गृहिणी को भी तनाव मुक्त जीवन चाहिये – संगीता त्रिपाठी : Moral Stories in Hindi

“तुमसे एक काम सही से नहीं होता, कितनी बार कहा है,मेरे कपड़े अलग धोया करो पर तुमको तो हर काम में जल्दी रहती है,वाइट टी शर्ट पीली कर दी “। रमन जी गुस्सा हो कर बोले।

“आपके कपड़े मैंने अलग धोये थे आपकी पीली टी शर्ट का कलर लग गया “नेहा बोली।
“अपनी लापरवाही को मेरे कपड़ों का ही बहाना बना दो “पैर पटकते रमन जी वहाँ से चले गये।

“बहू.. आज फिर तुमने ये फीकी सी खिचड़ी बना दी, नहीं खाना मुझे “सासु माँ ऊषा जी चिल्लाईं।

“माँ आपको डॉ. ने मिर्च -मसाला खाने के लिये मना किया है, आज खा लीजिये कल मैं कुछ और बना दूंगी “नेहा ने बड़े प्यार से सासु माँ को बहलाया। पास खड़ी नेहा की छोटी बहन स्नेहा ने बहन की ओर देख कर कहा “कैसे इतना सहती हो दीदी, और क्यों..?”
“अरे पगली, ये मेरा ही तो परिवार है, मुझसे गुस्सा नहीं दिखाएंगे तो किस्से गुस्सा होंगे “कह काम में लग गई।

 “माँ मेरे टिफ़िन कहाँ है, और मेरी पसंद का पिज़्ज़ा बनाई हो ना “मोना बोली।

“हाँ बाबा तेरा पिज़्ज़ा ही पैक किया है, अब जा “

“और मेरा हलवा “छोटा सोनू कहाँ पीछे रहने वाला था। प्यार से उसके सर पर हाथ फेरते नेहा बोली “हाँ तेरे टिफ़िन में हलवा पैक किया है “। बच्चों के निकलते ही दो कप चाय बना, स्नेहा के साथ बैठी ही थी कि सासु माँ कमरे से चिल्लाईं -“सब पता है, मुझे खिचड़ी खिला कर तुम लोग हलवा खा रहे हो, आखिर हो तो बहू ही, दोतरफ़ा व्यवहार करोगी ही, आने दो रमन को, बताती हूँ उसे “।

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“उफ़्फ़ दीदी, कैसे झेलती हो ये सब, तुम्हारी सास और बच्चे, जीजा जी सब अपने हिसाब से तुम्हे चलाते हैं,जीजा जी भी हर वक्त तुम्हें झिड़कते रहते हैं, किसी को तुम्हारा काम और थकान नहीं दिखती है, शीशे में अपने को देखा है, इतना सुन्दर चेहरा कैसा हो गया “स्नेहा चिढ़ कर बोली।

“तुम टेंशन मत लो, वैसे भी मुझे आदत हो गई है इस सबकी…,परिवार की धुरी मैं हूँ तो ये सब करना ही पड़ेगा, वैसे भी अब मुझे कुछ बुरा नहीं नहीं लगता रोज की बात है। सबकी जरूरतें पूरी करते अपने लिये समय ही नहीं मिलता।”नेहा बोली।

दोनों बहनें गप्पे मारने लगीं, बड़े दिनों बाद नेहा ने इतनी बातें और हँसी -मजाक किया। शाम होते एक के बाद एक घर के सदस्य आते गये नेहा व्यस्त हो गई, स्नेहा भी नेहा की मदद कराने रसोई में आ गई। दोनों बहनें रात के खाने की तैयारी कर रही थी। रमन ने आकर पूछा -खाना बनने में कितना टाइम लगेगा, ज्यादा टाइम लगेगा तो मैं थोड़ा सतीश के यहाँ गप्पे मार कर आता हूँ “कह नेहा का उत्तर सुनें बिना चले गये। सब के खाने के बाद करीब दस बजे रमन जी आये आते ही खाना खा कर सोने चले गये।

 स्नेहा बहुत दिनों बाद बहन से मिलने आई थी, नेहा ससुराल की जिम्मेदारी की वजह से मायके कम जा पाती थी, इसलिये स्नेहा एक हफ्ते के लिये बहन के पास आई थी। नेहा की दिनचर्या देख उसे बहुत कोफ्त हो रहा। उसकी टैलेंटेड, खूबसूरत बहन सिर्फ घर की नौकरानी मात्र रह गई।किसी को उसकी परवाह नहीं है,

बीमार सास के उलाहनें, पति की झिड़की, बच्चों की फरमाइश में उलझी बहन को देख आश्चर्य चकित थी क्या ये वही बहन है, जो रोज आयरन किये कपड़े पहनती थी, बिना बाल संवारे कमरे से नहीं निकलती थी,आज उलझें बाल और सिकुड़ी साड़ी में इधर -उधर दौड़ रही थी।एक सुघड़ स्त्री बहू, पत्नी और माँ बनते ही इतना बदल जाती।

स्नेहा ने आज ठान लिया, बहन के कामों और जिम्मेदारियों का बंटवारा करके ही जायेगी, जीजा जी को भी समझायेगी। शाम होते ही बच्चे खेलने चले गये, सासु माँ को नेहा बाहर चेयर पर बैठा आई ताकि उनका भी मन बहल जाये। रमन ऑफिस से आते ही फ्रेश हो, फिर बाहर निकल गये।

“दीदी, रोज -रोज जीजू किसके घर जाते हैं “स्नेहा ने बहन से पूछा।
“किसी के घर नहीं जाते, ये चार -पांच दोस्त सामने पार्क में गप्पे मारते हैं, ऑफिस का तनाव कहीं तो दूर करना है “कह नेहा सब्जी काटने लगी।

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“एक बात बताओ दीदी, जीजू को ऑफिस का तनाव दूर कर फ्रेश होना है, बच्चे खेलने जाते हैं, माँ जी को तुम सुबह -शाम बाहर कुर्सी पर बैठा कर आती हो जिससे उनको ताजी हवा मिले और वो फ्रेश हो, क्या तुमने कभी अपने फ्रेश होने या ताजी हवा लेने के लिये सोचा, क्या तुम अपना रोज का तनाव, जहां काम का प्रेशर,

सासु माँ का उलहना, जीजू की झिड़की, जो तुम्हे आहत करती है, उस तनाव को दूर करने के लिये कभी बाहर या दोस्तों के पास जाती हो, क्या तुमको जरूरत नहीं है, तनाव मुक्त होने की, क्या तुम्हे अपने स्वास्थ्य की देखभाल की जरूरत नहीं है, क्या तुम्हारे पति, सास या बच्चों की जिम्मेदारी तुम्हारे प्रति नहीं है। क्या तुम्हें अपने शौक पूरे करने का अधिकार नहीं है…,हम औरतें ना, देने में इतना विश्वास करती हैं कि अपना स्वास्थ्य तक भूल जाती हैं।

 स्नेहा की बात सुन नेहा निरुतर थी, साथ ही किसी काम से लौटे रमन जी भी हतप्रभ थे, इस तरह तो उन्होंने सोचा ही नहीं था। औरतों का तो काम ही है सास -ससुर, पति -बच्चों की देखभाल का, पर औरतों को भी देखभाल की जरूरत है ये उन्हें आज समझ में आया।

“तुमने आज मेरी भी ऑंखें खोल दी स्नेहा, सही बात है, जो हमारी देखभाल करती है उसे भी तो देखभाल की जरूरत है,। मैंने कभी नेहा को इस नजरिये से नहीं देखा, बाबू जी को जिस तरह माँ को झिड़कते देखा, वही मेरी भी आदत बन गई। हमारे पुरुष होने का इतना दम्भ है हमें कि हम अपनी गलती देख कर भी नहीं देखते और पत्नी को ही हर बात का दोष देते हैं। “

नेहा का हाथ पकड़ रमन जी ने कहा -सॉरी नेहा, अब मैं ख्याल रखूँगा तुम भी तनाव मुक्त रहो, तुम्हारी खुशियाँ भी इस घर के लिये जरुरी है, अगर गृहिणी ही खुश नहीं रहेगी तो घर कैसे खुशहाल होगा “

स्नेहा मुस्कुरा दी, कुछ दिन बाद जाते हुये नेहा से बोली -दीदी अपने अस्तित्व के कभी बोलना भी जरुरी होता है, अपनी जरूरतों को अगर तुम नजरअंदाज करोगी तो दूसरा भी नजरअंदाज कर देगा। कहते है ना “माँ भी दूध तभी पिलाती जब बच्चा रोता है “…. गांठ बांध लो, अपनी खुशियों का आगाज़ स्वयं ही करना पड़ता है…।

अगले दिन, सुबह माँ को बाहर बैठाने के साथ रमन बाबू अपनी चाय भी वहीं ले आये, एक अरसे बाद माँ -बेटे साथ चाय पी रहे थे,माँ के चेहरे की रौनक देख रमन चकित था क्या ये वही चिड़चिड़ी माँ हैं। तभी नहा कर बालों में गुलाब लगाये नेहा आ गई, पत्नी के गुलाबी चेहरे को देख रमन जी खुश हो गये… घर की शांति छोड़ वो कौन सा तनावमुक्त होने जाते थे…। ना अब अपने घर पर ही तनाव मुक्त होंगे और सबको रखेंगे…।

 स्नेहा तो बहन को समझा चली गई पर आप सब क्या कहती हो, जीना स्नेहा कि तरह चाहिये या नेहा की तरह…। जरूर बताइयेगा..।

—=संगीता त्रिपाठी

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