गिद्ध – नीलम सौरभ

दूसरे राज्य स्थित गाँव की रहने वाली कंचन अपने पति मुकेश और दो बच्चों के साथ हफ़्ते भर पहले ही इस नये शहर में शिफ्ट हुई थी।

झारखण्ड का रहने वाला मुकेश वाहन आदि सुधारने वाला मैकेनिक था जो मध्य भारत के इस शहर में कुछ सालों से गाड़ियों की बॉडी बनाने वाले गैरेज में नौकरी करने लगा था। वह यहाँ पहले से रह रहे अपने गाँव के ही एक परिचित के सहारे रोजगार की खोज में यहाँ आ गया था। मनमाफ़िक काम मिल जाने पर वह मेहनत करता हुआ गैरेज की नौकरी में रम गया था। गैरेज के मालिक ख़ुश रहते थे उससे तो शीघ्र ही वह मिस्त्रियों का हेड बन गया।

जब उसे लगा कि अब वह इस शहर में सेट हो गया है और कमाई और बचत भी सन्तुष्टिजनक है तो मालिक द्वारा गैरेज में ही दिये गये कोठरीनुमा कमरे को छोड़कर किराये पर दो कमरों के साथ रसोई की सुविधा वाला एक अच्छा घर ले लिया और घर-गृहस्थी की कुछ जरूरी चीजों के जुगाड़ के बाद गाँव जाकर अपने परिवार को ले आया।

“बड़ा बेटा स्कूल जाने लायक हो गया है, छोटे को भी नर्सरी में डाल देंगे…कंचन भी शहर में रहने लगेगी तो सब शहराती सलीके सीख जायेगी… थोड़ा-बहुत तो वह पढ़ी ही है।”

जब-तब वह अपने साथी मिस्त्रियों से यह बात कहता रहता था।

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नयी जगह थी, नया माहौल था और मार्च महीने के शुरुआती दिन थे, जब मौसम भी नयी करवट ले रहा होता है। दो-चार दिन बाद ही कंचन के ढाई-तीन साल के छोटे बेटे कुक्कू को हल्के बुखार के साथ दस्त होने लगे और कुछ भी खिलाने पर उल्टी होने लगी।

कुक्कू की हालत देखकर बगल वाले घर में रहने वाली आँगनबाड़ी कार्यकर्ता एक महिला ने अपने अनुभव के आधार पर पूछा,

“क्या इसके नये दाँत आ रहे हैं?”

तो कंचन ने हामी भरी,

“हाँ, दाढ़ उग रहे हैं!” और लगे हाथों उनसे इलाज भी पूछा।

“इलेक्ट्रॉल पाउडर, ग्लूकोज़ या ओआरएस पाउडर का घोल बार-बार पिलाने मात्र से समस्या का समाधान हो जायेगा…चिन्ता न करो!”

इतना आसान उपाय सुनकर माँ के आशंकित मन को भरोसा नहीं हुआ। वह आसपास के दूसरे लोगों से भी राय-मशवरा माँगने लगी।

इसी बीच उनकी बातें सुन रही एक अन्य पड़ोसन ने उससे सहानुभूति जताते हुए कह दिया,

“छोटे बच्चे का मामला है बहन! …जल्दी से जल्दी किसी डॉक्टर को दिखाओ तुम तो …यूँ ही अपने मन से कोई इलाज नहीं करना चाहिए।”

अब कंचन ने घबराते हुए पति मुकेश को फोन लगा दिया।

मुकेश भी जो 10 बजे तक खाने का डिब्बा लेकर काम पर चला जाता था और रात को 8 बजे तक आता था, सुनकर घबरा गया और गैरेज के मालिक की मिन्नतें करके आधे दिन की छुट्टी लेकर, साथी मैकेनिक की दोपहिया माँग कर भागता हुआ सा घर आया।

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पड़ोसन से किसी अच्छे डॉक्टर का पूछने पर उसने मोहल्ले के पास ही स्थित एक अस्पताल का पता बता दिया और वहाँ से हटकर अपने काम पर लग गयी।

मुकेश और कंचन बड़े बेटे मनु को एक पड़ोसन अम्माँ के हवाले छोड़ कर, कुक्कू को लेकर जैसे ही उक्त अस्पताल में पहुँचे, रिशेप्शन पर ही उपस्थित 2-3 सफेद एप्रन पहनी लड़कियों और कम्पाउण्डर नुमा एक आदमी ने उन्हें घेर लिया। समस्या बताते ही पूरा सुनने से पहले ही उन लोगों में से एक ने इसकी तो जाँच करवानी पड़ेगी बोल दिया और कम्पाउंडर ने आजकल बच्चों में ऐसा ख़तरनाक वायरस ख़ूब फैल रहा है, रोज ही ऐसे ख़ूब केस आ रहे हैं, बोल कर उन्हें एकदम हड़बड़ा-सा दिया।

छोटे बच्चों का मामला बहुत नाज़ुक होता है,… देखते ही देखते बात बिगड़ जाती है,…थोड़ी सी लापरवाही का बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ता है, सुन-सुनकर अनुभवहीन माँ-बाप के हाथ-पाँव फूल गये।

गाँव में जब थे, घर के बड़े बुजुर्गों के रहते उनके ऊपर ऐसी जिम्मेदारी कभी नहीं आयी थी। बच्चे के दादा-दादी या नाना-नानी घरेलू उपचार से या फिर गाँव के वैद्य जी की सलाह से सब ठीक कर लिया करते थे। मगर यह तो उनका गाँव नहीं, परदेस का शहर था।


इसी बीच एक सिस्टर ने किसी को फोन लगाया और कुछ देर तक केस के बारे में बात की, फोन काटा और बच्चे को माँ की गोद से लेते हुए पूरी गम्भीरता के साथ बताया,

“डॉक्टर साहब ने बच्चे को एडमिट कर लेने को कह दिया है, वे आधे घण्टे में आयेंगे ख़ुद देखने, वही सही-सही बता पायेंगे।”

इसके बाद वह बच्चे को गोद में लेकर अन्य एक सिस्टर के साथ रिसेप्शन काउण्टर के बाजू से ही ऊपर की ओर जा रही सीढ़ियों की ओर बढ़ गयी। बदहवास कंचन और मुकेश उसके पीछे जाने लगे तो कम्पाउण्डर ने उन्हें रिशेप्शन पर ही रोक कर आपको यहाँ रजिस्ट्रेशन कराना पड़ेगा कह कर पहले 1500 रुपये जमा करवा कर एक कच्चा रसीद काटा, फिर जाने दिया।

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ऊपर एक हॉलनुमा कमरे में 5-6 बिस्तर लगे हुए खाली पड़े थे जिनमें से एक पर बच्चे को लिटाकर उस सिस्टर ने दूसरी सिस्टर को इशारा किया। दूसरी ने तुरंत ही बच्चे को ग्लूकोज़ की ड्रिप लगा दी। थोड़ी देर बाद डॉक्टर साहब आये, बच्चे का मुआयना कर कंचन और मुकेश से थोड़ी पूछताछ की, बच्चे की दिनचर्या का ब्यौरा लिया और साथ लाये एक नोटबुक में कुछ लाइनें लिख कर पन्ना फाड़कर मुकेश को देते हुए बोले,

“बच्चे के ये सारे टेस्ट कराने होंगे!…सभी यहीं हो जायेंगे, …इनके लिए पेमेंट रिसेप्शन काउण्टर पर देकर पर्ची कटवा आइये। …साथ ही बच्चे के कपड़े, ज़रूरी सामान आदि ले आइये। बच्चे की माँ भी साथ रुक सकती है।”

डॉक्टर के हावभाव ने उनकी चिन्ता बढ़ा दी। दोनों बेचैनी से पूछने लगे,

“लेकिन डाक्टर जी, बिटवा को हुआ क्या है?…कल तक तो एकदम ही ठीक था!”

एकदम रूखा-सा जवाब मिला उन्हें,

“अरे! टेस्ट की रिपोर्ट देखकर ही कुछ बोल पाऊंगा न! …कई तरह के इंफेक्शन में एक जैसे सिम्टम्स दिखते हैं। …इसीलिए तो टेस्ट ज़रूरी है।”

लाचार मुकेश जेब में रखे रुपये टटोलता हुआ नीचे जाने के लिए सीढ़ियों की ओर बढ़ गया।

सीढ़ियों के बगल में कुछ कमरे बने हुए थे, उनमें से एक कमरे की खिड़की के पीछे से उसे लड़के-लड़कियों की खिलखिलाने की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। यहाँ सिस्टर्स और वार्ड बॉय जैसों के लिए रहने की व्यवस्था है शायद, उनकी बातों के कुछ टुकड़े उसके कानों में पड़े थे, जिनसे उसने यह अनुमान लगाया।

सभी टेस्ट्स के लिए अच्छी-खासी रक़म उससे जमा करने को बोला गया जितने उसके पास थे भी नहीं तो रिसेप्शनिस्ट ने जितने थे, वो लेकर शेष राशि की उधारी की पर्ची बना कर दे दी।

मुकेश जब वापस ऊपर लौट रहा था, उसे फिर से सीढ़ियों के बगल वाले किसी कमरे से दो-तीन लोगों के बोलने की आवाज़ें सुनाई दीं।

“अरे रॉकी, कई दिनों का सूखा आज खतम हुआ रे! …सबकी जेब हरी होगी आज तो!”

“हाँ भाई, कई दिनों से सादा खाना ढकेलते बोर हो गया हूँ मैं कसम से! …आज तो मद्रासी जाकर बिरयानी और चिकन मन्चूरियन..!”

एक मर्दाना स्वर था यह।

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“मेरा एक्स्ट्रा हिस्सा भूल न जइयो! …मुर्गे फाँसती मैं हूँ! …तुम लोगों की जेबें मुफ्त में ही भारी हो जाती हैं!”

यह किसी लड़की की पहचानी हुई-सी आवाज़ थी।

“रुक न, अभी तो मेरे मेडिकल स्टोर तक आने दे शिकार को…तेरे बोनस वाले हिस्से का भी जुगाड़ हो जायेगा।”

मुकेश को साफ-साफ तो कुछ समझ में नहीं आया मगर न जाने क्यों उसे लगने लगा, यहाँ कोई खेल अवश्य खेला जा रहा है।

फिर तीन दिनों तक लगातार कई तरह के सैम्पल लिये गये, खून के, मल और यूरिन के। …कई प्रकार के टेस्ट एवं जाँच चलते रहे और कभी हजार, कभी दो हजार बिल में जुड़ते रहे।

बीच-बीच में नगद राशि जमा करने की बाध्यता भी जतायी गयी, जिसे मुकेश ने अपने सेठ यानी गैरेज के मालिक से उधार लेकर दिया।

इलाज़ और बच्चे की सेहत में सुधार की स्थिति सही-सही जानने के उद्देश्य से कंचन और मुकेश कुछ पूछते तो उन्हें सिस्टर्स द्वारा यह कह कर चुप करा दिया जाता था, कि आप डॉक्टर से ही पूछिएगा, हमें परमिशन नहीं है और डॉक्टर साहब जब भी आते, हवा के घोड़े पर सवार होकर आते थे, फिर ज्यादा बात करने का मौक़ा दिये बिना तीर की तरह निकल जाते थे।

कोई भी ठीक से कुछ बताने को तैयार नहीं था।

बेचारी कंचन एक माँ के रूप में दुविधा से पागल होने लगी थी। एक तरफ वह बीमार छोटे बेटे को लेकर अस्पताल के उस बीमारू माहौल में ख़ुद को फँसा हुआ पा रही थी और दूसरी ओर घर में बड़ा बेटा छः साल का मनु पड़ोसियों के रहमोकरम पर पड़ा हुआ है, इस बात की चिन्ता भी उसे झकझोरे जाती थी।

मुकेश को भी न खाने-पीने का होश रह गया था और न ही सोने का। गैरेज काम पर जाना भी मुहाल हो गया था। अब वह घर पर मनु को नहलाये-धुलाये, खाना बनाकर खिलाये-पिलाये, सुलाये फिर अस्पताल के लिए खाना लेकर जाये, उनके कहे अनुसार दौड़भाग करे कि अपना गैरेज वाला काम देखे।

उसे अपनी नौकरी पर भी संकट दिखने लगे थे क्योंकि रोज ही नये-नये बेरोजगार लड़के काम की तलाश में उसके सेठ के पास आते रहते थे। कहीं उसकी बढ़ती छुट्टियों से तंग आकर मालिक किसी और को न रख ले, कम वेतन में, उसे डर लगने लगा था।

सीधे-सादे मुकेश का चौथे दिन धैर्य उस समय समाप्त हो गया जब उसका बड़ा बेटा बुरी तरह रोता हुआ पड़ोसी के साथ वहीं चला आया कि उसे अकेले घर में डर लगता है, वह भी माँ के साथ ही रहेगा और उसे देखकर भी रिशेप्शन वाली सिस्टर ने कहा इसकी भी तबीयत ठीक नहीं लग रही, देखो तो कैसे एब्नॉर्मल तरीके से रो रहा है, कुछ गड़बड़ है।

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मुकेश ने तुरन्त ही मनु को गोद में उठाया और कड़े शब्दों में साफ-साफ कह दिया कि उसे अपने छोटे को भी यहाँ बिल्कुल नहीं रखना है, वह कहीं और दिखायेगा उसे।

उसके तेवर देख कर थोड़ी देर तक वहाँ उपस्थित अस्पताल का स्टाफ उसे घूरता रहा फिर उनकी इशारों-इशारों में आपस की कुछ बात हुई।

“ठीक है फिर, जैसी आपकी मर्ज़ी!…आपको यहाँ पेपर पर साइन करने होंगे कि बिना डॉक्टर की रिकमेंडेशन के आप बच्चे को ले जा रहे हैं, कुछ भी ग़लत होगा उसकी सेहत के साथ तो डॉक्टर या अस्पताल स्टाफ की कोई जवाबदेही नहीं होगी।”

उस सिस्टर के ऐसा कहते ही मुकेश ने पेपर लेकर तत्काल हस्ताक्षर कर दिये और बच्चे को डिस्चार्ज करने को कहा।

थोड़ी ही देर में उसे डिस्चार्ज पेपर के साथ साढ़े बाईस हजार का बिल थमा दिया गया, इस कैप्शन के साथ कि उसे छोटे बच्चे के कारण पूरी सहानुभूति रखते हुए हॉस्पिटल मैनेजमेंट ने ढाई हजार का टोटल बिल में स्पेशल डिसकाउंट दिया है।

जब तक मुकेश ने डिस्चार्ज से सम्बन्धित औपचारिकताएँ पूरी कीं, कंचन ऊपर से अपना सब सामान समेट कर लाने को चली गयी। सबकुछ समेट कर जब उसने कुक्कू को गोद में ले, मनु की उँगली पकड़ कर चलने का उपक्रम जैसे ही किया, एक सिस्टर कुक्कू के गाल सहलाते हुए पूछने लगी,

“फिर कब आओगे बाबू?”

कंचन को तत्काल एक दृश्य याद आ गया। एक बार कहीं से गुजरते समय रास्ते में उसे आसमान में कई गिद्ध मंडराते हुए दिखे थे। आगे जाकर सड़क के किनारे एक गाय मृतप्रायः पड़ी हुई मिली थी, जिसके चारों ओर भी कई गिद्ध बैठे हुए थे, शायद उसके मरने की प्रतीक्षा में। गिद्ध अपने प्रकृति प्रदत्त स्वभाव से विवश हैं कि वे मृत शरीर को ही नोचकर खाते हैं। पर ऐसा शिकार वे ढूँढ़ते तो रहते ही होंगे न!

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कंचन को अचानक अनुभव हुआ, उसके और उसके बच्चों के आसपास भी कई गिद्ध मंडरा रहे हैं, जो वास्तविक गिद्धों से कहीं अधिक खतरनाक हैं। गिद्ध तो कम से कम पशु के मरने की प्रतीक्षा करते हैं, किन्तु ये तो जीवितों को ही! …वह एकाएक सिहर-सी गयी। छलक आने को आतुर आँखों के साथ बिना कोई उत्तर दिये आगे बढ़ गयी।

नीचे मुकेश अपनी वर्तमान परिस्थिति के हिसाब से उस भारी-भरकम बिल को हाथ में लिये हतप्रभ सा खड़ा था। उस कागज़ को देख कर कंचन के हृदय में क्रोध और नफ़रत के शोले भड़कने लगे थे।

“नहीं रहेंगे हम इस खूनचूसवा शहर में! …चाहे हमारे लइकन पढ़ें, न पढ़ें…खेती-किसानी, मेहनत मजदूरी करके अपन गाँव में ही जिनगी पार लगाएँगे। …कम से कम सब जिन्दा तो रहेंगे। …इहाँ सब गिद्ध खा लेंगे हम सबको।”

कंचन दृढ़ स्वर में जब बोली, मुकेश की आँखों से भी शहरी जीवन के सुनहरे भविष्य का सपना धुँधलाने लगा।

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(स्वरचित, मौलिक)

नीलम सौरभ

रायपुर, छत्तीसगढ़

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