ग्लानि – रेणु गुप्ता : Moral Stories in Hindi

दोपहर का खाना पीना निपटा, नौकरानी को घर भेज अंजुरी तनिक कमर सीधी करने लेट गई और कुछ ही देर में वह गहन निद्रा के आगोश में समा गई।  कब न जाने किस अबूझ  अनुभूति वश वह अचानक जाग गई और अपनी आंखों के समक्ष सुदूर बंगाल में रहने वाली अपनी सहोदरा पाखी को देख चीख उठी,

“पाखी तू यहां, लेकिन उसे स्वयं पर घोर आश्चर्य हो रहा था, जिस छोटी बहन में कभी उसकी जान बसती थी, उसे वर्षों बाद अपनी देहरी पर आया देख कर भी उसे वह खुशी नहीं हुई थी जो कि उसे होनी चाहिए थी।  अगले दिन उसके घर में किटी पार्टी थी। उस पार्टी की पूरी तैयारी करवा और शाम के लिए वेजिटेबल पुलाव बनवा कर उसने नौकरानी को शाम की छुट्टी दे दी थी।

पूरी शाम स्वयं रसोई में काम करने की सोच कर उसका मूड बेहद खराब हो गया और वह पाखी के खुशनुमा हंसी से उद्भासित  चेहरे को नजरअंदाज करते हुए उल्टे उस पर चिल्ला उठी, “उफ़ पाखी, कम से कम अपने आने की खबर तो दे देती। मेरी नौकरानी शाम को आएगी नहीं। अब सारा काम खुद करना पड़ेगा?”

कभी जो बहन उसके दिल की धड़कन हुआ करती थी, आज पहली बार उसे अपनी दहलीज पर आया देखकर भी उसकी खिन्नता कम होने का नाम नहीं ले रही थी ।

मन ही मन झुंझलाते हुए उसने सबके लिए चाय बनाई और उन्हें पिलाई। भीतर की झुंझलाहट शायद उसके चेहरे पर झलक आई थी, जिसे भांप कर  शायद पाखी को भी कुछ कुछ एहसास होने लगा कि उसने बिना बताए यूं बहन के यहां आकर वाकई में कोई भूल कर दी।

उसने बरसों बाद बहन से मिलने की खुशी से उमगते हुए कहा,  “मैंने सोचा, अचानक आने से आप कितनी खुश हो जाओगी।  अरे दीदी, परेशान क्यों होती हो?  आधे घंटे में सब की थालियां लगा खाना खाने ना बैठा दिया तो मेरा नाम बदल देना। पता है मेरी ससुराल में मुझे सब कंप्यूटर  बहू के नाम से पुकारते हैं। इतनी फुर्ती से रसोई का काम निपटाती हूं कि सब देखते रह जाते हैं।“

                                   कुछ ही देर में कमर में साड़ी का पल्लू खौंस पाखी  ने जबरन उसे रसोई के बाहर कुर्सी खींच कर उसे बिठा दिया और खुद चुटकियों में एक दाल और सब्जी धो  काट गैस पर चढ़ा दी और फिर आटा मल  फ़ुल्के  सेंकने  लगी ।

                                       एक तरफ उसके हाथ बिजली की गति से चल रहे थे, दूसरी ओर उसकी धाराप्रवाह कमेंट्री चालू थी जिसे आधे अधूरे मन से सुनते उसका संवेदनशील मन अथाह  ग्लानि और अपराध भाव से भर उठा। आधुनिक महानगरीय आराम पसंद जीवन शैली का रंग खून के रंग से कहीं गहरा पड़ गया। वह सोच रही थी, वह सरल शैशवावस्था के निस्वार्थ अमिट स्नेह की डोरी थाम  उसकी चौखट तक आ पहुंची अनुजा  का निश्छल भगिनी प्रेम बिसरा  बैठी थी। यही सोचते-सोचते अंजुरी रसोई में बहन का हाथ बंटाने उठी थी

कि पाखी ने उसे रसोई से लगभग धकेलते  हुए डाइनिंग टेबल पर परोसी  हुई थाली रख दी, और लड़ियाते हुए उससे बोली, “जिज्जी,  मेरे हाथ का खाना नहीं खाओगी? याद है जब तुम कॉलेज जाती थी, तो वहां से लौट तुम मां की बनी रखी ठंडी रोटियां छोड़ मुझे गर्म फुल्के  सेंकने की जिद करती थी।  आज मैं पराई हो गई हूं ना, तभी मेरे हाथ के गर्म फ़ुल्के की थाली भी परे सरका रही हो।”

बहन की नि:स्वार्थ ममता देख उसका संताप आंसुओं का सैलाब बन  आंखों में भर आया   और उसने बहन को सीने से लगा लिया।

पाखी ने उसे एक एक फ़ुल्का सेंक  कर खिलाया। फिर दोनों रसोई का काम निपटा  गप्परस  के अनंत महासागर में गोते लगाने लगीं।

          तभी मन ही मन अंजुरी को एक और उलझन ने घेर लिया।  पाखी शुरू से अत्यंत सीधी-सादी, अपने रखरखाव, वेशभूषा के प्रति जरूरत से ज्यादा उदासीन लड़की थी, और एक व्यवसाई से विवाह  के बाद बंगाल के एक कस्बे में पिछले दस  सालों से रहते हुए वह एक नितांत घरेलू गृहणी के सांचे में ढल गई थी।

इसके विपरीत वह दिल्ली जैसे महानगर में पति के रसूख वाले ठसकेदार पद  और उसी के अनुरूप उच्च स्तरीय रहन-सहन एवं सुरुचिपूर्ण वेशभूषा की आदी   हो एक मेट्रो में रहने वाली   सफ़स्टिकेटेड महिला के अवतार में आ चुकी थी। कल किटी पार्टी में   हीरो के गहनों और महंगी रेशमी साड़ियों से जगमगाते व्यक्तित्व के मध्य अपनी चमक खो चुकी,

घिसी हुई सोने की चूड़ियों और एक बारीक सी  चेन पहने और एक सस्ती सिंथेटिक साड़ी में मांग भर सिंदूर लगाए उसकी बहन क्या उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा को तार-तार नहीं कर देगी? यदि उसने पाखी का परिचय अपनी  किटी पार्टी की महिलाओं से करा दिया तो क्या उसकी सहेलियां पीठ पीछे उसका  उपहास नहीं उड़ाएंगी?  तभी उसे अपनी परेशानी का तोड़ सूझा  और उस की उलझन बहुत हद तक दूर  हो गई।

                   अगले दिन उसने बहन के लिए अपनी नई निकोरी, बेहद प्यारी प्योर शिफॉन की साड़ी निकाल कर उसे स्वयं करीने से पहनाई और अपना एक दामी  हीरे का सेट उसे पहना दिया। बहुमूल्य साड़ी और हीरौं के सेट में अपना निखरा  हुआ, दप  दप  करता रंग रूप देख बहन की अतिशय उदारता से अभिभूत पाखी उससे पूछने लगी 

“जिज्जी, भगवान ने आपको जितनी धन दौलत दी  है, उससे कहीं ज्यादा बड़ा दिल दिया है। हाय जिज्जी, सच्ची-सच्ची बताना।  यह साड़ी दस हज़ार  से तो क्या कम की होगी और यह हीरो का सेट यह भी लाख  रुपयों  से क्या कम होगा? सच जिज्जी, मन भर गया यूं  आपको सुखी देखकर। भगवान आप पर यूं ही अपना आशीर्वाद बनाए रखें।”

                                       बहन की इन बातों से एक बार फिर से वह ग्लानि के महा समंदर में डूबने उतराने  लगी।

रेणु गुप्ता

मौलिक

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!