अवधेश बाबू और निर्मला जी पुत्र उदित के साथ जब घर के द्वार पर पहुंचे तो बहू कनक सर पर पल्लू डाले आरती का थाल लिए उनके स्वागत को मुस्कुराती हुई खड़ी मिली। दोनों की आरती करने के पश्चात कनक ने उनके पांव छूते हुए उन्हें आदर सहित अंदर बुलाकर बिठाया। शीघ्र ही उन दोनों के समक्ष घर के बने स्वादिष्ट पकवानों की मेज सज गई।
कितने दिनों के पश्चात आज इतना स्वादिष्ट घर का भोजन खाने को मिला था। अवधेश बाबू और निर्मला जी ने परम संतुष्टि से खाना खाया। उदित और कनक दोनों बहुत प्रेम से आग्रह करके उन्हें
खाना खिला रहे थे। निर्मला जी खाना तो खा रही थी किंतु उदित और कनक से दृष्टि मिलने में वह स्वयं को जैसे असमर्थ पा रही थी। उदित और कनक बार-बार बातें करने का प्रयास कर रहे थे, पर उन्हें लग रहा था कि उनके शब्द और उनके स्वर कंठ से बाहर ही नहीं आ पा रहे।
भोजन के पश्चात कनक ने उन दोनों को कमरे में पहुंचा दिया, जहां उन दोनों का कमरा विशेष रूप से कनक ने अपने हाथों से सज्जित किया था। सभी कुछ सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा हुआ, आवश्यकता की सभी वस्तुएं समुचित स्थान पर रखी हुई थी।
अवधेश बाबु कपड़े बदलकर बिस्तर पर लेटते ही सो गए परंतु निर्मला जी की आंखों से जैसे नींद कोसों दूर थी। उनके मन का पहिया अतीत की तरफ मुड़ गया। उन्हें वह दिन याद आ गया जब वह अवधेश बाबू की पत्नी बनकर अवधेश बाबू के घर आई थी। अवधेश बाबू की पत्नी का उदित के जन्म के समय ही निधन हो गया
उदित जब साढ़े तीन वर्ष का था तो अवधेश बाबू ने निर्मला जी से पुनर्विवाह कर लिया। निर्मला जी अवधेश बाबू की पत्नी तो बन गई परंतु उदित की मां कभी नहीं बन पाई। नन्हा उदित इन बातों से पूर्णत: अनभिज्ञ था। जब संबंधियों ने उससे कहा कि निर्मला उसकी मां है तो वह सच्चे हृदय से निर्मल जी को अपनी माँ मान बैठा
और उसे यही लगा कि उसकी माँ भगवान के घर से वापस आ गई है। वह बड़े उत्साह से भरकर वात्सल्य पाने के प्रयास में निर्मला जी के आसपास भी आने का प्रयत्न करता तो निर्मल जी किसी न किसी बहाने से उसे झिड़ककर स्वयं से दूर कर देती थी। उदित का नन्हा हृदय टूक टूक हो जाता था। शीघ्र ही मुदित का जन्म हो गया और इसके बाद निर्मला जी का उदित के प्रति तिरस्कार प्रताड़ना में परिवर्तित हो गया। पिताजी भी निर्मला जी के समक्ष कुछ बोल नहीं पाते थे।
गृहक्लेश से बचने के लिए सदैव चुप रह जाते थे। उदित अपने ही घर में उपेक्षित और तिरस्कृत होता रहा। कभी ढंग का भोजन भी उदित के भाग्य से जैसे उठ गया था। निर्मला जी मुदित के ऊपर जी भरकर प्यार लुटाती, भांति भांति के पकवान बनाकर उसे खिलाती, मूल्यवान से मूल्यवान वस्तुएं उसके लिए उपलब्ध कराने के लिए
सदैव प्रयासरत रहती और उदित उपेक्षा सहते सहते जैसे अब पाषाण हो गया था। वह बिल्कुल चुप रहने लगा लेकिन इतने पर भी इतिश्री नहीं हुई। निर्मला जी ने अवधेश बाबू से कहकर उसे छात्रावास में भिजवा दिया। यहां तक की छुट्टियों में भी घर आने की मनाही थी। अवधेश बाबू ही यदा कदा उससे मिलने के लिए चले जाते थे और उसकी आवश्यकता की वस्तुएं खरीद कर दे देते थे।
मेधावी और लगनशील उदित ने स्वयं को पूरी तरह पढ़ाई के प्रति समर्पित कर दिया और जिसके फलस्वरुप वह एक उच्च पदाधिकारी के रूप में पदस्थ हो गया। शीघ्र ही उसने अपनी सहकर्मिणी कनक से सीधे सादे तरीके से विवाह भी कर लिया। इसी बीच मुदित की भी पढ़ाई पूरी हो गई और वह भी एक अधिकारी बन चुका था।
मुदित के विवाह में वे दोनों पहुंचे थे परंतु निर्मला जी का बर्ताव उन दोनों के प्रति एक अतिथि की तरह ही रहा। वह बढ़ा चढ़ा कर मुदित के शानोशौकत और मुदित की वधू रश्मिका के मायके का बखान करते नहीं थक रही थी। उदित को देखते ही उनका प्रशंसा पुराण कुछ और तीव्र हो जाता था।
परंतु उदित ने और कनक ने मुस्कुरा कर सभी कुछ सह लिया और विवाह के पश्चात अपने घर चले गए।
उदित जो बचपन से लेकर अब तक मां-बाप के प्यार से सदा वंचित ही रहा, वह अब प्रतिवर्ष अवधेश बाबू के जन्मदिन पर वृद्धाश्रम जाता था और वहां उन वृद्धों के साथ समय व्यतीत कर अपना स्नेह बाँटता था और यथासंभव उनकी आवश्यकताओं के अनुसार उनकी सहायता भी करने का प्रयत्न करता था। वृद्धाश्रम के सभी वृद्धजन भी उससे अब पुत्रवत स्नेह करने लगे थे।
उस दिन भी वह हर वर्ष की भांति अवधेश बाबू के जन्मदिन पर जब वृद्धाश्रम पहुंचा तो वहां का दृश्य देखकर उसकी आंखें फटी रह गई। वहां बगीचे के बेंच पर अवधेश बाबू और निर्मला जी मस्तक झुकाए बैठे थे और धीमे स्वर में कुछ बातें कर रहे थे। एक बार को तो उदित को अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ वह दौड़कर उनके समक्ष जा पहुंचा। उसके आने की आहट पाकर जब निर्मला जी और अवधेश बाबू ने अपनी दृष्टि उठाई तो उदित को देखकर एकदम चौंक गए और झेंप से गए।
उदित ने व्यथित स्वर में कहा, “- माँ- बाबूजी आप यहां??? यह क्या हुआ? मुदित कहां है?”
अवधेश बाबू ने अपना सिर झुकाते हुए कहा, “- क्या बताऊं बेटा! लंबी कहानी है… लेकिन आज तुझे अपने सामने पाकर बहुत अच्छा लगा… सदा खुश रहो तुम और बहू..”
उदित उनके पास ही बैठ गया, “- मुझे बताइए ना बाबूजी..”
अवधेश बाबू ने आद्योपरांत पूरी बात सुनाई। मुदित अपने पद और पैसे के अभिमान में इतना उन्मत्त हो चुका था, कि उसे सही और गलत का कुछ भान नहीं रहा था और रश्मिका आधुनिकता के रंग में रंगी हुई अपनी ही दुनिया में मगन रहती थी जिसमें वह और निर्मला जी उन दोनों को सदैव एक कंटक की तरह ही लगते थे।
उन दोनों के प्रति मुदित और रश्मिका का व्यवहार बद से बदतर होता चला गया। और एक दिन निर्मला जी की तबीयत ठीक नहीं थी और उसी दिन घर में उन्होंने एक पार्टी रख ली। जब घर में पार्टी जोरों पर थी और शराब और अभद्रता सबके मस्तक पर चढ़कर नृत्य कर रही थी, उन सब ने तीव्र ध्वनि से बेहूदा संगीत भी बजाना प्रारंभ कर दिया और सब आपस में सारी मर्यादाओं को भूलकर एक दूसरे के साथ थिरक रहे थे। एक तो निर्मला जी की तबीयत
पहले से ही ठीक नहीं थी और इस तेज स्वर से उनकी स्थिति और बिगड़ने लगी तो अवधेश बाबू ने जाकर मुदित से कहा कि संगीत का स्वर थोड़ा धीमा कर ले पर रश्मिका ने सबके समक्ष उन्हें बहुत बुरी तरह से अपमानित किया और साथ ही मुदित भी उसी की भाषा बोलने लगा। जब अवधेश बाबू ने दबे स्वर में उन्हें संयमित रहने को कहा तो वह और भड़क गए और रश्मिका ने मुदित से कहा कि वह इन दोनों को एक क्षण भी घर में बर्दाश्त नहीं कर सकती और दूसरे ही दिन मुदित ने उन्हें यहां ला पटका।”
यह.सब सुनकर पीड़ा और क्रोध से उदित का मुख लाल हो गया।
उदित ने दुख से सिक्त स्वर में कहा, “-नहीं बाबूजी, अब आप लोग यहां नहीं रहेंगे। मैं शीघ्र ही आप लोगों को यहां से ले जाऊंगा।”
और आज उनका वही तिरस्कृत पुत्र उन्हें आदर सहित घर लेकर आ गया। निर्मला जी की दोनों आंखों से अविरल अश्रुओं की धारा बहने लगी। अपना पिछला व्यवहार याद कर आत्मग्लानि से उनका हृदय फटा जा रहा था। तभी पानी का जग लेकर उदित ने कमरे में प्रवेश किया। निर्मला जी की आंखों से आंसू बहते देखकर वह बिल्कुल चौंक गया । उनके पैरों के पास जमीन पर बैठते हुए उसने कहा, “- यह क्या माँ.. आप क्यों रो रही हैं?… अब तो सब कुछ ठीक हो गया है.. अब तो हमारे हंसने मुस्कुराने के दिन हैं….”
निर्मला जी भावविह्वल हो गईं और ग्लानि से भरे स्वर में उन्होंने कहा, “- मुझे क्षमा कर दो बेटा, मैंने तुम्हारे साथ बहुत बुरा व्यवहार किया। मैं तो स्वार्थ में अंधी होकर तुम्हारी घर वापसी नहीं करा पाई पर तुमने पुन: घर परिवार का सुख देकर हमें उपकृत कर दिया…”
उदित ने भावुक होकर निर्मला जी के दोनों हाथ थाम कर आंखों से लगा लिए, “- कैसी बातें कर रही हो माँ… यह मेरा घर थोड़ी ना है… घर तो मां-बाप से होता है। आप घर में आए तो मेरी भी घर वापसी हो गई.. मैं अवश्य पिछले जन्म में कुछ पुण्य किए होंगे जो मुझे आपकी की सेवा करने का अवसर प्राप्त हो रहा है…”
उदित निश्चलता से खिलखिला पड़ा।
वह थोड़ा और समीप खिसक आया और फिर झिझकते हुए स्वर में उसने निर्मला जी से पूछा, “- माँ…क्या मैं आपकी गोद में सिर रख सकता हूं..”
निर्मला जी ने आह्लाद और वात्सल्य से भरकर उदित का चेहरा दोनों हाथों में भर लिया और उसका मस्तक चूम लिया। उन दोनों की आवाज से जाग चुके अवधेश बाबू भीगी आंखों से माता और पुत्र की यह आनंदमय घर वापसी देख कर भाव विभोर हो गए।
निभा राजीव निर्वी
सिंदरी धनबाद झारखंड
स्वरचित और मौलिक रचना
कहानी बहुत अच्छी लगी की सत्यता की चाह में हम कहीं भी जाएं लेकिन अपना घर अपना ही होता है माँ बेटे का अद्भुत मिलन पढ़ना मन को प्रफुल्लित कर जाता है।