देखते-देखते केशव जी के रिटायरमेंट का दिन आ पहुँचा । आज सुबह तीन बजे ही उनकी आँख खुल गई थी । हर रोज़ चार बजे उठते थे । पहले तो दस मिनट लेटे रहे फिर उठकर पानी पिया , सोने की कोशिश की फिर अजीब सी बेचैनी महसूस हुई तो खड़े होकर कमरे की बत्ती जला ही दी । कुर्सी पर बैठकर सोचने लगे –
चालीस साल हो चुके हैं, नौकरी करते हुए , पता नहीं अब कैसे उम्र गुजरेगी ?
मेरे दिमाग़ में भी न जाने क्या ऊटपटाँग आता रहता है , अब तक अच्छी गुजरी है तो आगे भी अच्छी ही गुजरेगी । जब मैंने अपने मन- वचन से कभी किसी का बुरा नहीं किया तो घबराहट कैसी ।
काश ! इंदु और बच्चे भी आज के समारोह में आ जाते तो थोड़ा सहारा रहता । चलो ठीक है, जैसी ईश्वर की मर्ज़ी ।
मन ही मन सोचते हुए केशव जी ने लंबी साँस ली और उठकर इलैक्ट्रिक केतली में अपने पीने का पानी गर्म किया । पिछले दिन ही मकानमालिक खुद आकर गैस चूल्हा बंद कर गए थे
तुम भी हद करते हो , केशव । दो दिन से कह रहा हूँ कि रसोई बंद करो । दो- चार दिन ही तो है , हमारे साथ ही रहो । आज तो तुम्हारी भाभी भी उलाहना दे रही है ।
सच में , पिछले पाँच साल से केशव जी इस मकान में एक किराएदार के रूप में नहीं बल्कि मेहता साहब के छोटे भाई बनकर रह रहे थे ।
केशवजी रेलवे में काम करते थे । यह संयोग ही रहा कि उनकी पूरी नौकरी छोटे क़स्बों में ही पूरी हो गई । सबसे पहली पोस्टिंग पंजाब में ज़िला अमृतसर में हुई थी । उस समय माँ ने इंदु को उनके साथ भेजा पर छोटी सी गृहस्थी की शुरुआत करके इंदु चली गई । उसके बाद ना तो घर के हालात ऐसे थे कि वे माँ से इंदु को ले जाने की बात करते और ना ही लखनऊ जैसे बड़े शहर में पली-बसी इंदु का छोटे कस्बों और रेलवे के बदरंग मकानों में रहने का दिल किया ।
वह चाहती तो छोटे भाई के विवाह के पश्चात उनके साथ आ सकती थी पर जब भी उन्होंने बात छेड़ी, इंदु की ओर से उदासीनता ही नज़र आई ।उसके बाद तो दोनों बेटों की पढ़ाई के कारण कभी कहने का मौक़ा नहीं मिला ।
मन में यही आस लेकर कि रिटायरमेंट के बाद वे अपने बच्चों और इंदु के साथ रहेंगे, नौकरी करते रहे । घर में झाड़ू- पोंछे के लिए, वे किसी न किसी को रख लेते थे पर खाना हमेशा अपने आप ही बनाया । बड़े रेलवे स्टेशनों पर तो कैंटीन की सुविधा होती है पर केशवजी को तो ये सुख नहीं मिला ।
आज विदाई समारोह है । सुख- दुख के मिश्रित भाव आ-जा रहे थे । उन्होंने मेहता साहब और उनके परिवार को दो- तीन पहले ही ऑफिस के समारोह में अपने साथ चलने का निमंत्रण दे दिया था । वहाँ जब भी किसी ने उनके परिवार के बारे में पूछा तो मिसेज़ मेहता ने आगे से आगे बात सँभालते हुए कहा – दरअसल हमारी देवरानी लखनऊ में समारोह की तैयारियों में व्यस्त हैं । हमने तो कह दिया था , हम भी तो परिवार के हैं , कोई औपचारिकता थोड़े ही है ।
उसी दिन नम आँखों से विदाई लेकर केशवजी अगले दिन सुबह, जब लखनऊ रेलवे स्टेशन पर उतरे तो उनके साथ काम कर चुके कुछ सहयोगियों ने चाय- नाश्ते का प्रबंध किया था । केशवजी बिना नहाए कुछ ग्रहण नहीं करते थे पर नाश्ते को मना करके , वे किसी का दिल तोड़ना नहीं चाहते थे इसलिए उन्होंने वहीं विश्रामगृह में स्नान किया और चाय- नाश्ता तथा थोड़ी गपशप के पश्चात विदा ली ।
केशवजी का मन उखड़ा उखड़ा था । हर रोज़ बात करने वाले केशवजी ने चार-पाँच दिनों से इंदु से बात नहीं की । इस बार जब इंदु ने विदाई समारोह में आने से मना कर दिया था तो सचमुच केशवजी को बहुत बुरा लगा था ।
बड़ा बेटा- बहू जर्मनी में बस गए थे और छोटा बेटा लखनऊ में ही बैंक में कार्यरत था पर फ़िलहाल किसी ट्रेनिंग के लिए एक महीने से बैंगलोर गया हुआ था ।
केशवजी रेलवे स्टेशन से निकले , उन्हें पता था कि इंदु के आने का तो सवाल ही नहीं है फिर भी उनकी नज़र रास्ते की भीड़ में अपनों को ढूँढ रही थी । एक बार तो मन किया कि जब किसी को उनकी परवाह ही नहीं ,तो वे कहीं आश्रम में जाकर रह लेंगे पर घर नहीं जाएँगे पर जितनी तेज़ी से ये विचार आया था उसी गति से निकल गया और उन्होंने सोचा-
मेरा घर है , मैं क्यों ना जाऊँ, उससे बात नहीं करूँगा ।
गली के नुक्कड़ पर पहुँचते ही ताजे गुलाब की ख़ुशबू से मन खिल गया । पहले तो लगा कि किसी का बगीचा होगा पर जब अपने घर के दरवाज़े पर लटकती गुलाब की मालाओं पर निगाह पड़ी तो मुँह खुला का खुला रह गया । जैसे ही कैब गेट के सामने रूकी तो केशवजी की इंदु विवाह की लाल साड़ी में सजी- धजी, हाथ में थाल लिए, उनके स्वागत के लिए तैयार खड़ी थी ।
बड़ा बेटा- बहू , उनकी तीन साल की पोती तथा छोटा बेटा सभी ने उनका ऐसा स्वागत किया कि केशवजी की आँखें भीग गई । पूरे मोहल्ले , रिश्तेदारों और मित्रों के लिए शानदार रात्रिभोज का आयोजन किया । बरसों बाद अपने परिवार के साथ सुकून से बैठे केशवजी ने पत्नी को छेड़ने के इरादे से कहा –
तुम्हारी माँ के पास तो मेरे लिए ना कभी समय था और ना ही होगा । ऐसा करो , एक बेडरूम का फ़्लैट अपने लिए हरिद्वार में ख़रीद लेता हूँ ।
केशवजी ने कनखियों से पत्नी के उड़े रंग को देखकर मज़े लिए । फिर बहू से बोले –
शिखा , विदाई समारोह तक में आने से मना कर दिया । तुम बताओ , क्या इसने मेरी थू- थू कराई या नहीं ।
नहीं पापा , मम्मी आपसे बहुत प्यार करती है । हाँ, विदाई समारोह में ना पहुँच पाने का उन्हें भी दुख है। दरअसल वे तो हम सबको साथ लेकर जाना चाहती थी पर ज़रूरी मीटिंग के कारण ना तो हम आ पाए और छोटा तो आपसे केवल आधा घंटा पहले ही आया है ।
केशवजी ने धीरे से पत्नी की ओर देखते हुए कहा – बात निकली ही है तो आज पूरी बात बता लेने दो मुझे । तुम्हारे चाचा की शादी के बाद मैंने न जाने कितनी बार कहा कि मुझे अकेलापन लगता है, मेरे साथ चलो पर इसे तो केवल अपनी सुख- सुविधा देखनी थी ।
पापा , ये बात भी हम सबको पता है । केवल माँ ने ही नहीं, दादी ने भी बताया था कि चाची को घर का सामान अपने मायके भेजने की आदत थी । चलने- फिरने में लाचार दादी ने हमेशा माँ पर यह दबाव बनाकर रखा कि उनके चले जाने पर चाची स्वतंत्र हो जाएँगी और जितनी मेहनत से एक-एक चीज़ जोड़ी है , बिखर जाएगी ।
आप दो- चार दिन के लिए आते थे इसलिए माँ का कहनाथा कि घर की छोटी-मोटी बातों से आपको परेशान करना ठीक नहीं । फिर ये बात भी थी कि इन दों की पढ़ाई के लिए तो एक न एक दिन एक स्थान पर रहने का फ़ैसला करना ही पड़ता ।
इंदु हिचकी ले लेकर रोने लगी और केशवजी ने रुमाल निकालकर जैसे ही दिया , रोते- रोते इंदु की हँसी छूट गई ।
तभी बड़े बेटे ने गोवा की दो टिकटें उन दोनों को देते हुए कहा-
पापा के रिटायरमेंट के बाद का सारा समय अब हमारी मम्मी के लिए है । नौकरी के कारण या हमारी ज़िम्मेदारी की वजह से जो इच्छाएँ पूरी नहीं हो पाई , अब पूरी कीजिए । बस हुक्म करना , आपके तीनों बच्चे सेवा में हाज़िर हो जाएँगे ।
तभी शिखा ने देवर को छेड़ते हुए कहा- तीन बच्चे ही क्यों , चौथी भी आने वाली है ।
केशवजी ने देखा कि गोवा की टिकटें हाथ में पकड़े इंदु का चेहरा ख़ुशी से दमक रहा है । सचमुच इतने अच्छे बच्चों को पाकर वे अपने पति की आभारी थी तो दूसरी ओर बच्चों की अच्छी परवरिश करके इंदु ने उन्हें कृतार्थ कर दिया था ।
करुणा मलिक
केशवजी को बधाई, इतना प्यार करने वाला परिवार मिलना बहुत सौभाग्य की बात है।
Absolutely