

“अरे कहाँ जाकर रह आऊँ? वो भी तो भाई के सुर में ही सुर मिला रही है। उसे भी तो आधा हिस्सा चाहिए घर में। मेरे रिटायरमेंट के फंड में से भी दोनों पैसे माँग रहे हैं। कल को बीमार भी पड़ूँ तो इलाज के लिये भी औलाद का मुँह ताकूँ। तभी कह रहा हूँ शायद संस्कारों में ही कमी रह गयी जो औलाद इतनी स्वार्थी निकली। ये भूल जाते हैं कि न जाने कितनी इच्छाओं का गला घोंटकर हम इन्हें काबिल बनाते हैं और काबिल बनकर ये हमें ही आँख दिखाते हैं।”

“देखो भाई, हम इन्हें काबिल बनाते हैं क्योंकि ये हमारा फर्ज है। हम ही इन्हें इस दुनिया में लाये हैं तो बेहतर जीवन देने का कर्त्तव्य भी हमारा ही तो है। अब ये अपना वही कर्त्तव्य अपनी संतान के साथ निभायेंगे। बात बराबर।”

“तो तुम ये कहना चाहते हो कि जन्म देने वाले माता पिता के लिये इनका कोई कर्त्तव्य नहीं होता? माता पिता में से जो कोई अकेला रह जाये तो उसे वृद्धाश्रम जाकर रहना चाहिए?”

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“मैं ऐसा बिल्कुल नहीं कह रहा लेकिन जब उन्हें अपने फर्ज का अहसास नहीं है तो किसी के समझाने से भी वो नहीं समझने वाले। उनकी करनी उनके साथ जिसका खामियाजा भी वक्त आने पर वो खुद ही भुगतेंगे। मैं तो ये कहना चाहता हूँ कि हमारी पीढ़ी को भी अपनी सोच बदलनी होगी। थोड़ा आधुनिक बनना होगा।”

“मैं समझा नहीं।”

“देखो जब बच्चे स्वार्थी हैं तो थोड़ा सा स्वार्थी तुम भी हो जाओ। अभी अभी रिटायर हुये हो कौन जाने आगे कितनी लम्बी जिंदगी पड़ी होगी। भाभी के जाने के बाद सुखदुख बाँटने वाले दोस्त की कमी तो लगती ही है न? दरअसल बुढ़ापे में ही जीवनसाथी की सबसे अधिक जरूरत होती है खासतौर पर तब जब अपने बच्चे भी साथ नहीं देते हों वरना नाती पोतों के साथ फिर से बच्चा बन जाना किसे बुरा लगेगा भला? पर तुम्हारे साथ तो ऐसा नहीं है तो फिर बेटा बहू की मिन्नतें करने से अच्छा दोबारा घर क्यों नहीं बसा लेते?”

“पागल हुए हो सुरेंद्र? तुम्हारी भाभी के साथ अन्याय करने को कह रहे हो? और लोग क्या कहेंगे?”

“भाभी की आत्मा तुम्हें ऐसे तिलतिल घुटता देखकर खुश हो रही होगी? वो तो सदा तुम्हें सुखी देखना चाहती होगी। और समाज तुम्हारा दुख बाँटने नहीं आ रहा है तो तुमने भी समाज का ठेका नहीं ले रखा। रही बात बच्चों की तो वो तो पहले भी नजरों से और दिल से तुम्हें दूर कर ही चुके। वो तो यही चाहते होंगे कि अपने अकेलेपन से घबराकर तुम उनकी बात मानने पर मजबूर हो जाओ, उनकी खुशामद भी करो और अपना घर भी बेच डालो लेकिन उनसे अच्छे व्यवहार की उम्मीद रखना फिर भी मूर्खता होगी।”

इसबार श्यामसुंदर सोच में पड़ गये थे कि सुरेंद्र फिर बोले

“मैं तुम्हें किसी युवती से विवाह करने को नहीं कह रहा बल्कि तुम्हारी ही तरह कोई परिवार द्वारा सतायी हुई अकेली विधवा का हाथ थामने को कह रहा हूँ। उसके लिये भी तो अच्छा रहेगा न, दोनों का ही उद्धार हो जायेगा।”

“शायद तुम गलत नहीं कह रहे। मैं भी अपने किसी मित्र को इन हालात में ऐसी ही सलाह देता, पर बात जब खुद की होती है तो…. हिचक होना स्वाभाविक है। किसी अन्जान को घर में लाने से और मुसीबतें न खड़ी हो जायें बुढ़ापे में।”

“तुम्हारी सोच गलत नहीं है लेकिन हम भी जल्दबाजी में कुछ भी ऐसा नहीं करेंगे जो बाद में पछताना पड़े। सुनीता की एक मौसेरी बहन है जिसकी हालत भी कुछ तुम्हारे जैसी ही है। मैंने उसको भी यही राय दी थी लेकिन तब तुम्हारा ख्याल मुझे जरा भी नहीं आया था, लेकिन अब लगता है शायद भगवान मेरे जरिये ही दो दुखी लोगों के जीवन में खुशहाली लाना चाहते हों। लेकिन कोई जबरदस्ती किसी के साथ नहीं है पहले उनसे मिलो, बात करो फिर सोच समझकर कोई निर्णय लो। फिर तुम्हारे साथ साथ उनकी पसंद भी तो महत्वपूर्ण है।”

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“बिल्कुल ठीक कह रहे हो तुम। वैसे मैं ऐसा करना तो दूर सोचता भी नहीं लेकिन बच्चों के साथ हर पल घुटघुटकर जीने से अच्छा यही है कि फिर से खुशियों की संभावनाएँ  तलाश करूँ। ठीक है तुम उनसे मिलवाने का प्रबंध करो। तुम नहीं जानते तुमसे बात करके कितना हल्का महसूस हो रहा है। यहाँ आने से पहले लग रहा था कि मेरा इस संसार में कोई भी नहीं है। अब लग रहा है कि तुम्हारे जैसे शुभचिंतक मित्र हों तो किसी की भी कोई कमी ही नहीं है।”

अंतिम बातें जोशीले अंदाज में जरा जोर से कही गयीं थीं तो सुनीता बैठक में चली आयीं-

“जी हल्का हो गया हो तो चाय ले आऊँ भाई साहब?”

सुनीता ने हँसकर पूछा।

“पकौड़े भी लाना भाभी, कल से खाना तक नसीब नहीं हुआ। और हाँ डिनर भी यहीं करके जाऊँगा आज।”

सुरेंद्र ने मुस्कुराते हुए श्यामसुंदर की ओर देखा, उनके चेहरे पर फिर से खुशहाल जीवन की उम्मीद जाग गयी थी और दिल का सारा गुबार निकल चुका था।

   #घर                     अर्चना सक्सेना

3 thoughts on “गुबार – अर्चना सक्सेना  : hindi stories with moral”

  1. बहुत सही निर्णय।लिया दोनों मित्रों ने वस्तुस्थिति को समझ कर।
    अगर बच्चे स्वावलंबी होने के बावजूद आपका ध्यान नहीं रखते तो आपको पूरा हक है अपने भविष्य के लिए समयानुकूल उचित निर्णय लेने का।

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  2. Tyrant decision nahi Lena chahiye vacation ko bhi vacation Dena chahiye ye option to open hai shayad Ghar Ghar ban Jaye

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