चौराहे के बीच गाँधी जी की प्रतिमा के नीचे एक चबूतरे पर गरीब औरत दो बच्चों को लिए बैठी थी। कंकाल सी काया, पेट पीठ में समाया। सुबह का वक्त था, बड़ा बच्चा यही कोई तीन चार साल का और छोटा छ:सात महीने का होगा। बड़ा बच्चा बराबर रोये जा रहा था, जबकि छोटा माँ की छाती से चिपटा अपनी भूख मिटा रहा था। माँ के पूछने पर, काउ बिल्लू भूख बा, बच्चा रोते हुए हां में सिर हिला रहा था। “गोद से छोटे बच्चे को उतारकर चबूतरे पर लिटाते हुए बच्चे की ओर देखकर बोली,” ई छुटकी का तनी देखा हम अबही आवत हई”
चौराहा पारकर एक पाव भाजी वाले के पास पहुंचकर हाथ फैलाते हुए बोली, दू ठू पूड़ी दे दा,हमार बचवा भूख है।
ला! पैसा दे, ना है पैसा,! चल भाग यहां से सुबह-सुबह बोहनी टाइम मुंह दिखाने आ गयी। पास में खड़े एक सज्जन ने उसकी ओर मुखातिब हो कहा, पैसे हम दे रहे हैं इसे पूड़ी दे दो। पाव – भाजी वाले ने एक दोने में सब्जी पूड़ी उसे थमा दी। उस औरत ने उन सज्जन के पैर छूने चाहे पर वे बोले जाओ खा लो। वह औरत रो रहे अपने बच्चों के पास खुशी-खुशी जाने के लिए सड़क पर पहुंची, अभी वह चौराहा पार भी नहीं कर पायी थी कि तेजी से आते एक वाहन ने टक्कर मार दी। पूड़ी का दोना हाथ से उछलकर चबूतरे के पास गिरकर खुल गया, माँ के हाथ में खाने का कुछ लाते देख बच्चा खुश हो रहा था। बच्चे ने सिर्फ अपनी माँ को गिरते हुए ही देखा। टक्कर इतनी भयानक थी कि सब कुछ खत्म।
भीड़ लग चुकी थी, जाम लगने की वजह से पुलिस वालों ने उस गरीब की लाश को सड़क किनारे फुटपाथ पर रख दिया था। वो बच्चा रोते-रोते भीड़ को चीरता हुआ माँ के पास पहुंचा। खून का नामोनिशान नहीं था, शायद अंदरूनी चोट की वजह से मौत हुई थी। माई-माई उथ अब हम न लोइब, देथ छुतका रोवत है। ऊंगली के इशारे से चबूतरे पर रो रही बच्ची की ओर इशारा कर रहा था। बच्चे ने किनारे पड़ी पूड़ी उठाई और थोड़ा टुकड़ा तोड़कर जमीन पर पड़ी माँ के मुंह में डालने लगा। इतने में भीड़ को हटाते हुए पुलिस आ गयी थी।
भीड़ लगी देखकर उन सज्जन ने किसी से पूछा यहांँ भीड़ कैसी लगी है,क्या कोई एक्सीडेंट हो गया,?।
हाँ एक गरीब औरत बेचारी मर गयी। वो सज्जन उधर लपक पड़े अपना कार्ड दिखाकर दोनों बच्चों को पुलिस के हाथों से लेते हुए बोले, इन बच्चों की माँ का हत्यारा शायद मैं ही हूँ, अगर मैं उसको पूड़ी न दिलाता तो वह आगे बढ़ जाती और उसकी मृत्यु टल जाती। अब इन बच्चों को सुन्दर भविष्य देना मेरा प्रायश्चित और जिम्मेदारी है। सात महीने की बच्ची रो-रोकर बेहाल थी। गोद में जाकर हिचकिंया लेते हुए मुस्कराने लगी।
घर पहुंचकर उन बच्चों को सम्भालने के लिए नरेन्द्र दास ने एक आया का इन्तजाम किया और अपनी पत्नी मधुबाला से बोले, ये एक इन्सान के बच्चे हैं जिनका इस दुनियां में कोई नहीं। ये तोहफ़ा ऊपर वाले की नियामत है, हम इन बच्चों को बेहतर जिंन्दगी देंगे। इन बच्चों को शायद हमारा घर अच्छा लगे।
मौलिक एवं स्वरचित
विजय कुमारी मौर्य”विजय” लखनऊ