नीता जी की सारी उम्र और साधारण औरतों की तरह घर में दो की चार बनाने में ही निकल गई। एक सोलह वर्षीय लड़की ने कभी नही सोचा था की एक बार जो गृहस्थी में पड़ेगी तो उसके बाद पलट कर अपनी जिंदगी फिर से नही जी पाएगी। सुंदर कोमल रुई की तरह अध नैनो में खोई जब गाल सहलाते हुए नींद से जागी तो पता चला
की साड़ी पैरों से जरा ऊंची हो जाने पर पतिदेव ने प्रसाद दिया है। मगर यह गलती दुबारा न हुई फिर। पति जैसे खुश रहते वैसे ही खुश रखती और रहती भी । धीरे धीरे बच्चे बड़े हुए। पहले लड़का और फिर दूसरी अपाहिज लड़की और फिर तीसरी लड़की। पति का कोई रोजगार नहीं ऊपर से तीन तीन बच्चे और एक तो अपाहिज ही थी।
बाहर निकली घर भी देखा, शराबी पति और अपाहिज बेटी के साथ साथ 2 छोटे छोटे बच्चे। ना मायके की और न ही ससुराल की कोई मदद। क्योंकि मायके में मां कहती की बच्चों को पति के हवाले कर और तलाक दे, तेरी दूसरी शादी कराएंगे। ससुराल वाले बोलते हम पर पहले ही और पांच पांच बेटों की जिम्मेदारी है , हम क्या ही मदद करेंगे। अकेले ही घर और बाहर की जिम्मेदारी निभाती गई। कई बार इज्जत भी बचाई। कहते है न भगवान के घर देर है अंधेर नही।
किस्मत ने पलटी खाई तो पति को देर सवेर उस पर तरस आ गया। बाहर नौकरी ढूंढी जो की नही मिली। थक हार कर नीता जी उन्हें ऑर्डर पर रजाइयों के गिलाफ लाकर दे देती। जिसे बैठ कर दिन भर उनके पति आनंद जी बंद कमरे में सिलते रहते। और दिन भर के 4 से 5 कवर सिल कर महीने में थोड़े पैसे जमा होने लगे।
11 वर्ष की उम्र में उनकी अपाहिज बेटी ने भी दुनिया छोड़ दी। नीता जी को दुख तो बहुत था मगर उसको मनाने का समय नही। उसके जाने से नीता जी को अब और समय मिलने लगा जो समय वो उसकी तीमारदारी में लगाती, वो समय में पति का हाथ बंटाती ।
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इधर आनंद जी के पिताजी जोकि सरकारी महकमे में थे, अचानक ही लकवा ग्रस्त हो गए और फिर कभी बिस्तर से उठ न पाए। अब जब सरकारी नौकरी किसी बेटे को मिलने की बात आई तो किसी ने कुछ तो किसी ने कुछ बहाने बना उनके अन्य भाइयों ने वो नौकरी करने से मना कर दिया। कहते है न जब इंसान भाग्य को बदलने की कोशिश करता है तो भगवान भी उसकी मदद करता है।यह शायद नीता जी का ही नसीब था
जो वो नौकरी आनंद जी की गोद में आ गिरी। मगर अब आनंद जी की शैक्षणिक योग्यता काफी नहीं होने से , सिर्फ खुशामद के जरिए उच्च अधिकारी ने उन्हें अति छोटे पद पर आसीन कर दिया। मगर अंधा क्या चाहे दो आंख, यहां तो नौकरी नहीं थी यह छोटी थी मगर सरकारी थी।
धीरे धीरे वक्त बदला। आनंद जी ने भी नीता जी के प्रोत्साहन से पढ़ाई की और तरक्की की सीढ़ियां चढ़ने लगे।अब नीता जी ने भी घर पर ही बच्चों को ट्यूशन देना शुरू कर दिया था। समय देर से सही बदल रहा था। जो गहने बिक गए थे अब धीरे धीरे बनने लग गए। ससुराल का मिला एक कमरा अब कम पड़ने लगा था। लोन लेकर ही सही अपना मकान बनाया। फिर बेटे की और उसके बाद बेटी की शादी की। सब कुछ बदलने लगा था।
तिनका तिनका जोड कर जब आशियाना बनाया जाए , जिस घर को बनाने में अपनी जिंदगी में पलट कर भी नही देखा हो। अगर वहां अहमियत न समझी जाए तो वो चोट बड़ी गहरी होती है। चोट देने वाले शब्द होते तो सामान्य से ही है मगर दिल चीर देते है। बेटे का अहंकारी स्वभाव जब मां को मां न समझे ,
अपनी पत्नी के सामने व्यंग्य बोल बोले तो आंख नम हो ही जाती थी। हैरानी तो तब होती जब आनंद जी भी चुप रह जाते। आज उन पर क्या था अब सबके लिए यह मायने रखता था। इसके पीछे किसकी मेहनत थी अगर बच्चे वो ही न समझे तो पालक पर क्या बीती होती है कोई नही समझ सकता। जिस मां ने घर बनाया
अब उसी का छोटी छोटी बात पर बोलना भी बंद करा देना। जिस पढ़ी लिखी लड़की ने अपने पति तक को उच्च शिक्षा दिलाई हो , उसे ही नासमझ बना देना। औरों के सामने चुप करा देना की तुम्हे बोलने तक की तो अकल नही तुम चुप रहा करो। एक आत्म सम्मान प्रिय इंसान के लिए जीते जी मरने समान है।
कहते है अति हर चीज की बुरी। चुप रहना और समय पर न बोलना भी हानिकारक है और वोही हुआ भी। बहु को जरा सा समझा देना की गर्भावस्था में चलते फिरते रहने से डिलीवरी के समय आसानी रहती है तो जी तिल का ताड़ बना । बहु ने रो रोकर घर सर पर उठा लिया। तुरंत पति
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और अपने मां बाप को बुला कर अनाप शनाप बकना शुरू कर दिया की इन्हे मेरा आराम करना पसंद नहीं। थक हार कर बैठी थी की जली कटी सुनाने लगी और गालियां देने लगी। बेटा तो पहले ही मां को मां नही मानता था और ससुराल वालों के सामने जो तमाशा बनाया उसे देखकर तो नीता जी के साथ शायद भगवान भी रोया।
बेटे ने घर छोड़ने की धमकी दी तो खुद ही जाना बेहतर समझ दो चार कपड़े थैले में डाल कर निकल गई घर से। बेटे को न रोकना था और न ही रोका। सब कुछ आनंद जी के पीछे से हुआ तो वो क्या ही कर लेते। व्यवहार की धनी नीता जी अपने ससुराल के उसी कमरे में पहुंच गई जहां से जिंदगी की शुरुवात की थी। देवरानियों ने हाथों हाथ लिया उन्हे। किसी ने सर पोंछा तो किसी ने गरमा गरम चाय दी। अपने कमरे को उन्होंने
अपनी ही एक देवरानी को दे दिया था की वो उस में अपना सिलाई घर बना ले। देखते ही देखते बिना उनके कुछ कहे देवरानियों ने मिलकर कमरा झट खाली कर उनके लिए एक पलंग डाल दिया । खाना खिला कर आराम करवाया । किसी ने भी उनके जख्मों को नही कुरेदा की क्या हुआ और क्या नहीं।
पलंग पर लेट लेते नीता जी सोचने लगी कि जिस बच्चे को जिंदगी भर चाहा , उसी ने घर छोड़ने को मजबूर कर दिया और यह देवरानियां जिनके सिर्फ दुख सुख में शामिल हुई थी उन्होंने सीने से लगा लिया। आंसू बहते गए और आंख कब लग गई पता ही न चला। अचानक से गालों पर कोई बूंद गिरी तो आंख खुली तो पाया की आनंद जी की आंख का आंसू आ गिरा था । 37 साल पहले भी नीता जी का गाल गरम हुआ था और आज भी । उस दिन मार से और आज प्यार से।
आनंद जी ने कुछ न पूछा और बस हाथ सहलाते रहे। साथ चलने के लिए बोला तो अपना वास्ता दे नीता जी ने आनंद जी को वापिस भेज दिया। आनंद जी , उनकी तरह एकदम तो न सही मगर कुछ दिन बाद अपने जरूरी दस्तावेज और कपड़े लेकर उन्ही के पास आ गए। देवरानियों और उनकी बहुओं के लाख कहने के बाद भी नीता जी ने अपनी रसोई जमाई। नीता जी शुरू से ही खुशमिजाज महिला थी।
जहां बैठती महफिल जम जाती। बच्चों को कहानी सुनाना , जो खाना बच्चे चिक चिक करके खाते उनके मनुहार से बड़े प्यार से खा लेते। पराए नही थे वो मगर फिर भी जो प्यार इज्जत उन्हे खुद का बेटा नही दे सका। यहां भर भर कर मिल रही थी। दिन में बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती , सर्दियों में स्वेटर और गर्मियां आने पर जवे तोड़ लेती तो औरों में भी बांट देती।
समय बीतता रहा इधर समाज के डर से बेटे ने जब आकर घर चलने को कहा तो बड़े प्यार से मना कर उसे भी वापिस भेज दिया। मगर समाज ने जब बेटे पर दवाब बनाया , जग हंसाई हुई , दबी जबान में कहीं बुराइयां हुई तो अब बेटे बहु पैरों में गिरकर गिड़गिड़ाए। उस पूरी रात सोचते सोचते काट दी। बेटे को भी झुकता हुआ नही देख सकती थी और आत्म सम्मान से भी समझौता न होता हुआ देख उस रात ऐसी सोई की अगली सुबह न उठी। दो लाइन लिखी थी उनके सिरहाने रखी चिट्ठी में,
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” लौट कर आता है परिंदा अपने ही घरौंदे में,
हर बार हो ऐसा ही जरूरी तो नहीं
टूट जाए जो पंख बीच रास्ते में उसके
तो हर बार घर वापसी मुमकिन नहीं”
सोनिया अग्रवाल